‘पुलस्त्य’ पुनर्जन्म होता है, नहीं होता या होता है तो किस प्रकार होता है? वर्तमान जीवन से पूर्व हमारा अस्तित्व क्या रहा होगा और मृत्यु के बाद हमारा शरीर तो नष्ट हो जाएगा मगर हमारी आत्मा कहां जाएगी? हमारी क्या स्थिति होगी? आदि प्रश्न सभी के मन में कौंधते हैं। इन्हीं प्रश्नों के उत्तर तलाशने का प्रयास यहां पूर्व जन्म विशेषांक में किया जा रहा है...
प्राचीन काल से ही हमारे ग्रंथों में पुनर्जन्मवाद के सूत्र मिलते हैं। किंतु आज जिस अर्थ में पुनर्जन्म की जो घटनाएं हमें देखने-सुनने को मिलती हैं, हमारे ग्रंथों में उस प्रकार की घटनाओं का चित्रण नहीं मिलता। पुनर्जन्म की अवस्था में व्यक्ति को पूर्व जन्म की कई बातें याद रहती हैं।
किसी अबोध बालक या किसी युवती द्वारा अपने पूर्व जन्म की बातें बताने के जो वृत्तांत पत्र पत्रिकाओं व अखबारों में प्रकाशित होते हैं, पुनर्जन्म को वहीं तक सीमित कर दिया जाता है। पुनर्जन्म भारतीय संदर्भों में एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। क्योंकि व्यक्ति का जीवन कई कड़ियों में बंधा है और प्रत्येक कड़ी दूसरी कड़ी से जुड़ी है, इसीलिए एक जन्म के कार्यों का प्रभाव दूसरे जन्म के कार्यों पर पड़ता है।
इस जन्म के संस्कार सूक्ष्म रूप से हमारे अंदर प्रविष्ट होकर अगले जन्म तक साथ जाते हैं। जिस प्रकार हम कई जानी अनजानी प्रवृत्तियों को अपने साथ लेकर इस जीवन में चल रहे होते हैं उसी प्रकार पूर्व जन्मों या अगले जन्मों में भी कई जानी अनजानी प्रवृत्तियों को साथ लेकर उन जन्मों में चल रहे होते हैं।
अपने पूर्व जीवन की स्मृति सूक्ष्म रूप में प्रत्येक व्यक्ति के मनोमस्तिष्क में रहती ही है, भले ही वह उसके सामने कभी निद्रावस्था में स्वप्न के माध्यम से प्रकट हो या जाग्रतावस्था में ही बैठे-बैठे उसके मानस में किसी विचार अथवा किसी बिंब के माध्यम से प्रकट हो।
कई साधकों ने इस बात का अनुभव किया है कि उन्हें ध्यानावस्था में भांति-भांति के दृश्य और भांति-भांति के विचार आकर घेर लेते हैं। उनके पीछे जहां एक ओर व्यक्ति के मन में वर्तमान समय में चल रहा कोई द्वंद्व होता है वहीं उनका एक सूत्र पूर्व जीवन में भी छुपा होता है।
प्रायः इसी कारण कई साधकों को विचित्र-विचित्र अनुभव होते रहते हैं। किसी को स्वप्न में बार-बार उफनती नदी का दृश्य, किसी को हथकड़ी तो किसी को कोई स्थान विशेष दिखाई देता है। यह अकारण नहीं है। कभी किसी जन्म में किसी व्यक्ति ने कोई दुष्कर्म किया होगा जिसकी स्मृति में उसके साथ हथकड़ी चलती रहती है।
कहीं किसी जन्म की आत्महत्या की स्मृति व्यक्ति के साथ कभी रस्सी के रूप में तो कभी नदी के रूप में चलती रहती है। मनुष्य की आंतरिक खोज और बाह्य खोज अर्थात आधुनिक विज्ञान की खोज दोनों से यह तो सिद्ध हो चुका है कि मृत्यु के पश्चात भी मनुष्य का अस्तित्व होता है और यदि मृत्यु के बाद उसका अस्तित्व है, तो जन्म से पूर्व भी उसका अस्तित्व होना ही चाहिए।
आए दिन समाचार पत्रों में किसी स्त्री या पुरुष के पुनर्जन्म या किसी बालक के पूर्व जन्म के समाचार आते रहते हैं। ऐसे समाचार भी प्राप्त होते हैं कि किसी स्त्री या पुरुष की मृत्यु हो गई और मृत्यु के कुछ समय बाद वह पुनर्जीवित हो उठा।
