भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ऋषि पंचमी का व्रत किया जाता है। यह व्रत प्रातः काल, मध्याह्न काल, सायंकाल, रात्रि कालादि समय में किए गए ज्ञात-अज्ञात पापों के शमन के लिए किया जाता है।
अतः स्त्री-पुरुष दोनों को ही इस व्रत का पालन करना चाहिए। स्त्रियों से रजस्वला अवस्था में घर के पात्रादि का प्रायः स्पर्श हो जाता है, इससे होने वाले पाप के शमन के लिए भी वे इस व्रत को करती हैं। इस व्रत में सप्तर्षियों सहित अरुंधती का पूजन होता है। इसी कारण इसे ऋषि पंचमी व्रत के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है।
व्रत विधान: इस दिन व्रती को प्रातः काल दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर प्रातः से मध्याह्न पर्यंत उपवास करके मध्याह्न के समय किसी नदी या तालाब पर जाकर वहां अपामार्ण की दातौन से दांत साफकर शरीर में मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिए।
व्रत के प्रारंभ में व्रती को ‘‘देशकालौ संकीत्र्य अमुक गोत्र अमुक शर्मा (वर्मा गुप्तो) वाहं अध्यायोत्सर्ग कर्मांगत्वेन अरुंधती सहितसप्तर्षिस्थापनं पूजनंच तदंगत्वेन गणपत्यादि देवानां पूजनं सर्वदोषशमनार्थं करिष्ये’’ कहकर संकल्प लेना चाहिए। स्नानोपरांत घर पर पूजा स्थान में आकर पंचगव्य ग्रहण करें।
पूजा स्थान को गाय के गोबर से लीपकर चैकी पर नवीन वस्त्र बिछाकर गणेश गौरी, षोडशमातृका, नवग्रह मंडल, सर्व सर्वतोभद्र मंडल बनाकर ताम्र, स्वर्ण या मिट्टी का कलश स्थापित करें। कलश के पास ही अष्टदल कमल बनाकर गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि इन सप्तर्षियों सहित देवी अरुंधती की स्थापना करें।
चैकी पर एक ओर पूजा के निमित्त यज्ञोपवीत को भी स्थापित करें। देवताओं सहित सप्तर्षियों, अरुंधती आदि का षोडशोपचार पूजन करें। इस दिन प्रायः दही और साठी का चावल खाने का विधान है। नमक का प्रयोग सर्वथा वर्जित है।
हल से जुते हुए खेत का अन्न खाना वज्र्य है। दिन में केवल एक ही बार भोजन करना चाहिए। कलश आदि पूजन सामग्री को ब्राह्मण को दान कर देना चाहिए। पूजन के पश्चात् ब्राह्मण भोजन कराकर ही स्वय ं प्रसाद पाना चाहिए। ऋषियों की वंशावली श्रवण करने का भी विधान है।
सप्तर्षियों की प्रसन्नता हेतु ब्राह्मणों को विभिन्न प्रकार के दान और दक्षिणा देकर संतुष्ट करें। ऋषि पंचमी व्रत की कथा इस प्रकार है।
कथा: सत्ययुग में श्येनजित् नामक एक राजा राज्य करता था। उसके राज्य में सुमित्र नाम का एक ब्राह्मण रहता था जो वेदों का विद्वान था।सुमित्र खेती कर अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। उसकी पत्नी जयश्री साध्वी और पतिव्रता थी। वह खेती के कामों में भी पति का सहयोग करती थी।
एक बार रजस्वला अवस्था में अनजाने में उसने घर का सब कार्य किया और पति का भी स्पर्श कर लिया। दैवयोग से पति-पत्नी का शरीरांत एक साथ ही हुआ। रजस्वला अवस्था में स्पर्शास्पर्श का विचार न रखने के कारण स्त्री ने कुतिया और पति ने बैल की योनि प्राप्त की, परंतु पूर्व जन्म में किए गए अनेक धार्मिक कृत्यों के कारण उन्हें ज्ञान बना रहा।
संयोग से इस जन्म में भी वे साथ-साथ अपने ही घर में अपने पुत्र और पुत्रवधू के साथ रह रहे थे। ब्राह्मण के पुत्र का नाम सुमति था। वह भी पिता की भांति वेदों का विद्वान था। पितृपक्ष में उसने अपने माता-पिता का श्राद्ध करने के उद्देश्य से पत्नी से कहकर खीर बनवाई और ब्राह्मणों को निमंत्रण दिया। उधर एक सर्प ने आकर खीर को विषाक्त कर दिया। कुतिया बनी ब्राह्मणी यह सब देख रही थी।
उसने सोचा कि यदि इस खीर को ब्राह्मण खाएंगे तो विष के प्रभाव से मर जाएंगे और सुमति को पाप लगेगा। ऐसा विचार कर उसने सुमति की पत्नी के सामने ही जाकर खीर को छू दिया। इस पर सुमति की पत्नी बहुत क्रोधित हुई और चूल्हे से जलती लकड़ी निकालकर उसकी पिटाई कर दी। उस दिन उसने कुतिया को भोजन भी नहीं दिया। रात्रि में कुतिया ने बैल से सारी घटना बताई।
बैल ने कहा कि आज तो मुझे भी कुछ खाने को नहीं दिया गया जबकि मुझसे दिन भर काम लिया गया। सुमति हम दोनों के ही उद्देश्य से श्राद्ध कर रहा है और हमें ही भूखों मार रहा है। इस तरह हम दोनों के भूखे रह जाने से तो इसका श्राद्ध करना ही व्यर्थ हुआ। सुमति द्वार पर लेटा कुतिया और बैल की वार्ता सुन रहा था।
वह पशुओं की बोली भली भांति समझता था। उसे यह जानकर अत्यंत दुख हुआ कि मेरे माता-पिता इन निकृष्ट योनियों में पड़े हैं। वह दौड़ता हुआ एक ऋषि के आश्रम में गया और उनसे अपने माता-पिता के पशु योनि में पड़ने का कारण और मुक्ति का उपाय पूछा। ऋषि ने ध्यान और योगबल से सारा वृत्तांत जान लिया।
उन्होंने सुमति से कहा कि तुम पति-पत्नी भाद्रपद शुक्ल पंचमी को ऋषि पंचमी का व्रत करो और उस दिन बैल के जोतने से उत्पन्न कोई भी अन्न न खाओ। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे माता-पिता की मुक्ति हो जाएगी। अनंतर मातृ-पितृभक्त सुमति ने ऋषि पंचमी का व्रत किया, जिसके प्रभाव से उसके माता-पिता को पशुयोनि से मुक्ति मिल गई।
यह व्रत शरीर के द्वारा अशौचावस्था में किए गए स्पर्शास्पर्श तथा अन्य पापों के प्रायश्चित के रूप में किया जाता है। इस व्रत से स्त्रियों को रजस्वलावस्था में स्पर्शास्पर्श का विचार रखने की शिक्षा लेनी चाहिए।
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