ज्योतिष द्वारा पूर्व तथा अगले जन्म का ज्ञान रेनु सिंह पनर्जन्म के बारे में भारतीय ज्योतिष ग्रंथ हमारा समुचित मार्गदर्शन करते हैं। हमारे ऋषियों और आचार्यों ने अपनी गहन साधना से प्राप्त दिव्य-दृष्टि और ज्ञान द्वारा जन्मकुंडली में ग्रह स्थिति के आधार पर पिछले और अगले जन्म की स्थिति का आकलन सुलभ कर दिया है।
भारतीय ज्योतिष के प्रवर्तक महर्षि पराशर के प्राचीन ग्रंथ बृहत् पराशर होरा शास्त्र के अनुसार:
रविचंद्रबलाक्रांतं त्रयंशनाथे गुरौ जनः।
देवलोकात् समायातो विज्ञेयो द्विज सत्तम।।
शुक्रेन्द्वोः पितृलोकात्तु मत्र्याच्च रविभौमयोः।
बुधाऽक्र्योर्न कादेवं जन्मकालाद् वदेत् सुधीः।।
अर्थात् जन्मकालिक ग्रह स्थिति में सूर्य और चंद्र में से जो बली हो, वह यदि गुरु के त्रयंश (द्रेष्काण) में स्थित हो तो जातक देवलोक (स्वर्ग) से आया है ऐसा समझना चाहिए।
यदि वह शुक्र या चंद्र के द्रेष्काण में हो तो पितृलोक से, सूर्य या मंगल के द्रेष्काण में हो तो मृत्युलोक से और यदि वह बुध या शनि के द्रेष्काण में हो तो नरक लोक से आया है ऐसा समझना चाहिए।
मृत्योपरांत गन्तव्य देवेन्दुभूम्यधोलोकान् नयन्त्यस्तारिरन्ध्रगाः।।
अर्थात लग्न से षष्ठ, सप्तम या अष्टम भाव में गुरु हो तो देवलोक, शुक्र या चंद्र हो तो पितृलोक, रवि या मंगल हो तो भूलोक (मृत्युलोक) और बुध या शनि हो तो अधोलोक (नरक या कीट, पशु योनि) को प्राप्त होता है। यदि उक्त भावों में एक से अधिक ग्रह हों तो उनमें से जो बली हो उसके लोक को जाता है, ऐसा समझना चाहिए। यदि भाव 6, 7, 8 में कोई ग्रह नहीं हो तो -
अथ तत्र ग्रहाभावे रन्ध्रारित्र्रयंशनाथयोः।
यो बली स निजं लोके नयत्यन्ते द्वि जोत्तम् !।।
अर्थात् षष्ठ और अष्टम भाव के द्रेष्काणपति में जो बलवान हो, प्राण् ाी मरण के बाद उस ग्रह के लोक में जाता है, ऐसा समझना चाहिए। मृत्योपरांत गन्तव्य लोक में प्राण् ाी की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए महर्षि पराशर कहते हैं तस्यस्वोच्चादि -
संस्थित्या वरमध्याऽधमाः क्रमात्।
तत्तल्लोकेऽपि संजाता विज्ञेया द्विज सत्तम।।
अर्थात उस ग्रह (द्रेष्काणपति) की उच्चादि स्थिति से मरणोपरांत लोक में जातक को उत्तम, मध्यम या अधम स्थान प्राप्त होता है। जैसे, यदि वह द्रेष्काणपति उच्च का हो तो उस ग्रह के लोक में प्राणी को श्रेष्ठ स्थान, नीच का हो तो निम्न स्थान और उच्च -नीच के मध्य में हो तो मध्य स्तर का स्थान प्राप्त होता है।
ऐसे ही विचार आचार्य वराहमिहिर ने अपने ग्रंथ बृहद्जातक और लघुजातक में, दैवज्ञ श्री वेंकट शर्मा ने अपने ग्रंथ सर्वार्थ चिंतामणि में, और दैवज्ञ जयदेव ने अपने ग्रंथ जातक चन्द्रिका में व्यक्त किए हैं। दैवज्ञ श्री वैद्यनाथ ने अपने ग्रंथ जातक पारिजात में मृत्योपरांत गति के बारे में मृत्यु समय के लग्नानुसार इस प्रकार बताया है -
देवमत्र्यपितृनारकालय प्राणिनो गुरुरिनक्षमासुतौ।
कुर्युरिन्दु भृगुजौ बुधार्क जौ मृत्युकाल भवलग्नगा यदि।।
अर्थात यदि मरण काल में लग्न में गुरु हो तो जातक देवलोक, सूर्य या मंगल हो तो मृत्युलोक, चंद या शुक्र हो तो पितृलोक और बुध या शनि हो तो नरक लोक हो जाता है। जब जन्मकुंडली में शुभगतिप्रद ग्रह स्थित हो और मरण काल में कुंडली में अशुभ स्थिति में हो तो जातक मध्यलोक को जाता है।
जन्म और मरण काल कुंडली दोनों में ग्रह स्थिति अशुभ हो तो जातक अधोगति (नरक या कीट, पशु योनि) पाता है। आचार्य मंत्रेश्वर ने अपने ग्रंथ ‘फलदीपिका’ (अ. 14) में द्वादश भाव (जीवन का अंत) और द्वादशेश को प्राथमिकता देते हुए बताया है कि यदि द्वादशेश उच्च का हो, अपने मित्र के घर में हो, शुभ ग्रह के वर्ग में हो, या शुभ ग्रह के साथ हो तो मनुष्य मृत्योपरांत स्वर्ग को जाता है।