इन सब बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जन्म और मृत्यु से जीवन का प्रारंभ और अंत नहीं है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है - ‘‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्र्रुवं जन्म मृतस्य च’’ अर्थात जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु सुनिश्चित है और यह भी सत्य है कि मृत्यु को प्राप्त जीव पुनः जन्म लेगा।
पुनर्जन्म जन्म, जीवन आरै मत्ृ य ु चक्र की अबझू पहेली है। अतः पुनर्जन्म कोई संयोग मात्र नहीं बल्कि एक ध्रुव सत्य है। आत्मचेतना के शाश्वत काल में जीवन और मृत्यु दिवस व रात्रि के समान घटित होते हैं।
ऋषि कहते हैं- ‘‘मृत्यु के उपरांत जब पंच तत्व अपने-अपने तत्व लोक में मिल जाते हैं, तब जीवात्मा शेष बची रहती है और वह पुनः नवीन देह धारण करती है। जीवात्मा अपने जीवन काल में किए गए कर्मों को भोगने के लिए इस मत्र्यलोक में कर्म के अनुरूप जन्म लेती है और सृष्टि का कालचक्र चलता रहता है।’ वेदों में पुनर्जन्म को स्पष्ट मान्यता मिली है। उपनिषद काल में पुनर्जन्म की घटना का व्यापक उल्लेख मिलता है।
योगदर्शन के अनुसार अविद्या आदि क्लेशों के जड़ होते हुए भी उनका परिणाम जन्म, जीवन और भोग होता है। सांख्य दर्शन के अनुसार ‘‘अथ त्रिविध दुःखात्यन्त निवृत्ति ख्यन्त पुरुषार्थः।’’ पुनर्जन्म के कारण ही आत्मा के शरीर, इंद्रियों तथा विषयों से संबंध जुडे़ रहते हैं। न्याय दर्शन में इसे ‘पुनरुत्पत्ति प्रेत्यभाव’ कहा गया है।
जन्म, जीवन और मरण जीवात्मा की अवस्थाएं हैं। जीवात्मा पंच तत्वों को धारण कर इस मत्र्यभूमि में जन्म लेती है। पिछले कर्मों के अनुरूप वह उसे भोगती है तथा नवीन कर्म के परिण् ााम को भोगने के लिए वह फिर जन्म लेती है। पुनर्जन्म मात्र पूर्वी अवधारण् ाा ही नहीं है, बल्कि इसका उल्लेख पाश्चात्य दर्शन में भी मिलता है। पश्चिमी तत्वज्ञ प्लेटो ने दर्शन की व्याख्या ‘मृत्यु और मरण का प्रदीर्घ अभ्यास’ कहकर की है।
प्लूटार्क तथा सोलोमन भी पुनर्जन्म की अवधारणा को मानते थे। पाइथागोरस का विचार है कि ‘‘श्रेष्ठ कर्म से जीवात्मा उच्चतर लोकों में पहुंचती है और निकृष्ट कर्म उसे निरंतर निम्नतर योनियों में जाने के लिए विवश करते हैं।’’ स्पिनोजा, हर्टली तथा प्रिस्टले भी आत्मा के अमरत्व पर विश्वास करते थे।
उनके अनुसार- ‘‘शरीर नश्वर है। शरीर ही मरता है, परंतु इसमें निवास करने वाली आत्मा अमर है।’’ रूसो पुनर्जन्म की अवधारण् ाा को अपने ढंग से स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‘‘वास्तविक जीवन का प्रारंभ तो मृत्यु के पश्चात होता है।’’ संभवतः वे अगले जन्म में कुछ और करना चाहते थे, जो अपने जीवनकाल में नहीं कर सके थे।
पुनर्जन्म को मानने वाले दार्शनिकों में क्रिस्टल बुल्के की मान्यता है कि ‘‘आत्मा सूक्ष्म होती है। स्थूल तो हमारे कर्म होते हैं, जो वर्तमान जीवन के कारण हैं।’’ कांट के अनुसार ‘मनुष्य मरण धर्मा है, आत्मा नहीं। आत्मा मूलतः शाश्वत है।’
फिक्टे का कथन है कि ‘‘मृत्यु आत्मा के जीवन प्रवाह में एक विश्राम स्थल है, जहां आत्मा अगले जन्म के लिए आराम करती है।’’ शेलिंग का विचार है कि ‘‘उच्च आत्माएं उच्च नक्षत्रों में जन्म लेती हैं। ये विशेष कार्य के लिए ही देह धारण करती हैं।’’ नोवालिस की दृष्टि में ‘‘जीवन कामना है और कर्म उसका परिणाम है। जन्म और मृत्यु जीवन की दो भिन्न अवस्थाएं हैं।
जन्म में जीवन अभिव्यक्त होता है और मृत्यु में विलुप्त हो जाता है। मनुष्य इसी यात्रा से अमरता को प्राप्त होता है।’’ दार्शनिक हीगल के अनुसार, सभी आत्माएं पूर्णता की ओर बढ़ रही हैं, जन्म, जीवन और मृत्यु तो इस महायात्रा के पड़ाव हैं।
