कर्म और पुनर्जन्म एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। कर्मों के फल के भोग के लिए ही पुनर्जन्म होता है तथा पुनर्जन्म के कारण फिर नये कर्म संग्रहीत होते हैं। इस प्रकार पुनर्जन्म के दो उद्देश्य हैं।
पहला यह कि मनुष्य अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के फल का भोग करता है जिससे वह उनसे मुक्त हो जाता है।
दूसरा यह कि इन भोगों से अनुभव प्राप्त करके नये जीवन में इनके सुधार का उपाय करता है जिससे बार-बार जन्म लेकर जीवात्मा विकास की ओर निरंतर बढ़ती जाती है तथा अंत में अपने संपूर्ण कर्मों द्वारा जीवन का क्षय करके मुक्तावस्था को प्राप्त होती है।
एक जन्म में एक वर्ष में मनुष्य का पूर्ण विकास नहीं हो सकता। पुनर्जन्म का एक कारण है अपने पूर्व जन्मों में किए गए स्थूल कर्मों का भोग। ये स्थूल कर्म स्थूल लोक में ही भोगे जा सकते हैं, इसलिए उन समस्त स्थूल कर्मों का फल अंश संचित कोश में विद्यमान रहता है जिसका थोड़ा सा अंश एक जन्म में भोग हेतु निर्धारित किया जाता है जिसे ‘प्रारब्ध’ कहा जाता है। यह प्रारब्ध अवश्य भोगना पड़ता है। भोगे बिना इससे मुक्ति नहीं होती।
किंतु इस संचित कोश में कई ऐसे कर्म हैं जो एक ही जन्म में नहीं भोगे जा सकते हैं। एक कर्म एक ही स्थान या पद से भोगा जा सकता है किंतु दूसरा इसके विपरीत ऐसा कर्म है जिसके लिए दूसरी अवस्था चाहिए। इसके लिए मनुष्य को दूसरा जन्म लेना पड़ेगा। संचित कर्म का कितना अंश एक जन्म में भोगना है इसका निर्णय कर्म के अधिकारी देवता करते हैं।
इसी भोग कर्म के अनुसार उसे कुल, देश, स्थान, वातावरण, शरीरादि मिलते हैं। ये कर्म कितने समय में भुक्त हो जाएंगे इसके अनुसार उसकी आयु का निर्धारण होता है। कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति के शरीर में ऐसे चिह्न प्रकट होते हैं, जिनके आधार पर हस्त सामुद्रिक का विकास हुआ।
इसी प्रारब्ध भोग के अनुसार उसके ज्ञान तंतुओं का विकास एवं मस्तिष्क की रचना होती है, जिससे वह मानसिक गुणों एवं अवगुणों को प्रकट कर सके। यदि कर्म नियम और पुनर्जन्म को नहीं माना जाए तो ईश्वर उसे सुख दुख क्यों देता है जबकि पूर्व के उसके बुरे कर्म हैं ही नहीं।
ईश्वर ने बिना कारण किसी को दीन-हीन व किसी को संपन्न क्यों बनाया, किसी को मूढ़ व किसी को प्रतिभाशाली, किसी को ईमानदार व किसी को बेईमान, किसी को दयालु व किसी को दुष्ट, किसी को परोपकारी व किसी को अत्याचारी आदि क्यों बनाया? ऐसे अनेक प्रश्नों का उत्तर एक जन्म मानने वाले नहीं दे सकते जबकि इन सबका उत्तर कर्म नियम और पुनर्जन्म से ही मिलता है, अन्य कोई कारण ज्ञात नहीं है।
जब पूर्वजन्म का कोई कर्म ही नहीं है तो वह किसके भोग भोग रहा है? यदि कर्मों का फल एवं भोग नहीं है तो कर्म अर्थहीन हो जाते हैं। फिर अच्छे और बुरे कर्म का औचित्य ही नहीं रहता। फिर तो कर्म पेट भरने का साधन मात्र रह जाते हैं।
ऐसे में नैतिकता, सदाचार, प्रेम, दया, करुणा आदि गुण अर्थहीन हो जाएंगे। मनुष्य की भविष्य की सारी आशाएं तथा उसकी उन्नति का आधार ही समाप्त हो जाएगा। पंच महाभूतों से निर्मित इस स्थूल शरीर के अंदर एक सूक्ष्म शरीर भी होता है तथा इन दोनों को चेष्टा जीवात्मा कराती है, जिसे कारण शरीर भी कहते हैं।
यही कारण शरीर जीव मृत्यु होने पर स्थूल देह को यहीं छोड़कर सूक्ष्म शरीर के साथ दूसरी नई स्थूल देह में निर्माण की प्रारंभिक स्थिति में ही प्रवेश कर जाता है। वह गर्भ में बढ़ता हुआ निश्चित समय पर गर्भ से बाहर आकर धीरे-धीरे एक विकसित भिन्न स्वभावयुक्त मानव या कोई अन्य प्राणी बन जाता है।
