पुनर्जन्म की अवधारणा
पुनर्जन्म की अवधारणा

पुनर्जन्म की अवधारणा  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 17341 | सितम्बर 2007

प्रश्न: पुनर्जन्म किसका होता है? जबकि शरीर जो कि पंच तत्वों से बना है, उन्हीं में विलीन हो जाता है और आत्मा का न जन्म होता है और न मृत्यु। तो पुनर्जन्म किसका होता है? पुनर्जन्म सिद्ध ांत को कैसे सिद्ध किया जा सकता है?

पुनर्जन्म किसका होता है यह जानने के लिए पहले शरीर में निहित सत्ता को समझना जरूरी है। इसके लिए मुख्य तीन घटकों को समझना आवश्यक है- परमात्मा, आत्मा, तथा प्रकृति। भौतिक शरीर में अशरीरी आत्मा वास करती है और आत्मा के मुख्य घटक मन, बुद्धि और संस्कार होते हैं। मन भौतिक जगत की घटनाओं से शरीर में विद्यमान इंद्रियों के माध्यम से प्रभावित होता है।

बुद्धि आत्मा की निर्णय शक्ति है जो निर्णय लेती है कि अमुक कार्य, इच्छा, प्रभाव इत्यादि हितकर हैं या नहीं। मन से प्रभावित बुद्धि के निर्णय लेने के उपरांत शरीर द्वारा प्रतिपादित कार्य संस्कार बन जाता है। यदि कर्म ध्यानपूर्वक किया जाए तो वह संचित कर्म बन जाता है तथा उसकी पुनरावृत्ति होती रहती है और यह बार-बार का संचित कर्म ही मनुष्य का स्वभाव बन जाता है।

यह स्वभाव मन द्वारा प्रभावित अवस्था है जो सकारात्मक अथवा नकारात्मक हो सकती है और जिसका अनुभव आत्मा करती है। विचारों का पुनर्जन्म ही मन कहलाता है। अर्थात इंद्रियों से प्राप्त ज्ञान से मन सक्रिय होकर अपने अंदर आने वाले विचारों को संग्रहित करता हुआ बुद्धि को संकेत देता है जो मन से प्राप्त संकेतों को क्रियान्वित करने के लिए शरीर को आदेश देता है तथा होने वाले कर्म संस्कार बन जाते हैं।

ये संस्कार आत्मा रूपी कैसेट में रिकार्ड होते रहते हैं। मनुष्य की अंतिम अवस्था में भाव (लोभ, मोह, अहंकार) से प्रभावित या उससे परे परमात्मा से प्रभावित होने पर देह का त्याग हो जाता है और तब अगला जन्म उसी भाव की पूर्ति के लिए प्राप्त अवस्था में पुनर्जन्म होता है।

इस अवस्था में जन्म तो शरीर का ही होता है परंतु शरीर अपना कार्यकाल पूरा करने के उपरांत जीर्ण हो चुका होता है परंतु परमात्मा प्रदत्त शक्ति को अपना बचा हुआ भाग पूरा करना होता है। अतः उसे पुनः दूसरा शरीर धारण करना होता है जो उसके पूर्वजन्म के संग्रहित कर्मों के अनुसार परिस्थिति विशेष में मिलता है।

इस प्रकार आत्मा नूतन शरीर में प्रवेश करती है और मन, बुद्धि, संस्कार सहित आत्मा पुनः उसमें प्रवेश कर अपनी भूमिका अदा करते हैं। मन एक क्रिया है सोचने की’। अंतिम अवस्था में मन की अवस्था से प्रभावित आत्मा उससे आगे के समय के लिए पुनः शरीर धारण करती है जिसे पुनर्जन्म कहा जा सकता है, परंतु आत्मा या उसकी शक्तियां मन, बुद्धि व संस्कार, पुनर्जन्म नहीं लेती हैं वरन् शरीर बदलते हैं।