मनोविज्ञान की शाखा परामनोविज्ञान तो पुनर्जन्म पर ही आधारित है। इसके सभी सिद्धांत पुनर्जन्म का ही प्रतिपादन करते हैं। मनोविज्ञान की आधुनिक शाखा ट्रांस पर्सनल साइकाॅलाॅजी के अनुसार ‘‘व्यक्तित्व वर्तमान जीवन पर केंद्रित नहीं है, इसकी जड़ंे बहुत गहरी हैं।
इस कारण स्थूल शरीर को ही व्यक्तित्व मानना तथा यह कहना कि स्थूल शरीर के समाप्त होने पर व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है, ठीक उसी प्रकार से है, जिस प्रकार से यह कथन कि बिजली के बल्ब फूट जाने या फ्यूज हो जाने पर बिजली ही नहीं रह जाती तथा उस बल्ब के स्थान पर कोई बल्ब ही नहीं जल सकता।
व्यक्तित्व की इस प्रकार की धारणा मूखर्तापूर्ण है। इस तथ्य का समर्थन करते हुए हारवर्ड कैरिंगटन ने ‘ज्ीम ैजवतल व िच्ेलबपा ैबपमदबमश् में उल्लेख किया है कि ‘‘मुत्यु के बाद भी व्यक्तित्व का अस्तित्व होता है।’’
पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए पाश्चात्य वैज्ञानिक कहते हैं कि आत्मा के अमरत्व का निषेध करने वाले पाश्चात्य जड़वादी भौतिक शास्त्र के अंतर्गत शक्ति तथा अचेतन द्रव्य के अस्तित्व को मानकर एक तरह से अमरत्व की ही स्वीकृति देते हैं।’’ लाॅज, ओस बोर्न जैसे आधुनिक विद्व ानों ने भी मृत्यु के बाद के अस्तित्व को मान्यता प्रदान की है।
आधुनिक ‘कान्शियसनेस’ के पुरोधा केन बिल्वर ने भी पुनर्जन्म का समर्थन किया है। श्री अरविंद के दर्शन को आधार मानकर उन्होंने चेतना की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया है, जो पुनर्जन्म को सिद्ध करती हैं।
श्री अरविंद ने पुनर्जन्म की बड़ी ही वैज्ञानिक व्याख्या की है। वे कहते हैं कि ‘‘जब आत्मा जन्म लेती है तो वह अपने अनुरूप विश्व के अनेक लोकों से मन, प्राण और शरीर को चुनती है। देह धारण के लिए उसे इन्हीं चीजों की आवश्यकता पड़ती है। मृत्यु के पश्चात् शरीर पंच तत्वों में विलीन हो जाता है।
शरीर, मन और आत्मा को बांधने वाला डोरी रूप प्राण सबसे पहले प्राण लोक में जाता है, मन मनः लोक में और अंत में आत्मा चैत्यलोक में पहुंच जाती है और वहीं अगले जन्म की प्रतीक्षा करती है। सामान्य मनुष्यों में ही ऐसा घटित होता है, योगी पुरुषों में ऐसा नहीं होता।
चूंकि प्राण और मन अत्यधिक विकसित अवस्था में होते हैं अतः ये अंतरात्मा के साथ गहराई से जुड़े रहते हैं। अंतरात्मा अपने जन्म के समय मन, प्राण के अनुभवों के मुख्य तत्वों को साथ लाती है, ताकि नए जीवन में वह और अधिक अनुभव प्राप्त करने में समर्थ हो सके।’’
श्री अरविंद कहते हैं कि ‘‘प्रेत एवं पितरों को जो श्राद्धकर्म दिए जाते हैं, वे प्राणमय भाग को ही मिलते हैं। वस्तुतः मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा की प्राणिक संवेदना प्राणिक जगत से जुड़ी-बंधी होती है। श्राद्ध कर्म इस संवेदना को मुक्त करने के लिए दिया जाता है, ताकि वे आत्मिक शांति में शीघ्रतापूर्वक विश्राम कर सकें। भारतीय संस्कृति का श्राद्धकर्म पुनर्जन्म की मान्यता को सुदृढ़ करता है।
जीवात्मा अनेक रूपों में गति करती है। पितृयान का तात्पर्य है पूर्वजों द्वारा प्राप्त निम्नलोकों की यात्रा पर जाना। देवयान का अर्थ है अज्ञान से परे प्रकाश में जाना। जीवात्मा अपने कर्मों के आधार पर इन पथों से गुजरती है।’’ श्रेष्ठतर उद्देश्य एवं भगवान के कार्यो को पूर्ण करने के लिए एक जन्म क े रिश्त े अगल े जन्मा ंे तक चलत े ह।ंै इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी अगले जन्म में रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के रूप में अवतरित हुए थे।