सूक्ष्म शरीर को अपने सामान्य नेत्रों से नहीं देखा जा सकता। इसी सूक्ष्म शरीर की आकृति के स्थूल शरीर की आकृति में पुनः प्रकट होने की क्रिया को पुनर्जन्म का नियम कहते हैं। किसी स्थान के प्रति प्रथम दृष्टि में ही अनुराग जाग्रत होने का कारण पूर्व जीवन में उस स्थान पर रहने की भावना है।
इसी प्रकार पहली बार ही किसी से मिलने पर प्रेम जागरण का कारण भी पूर्व जन्म में एक साथ व्यतीत किया जीवन या कुछ काल ही है। इसका तात्पर्य यह है कि इन दोनों जीवात्माओं में इससे पूर्व भी प्रेम था तथा एक दूसरे को देखकर दोनों ऐसा सोचते हैं कि इससे पूर्व भी वे कभी एक दूसरे से मिले थे।
इस प्रकार के प्रेम का कदाचित ही विच्छेदन होता है। विकासवाद के सिद्धांत के समान ही पुनर्जन्म का सिद्धांत है। विज्ञान कहता है कि मनुष्य अपने मस्तिष्क के 15 प्रतिशत भाग का ही उपयोग कर रहा है। सामान्य व्यक्ति तो उसके ढाई प्रतिशत का ही उपयोग कर जी रहा है, बाकी का अंश सुप्त पड़ा है।
यदि इसे विकसित किया जा सके तो प्रतिभा के विकास की अनंत संभावनाएं प्रकट हो सकती हैं। अध्यात्म भी सहस्राब्दियों से कहता आ रहा है कि मनुष्य में सभी ईश्वरीय शक्तियां विद्यमान हैं जिन्हें जाग्रत करके मनुष्य ईश्वर तुल्य बनने की क्षमता प्राप्त कर सकता है। जब जीव अपने जन्म की तैयारी कर रहा होता है तब दूसरी ओर उसके योग्य स्थूल शरीर बनाने की तैयारी दूसरों द्वारा की जा रही होती है।
उस जीव के पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुसार उसके जन्म के स्थान, समय, कुल एवं वातावरण का तथा उसकी कामनाओं के अनुसार नये शरीर का निर्धारण होता है। योग्य शरीर का निर्धारण कर्मों के अधिकारी देवता करते हैं। सभी योग्यताओं वाला शरीर मिलना कठिन है इसलिए एक शरीर से उसके थोड़े से गुण ही प्रकट हो सकते हैं।
अन्य गुणों के विकास के लिए उसे दूसरा जन्म लने ा पडगे़ ा। यह सारा कार्य कर्म के अधिकारी देव करते हैं। जीवात्मा के विकास की यह स्वाभाविक प्रक्रिया है जिससे यदि मनुष्य अपने दुराग्रह एवं अहंकार के कारण बाधा उपस्थित न करे तो प्रकृति के नियम के अनुसार चलकर वह स्वाभाविक रूप से उन्नति करता हुआ कई जन्मों में जाकर पूर्णत्व की प्राप्ति कर सकता है।
हर जन्म में भोगों को भोगना तथा उनसे होने वाले परिणामों से दुख उठाना, इससे मनुष्य कई जन्म में जाकर यह शिक्षा ग्रहण करता है कि इन वासनाओं के कारण ही आसक्ति होती है तथा यही आसक्ति बंधन का कारण बनती है। इसी आसक्ति के कारण मनुष्य की इच्छा भोगों की ओर जाती है किंतु सभी भोग अंत में दुखदायी ही सिद्ध होते हैं।
इसके बाद उसकी भोगों के प्रति अरुचि हो जाती है। यही उसका ‘वैराग्य’ है। यह उच्च चेतना प्राप्त व्यक्तियों का अनुभव है। जो उन ज्ञानियांे के वचन मानकर विरक्त हो जाता है उसकी प्रगति शीघ्र होती है। अन्यथा स्वयं अनुभव प्राप्त करने में कई जन्म गंवाने पड़ते हैं।
सृष्टि का नियम ही ऐसा है कि कर्म का फल अवश्य होता है तथा सभी भोग अंत में दुखदायी होते हैं। यह त्याग आंतरिक प्रेरणा से होता है, तभी सच्चा वैराग्य है। माया, भ्रम, अज्ञान के अनेक मार्ग हैं किंतु सत्य का एक ही मार्ग है।
जब वासना एवं कामना से व्यक्ति ऊपर उठ जाता है तभी उसे ईश्वर के सामीप्य का अनुभव होता है। जब तक मुक्ति न हो जाए तब तक इस जन्म-मृत्यु के चक्र से गुजरना पड़ेगा। ईश्वर और आत्मा को जान लेने मात्र से कुछ लाभ नहीं होता।
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