विपरीत स्थिति में नरक पाता है। यदि द्वादश भाव में शीर्षोदय राशि (सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक या कुंभ) हो तो जातक स्वर्ग जाता है, और यदि पृष्ठोदय राशि (मेष, वृष, कर्क, धनु या मकर) हो तो नरक को प्राप्त होता है।
आचार्य मंत्रेश्वर बताते हैं कि जो ग्रह द्वादशेश के साथ हो या द्व ादश भाव में हो, या द्वादश भाव के नवमांश में हो, इससे भी मृत्योपरांत गति का का ज्ञान होता है। यदि यह ग्रह सूर्य या चंद्र हो तो कैलाश, शुक्र हो तो स्वर्ग, मंगल हो तो पृथ्वी लोक, बुध हो तो वैकुंठ, शनि हो तो यम लोक और बृहस्पति हो तो ब्रह्म लोक को जाता है। यदि राहु हो तो किसी दूसरे देश, और यदि केतु हो तो नरक को जाता है।
यहां ध्यान देने की बात है कि आचार्य मंत्रेश्वर ने बुध को वैकुंठ का कारक बताया है तथा राहु और केतु को भी गणना में लिया है। साथ ही उन्होंने नवमेश और पंचमेश से भी पि. छले और अगले जन्म के देश, दिशा, जाति, इत्यादि पर प्रकाश डाला है।
जिज्ञासु पाठक इस संदर्भ में फल दीपिका ग्रंथ के अध्याय 14 श्लोक 24-29 का अध्ययन कर सकते हैं। कुछ प्रमुख ग्रंथों से संकलित विभिन्न ग्रह योग इस प्रकार हैं मोक्ष प्राप्ति योग यदि उच्चस्थ (कर्क राशि का) गुरु लग्न से छठे, आठवें या केंद्र में हो तथा शेष ग्रह निर्बल हों तो जातक को मुक्ति मिलती है। (वृहद्जातक)
यदि गुरु मीन लग्न तथा शुभ नवांश का हो और अन्य ग्रह निर्बल हों तो जातक मोक्ष पाता है। (जातक चन्द्रिका) यदि गुरु धनु लग्न, मेष नवांश (धनु में 00 से 3020’ तक) में हो, शुक्र सप्तम भाव में हो और चंद्र कन्या राशि में हो तो जातक को मोक्ष प्राप्त होता है। (जातक पारिजात) यदि गुरु कर्क लग्न में उच्चस्थ हो, धनु नवांश (कर्क में 16040’ से 200 तक) का हो और तीन चार ग्रह केंद्र में हों तो जातक मोक्ष पाता है। (जातक पारिजात)
जिसके बारहवें स्थान में शुभ ग्रह हो और द्वादशेश बलवान होकर शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट हो, उसे मोक्ष प्राप्त होता है। (बृहत् पराशर होरा शास्त्र)
यदि दशम भाव में मीन राशि हो और उसमें मंगल शुभ ग्रहों के साथ हो तो भी व्यक्ति मोक्ष पाता है। (सर्वार्थ चिन्तामणि)
देवलोक (स्वर्ग) प्राप्ति योग यदि शुभ ग्रह बारहवें भाव में शुभ होकर स्थित हों, अच्छे वर्ग में हों और शुभ ग्रह से दृष्ट हों, तो जातक को स्वर्ग मिलता है। (जातक पारिजात)
यदि अष्टम भाव में केवल शुभ ग्रह हों तो मरणोपरांत शुभ गति प्राप्त होती है। यदि बृहस्पति दशमेश होकर बारहवें स्थान में हो और शुभ ग्रह से दृष्ट हो तो देवपद प्राप्त होता है। (सर्वार्थ चिंतामणि)
लग्न में उच्च का गुरु चंद्र को पूर्ण दृष्टि से देखता हो और अष्टम स्थान में कोई ग्रह न हो तो जातक सैकड़ों धार्मिक कार्य करता है और सदगति पाता है। नरक प्राप्ति योग बारहवें भाव का स्वामी पाप षष्ठांश में हो और उसे पापी ग्रह देखते हों तो प्राणी नरक में जाता है। (फल दीपिका)
बारहवें भाव में यदि राहु, गुलिका और अष्टमेश हो तो जातक नरक पाता है। (जातक पारिजात)
बारहवें भाव में मंगल, सूर्य, शनि व राहु हों अथवा द्वादशेश सूर्य के साथ हो तो मृत्योपरांत नरक मिलता है। (बृहत् पराशर होरा शास्त्र)
यदि बारहवें भाव में राहु और मांदी हों और अष्टमेश तथा षष्ठेश से दृष्ट हों तो जातक नरक पाता है। (सर्वार्थ चिंतामणि)
यदि बारहवें भाव में शनि, राहु या केतु अष्टमेश के साथ हो तब भी नरक की प्राप्ति होती है। (जातक पारिजात)
ऊपर वर्णित ग्रह योग प्रारब्ध के अनुरूप मनुष्य के अगले जन्म की ओर इंि गत करत े ह।ंै फिर भी वह इसी जन्म में एकनिष्ठ भाव से परमात्मा की शरण में जाकर अपने पूर्वार्जित कर्म-फल (प्रारब्ध) को नष्ट कर जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा पा सकता है। इसका आश्वासन भगवान श्री कृष्ण ने गीता के 18वें अध्याय के 66वें श्लोक में दिया है।
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