एक बार स्वामी विवेकानंद ने शिवानंद से कहा था कि ‘‘जब मैं बुद्ध था तो आप आनंद के रूप में मेरे पास थे। नर और नारायण ऋषि ने ही क्रमशः अर्जुन और श्री कृष्ण के रूप में इस धरा पर अवतार लिया था। श्री रामकृष्ण परमहंस और मां शारदामणि ने अनेक जन्मों तक साथ रहकर भगवत कार्य में हाथ बंटाया था।’’
मीराबाई द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण की ललिता सखी थीं जो द्व ापर युग में मुक्ति को प्राप्त नहीं हुई थीं। वह पूर्ण अध्यवसायशील संपन्न थीं और कई जन्मों के पश्चात मीरा के रूप में जन्म प्राप्त कर द्वारकापुरी के ‘रण छोड़दास’ की मूर्ति में सशरीर समा गई थीं।
त्रेतायुग के बाली द्व ापर युग में जरा व्याध के रूप में और लक्ष्मण द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता बलराम के रूप में अवतरित हुए। इस प्रकार प्राचीन धर्म ग्रंथ पुनर्जन्म की घटनाओं के उल्लेख से भरे पड़े हैं। नरक और स्वर्ग तो आत्मा की काल्पनिक अवस्थाएं हैं। ये प्राण की अवस्थाएं हैं, जो वे प्रयाण के बाद गढ़ती हैं।
नरक का अर्थ है प्राणलोक से होकर गुजरने वाली अति असह्य और कष्टप्रद यात्रा। कभी-कभी आ. त्मदाह करने वाली आत्माएं प्राणलोक में ठहर जाती हैं। वे वहां अपनी उग्र पीड़ा और अस्वाभाविक मृत्यु से उत्पन्न कष्टों से घिरी छटपटाती रहती हैं।
यही नारकीय यंत्रणा है। नरक इस असाध्य कष्ट पाने के स्थल को कहते हैं। मन और प्राण के ऐसे लोक भी हैं जो सुखद और दुखद अनुभवों से भरे हुए हैं। सुखद अनुभव कराने वाला स्थल स्वर्ग और दुखद अनुभूति देने वाला नरक है।
इस लोक को मृत्यु लोक कहने का कारण यही है कि यहां स्वर्ग-नरक की स्वचलित प्रक्रिया चलती रहती है। इसीलिए योगी जन निरंतर योग करते रहने का उपदेश देते हुए कहते हंै कि ‘‘इस स्वर्ग-नरक से परे अलौकिक दिव्य लोक में प्रवेश करने के अधिकार योग द्वारा प्राप्त करें।’’
जिस प्रकार इस संसार में आपाधापी और धक्का देकर अवसर छीन लेने की होड़ है उसी प्रकार सूक्ष्म जगत में धक्का देकर दुष्टात्मा श्रेष्ठ गर्भ छीन लेती है, जिससे कोई दुष्ट चरित्र व्यक्ति किसी कुलीन और संस्कारित परिवार में जन्म ले लेता है, कोई गाली-गलौज करने वाला बालक अच्छे और कुलीन गर्भ में जन्म ले लेता है।
वहीं किसी असभ्य कुसंस्कारित माता के गर्भ से कोई शांत बालक जन्म ले लेता है। जन्म लेने और जीवन धारण करने का एक ही मौलिक प्रयोजन है - जीवन और दृष्टि में भागवत सौंदर्य की पूर्ण अभिव्यक्ति। इस हेतु आत्मा विभिन्न रूपों में विकसित होती है, जब तक कि वह मानव देह धारण न कर ले।
यह उच्च स्तरों के लिए एक मात्र सीढ़ी है। निम्न से उच्च तक, पशु से मानव तक प्रगति की यात्रा चलती रहती है। जीवात्मा मानव शरीर में आकर भी बार-बार इसे प्राप्त करने के लिए आती रहती है और प्रत्येक बार भगवान के सौंदर्य की अभिव्यक्ति में अभिवृद्धि होती रहती है।
यह विकास की सामान्य प्रक्रिया है, जो महामानव, देव मानव के क्रम में गतिशील रहती है। मानव सामान्य रूप से अगला जन्म मानव के रूप में ही प्राप्त करता है। मानवीय चेतना इतनी उत्कृष्ट है, परिष्कृत कोटि की है कि उसका निम्न योनियों में जाना लगभग असंभव है।
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