ज्योतिषीय भाषा में इसे प्रारब्ध कहते हैं। प्रारब्ध पिछले जन्म में किए गए कर्मों द्वारा बने संस्कारों का कैसेट होता है जो आत्मा में निहित रहता है। कुछ बच्चे जन्म से ही बहुत ज्ञानी होते हैं। उस वक्त शरीर सक्षम नहीं होता, परंतु आत्मा अपनी भूमिका का पिछले जन्म के अनुरूप निर्वाह करती है।

इससे सिद्ध होता है कि पिछले संस्कारों को ही पुनः दोहराया जाता है। सूक्ष्म शरीर, जिसमें इंद्रियों की शक्तियां और मन रहते हैं, मृत्यु के बाद भी शेष रहता है, जीवात्मा इसे एक शरीर से दूसरे शरीर में ऐसे ले जाती है जैसे वायु सुगंध को ले जाती है।

‘‘जीवापेतं वाव किलेदं म्रियते न जीवो भ्रियते’’ जीव से रहित हुआ यह शरीर ही मरता है, जीवात्मा नहीं मरती। मरणासन्न मनुष्य को बड़ी बेचैनी, पीडा़ आरै छटपटाहट हाते ी ह,ै क्यांिे क सब नाड़ियों से प्राण खिंचकर एक जगह एकत्रित होते हैं। प्राण निकलने का समय जब बिल्कुल पास आ जाता है, तो व्यक्ति मूचर््िछत हो जाता है, अचेतन अवस्था में ही प्राण उसके शरीर से बाहर निकलते हैं।

मरते समय वाक (वाणी) आदि इंद्रियां मन में स्थित होती हैं, मन प्राण में और प्राण तेज में। तेज से तात्पर्य है पंच सूक्ष्म भूत समुदाय तथा तेज परमदेव जीवात्मा में स्थित होता है। प्रश्नोपनिषद् के अनुसार ‘वह प्राण उदानवायु से सहित जीवात्मा को उसके संकल्पानुसार भिन्न-भिन्न लोकों (योनियों) में ले जाता है। जीव अपने साथ धन-दौलत तो नहीं किंतु ज्ञान, पाप, पुण्य कर्मों के संस्कार अवश्य ही ले जाता है।

यह सूक्ष्म शरीर ठीक स्थूल शरीर की ही बनावट का होता हैं। वायु रूप होने के कारण भारहीन होता है। मृतक को बड़ा आश्चर्य लगता है कि मेरा शरीर कितना हल्का हो गया है। स्थूल शरीर छोड़ने के बाद सूक्ष्म शरीर अंत्येष्टि क्रिया होने तक उसके आस-पास ही मंडराता रहता है और जला देने पर उसी समय निराश होकर कहीं अन्यत्र चला जाता है।

मृतक का अपने शरीर से और परिवार से मोह खत्म हो जाए इसलिए उसके प्रिय पुत्र से ही मुखाग्नि दिलाई जाती है। संसार की चैरासी लाख योनियों को तीन मुख्य भागों में बांटा गया है- देव, मनुष्य और तिर्यक। देव और तिर्यक भोग योनियां हैं जबकि मनुष्य कर्म योनि है।

पाप पुण्य रूपी मिश्रित कर्म करने वाले को मनुष्य योनि प्राप्त होती है। सत्वगुण में स्थित लोग देव लोक को जाते हैं, रजोगुणी बीच में ठहर जाते हैं और निकृष्ट गुण की वृत्तियों में स्थित नीचे को गिरते हैं। अर्थात सुख की आकांक्षा वाले राजस जीव मनुष्य योनि में अर्थात मृत्यु लोक में ही ठहर जाते हैं और बार-बार जन्म मृत्यु के बंधन में फंसते हैं।

जो परिवार जीव की वासनाओं और कर्म संस्कारों के अनुकूल होता है, उस परिवार के आस-पास वह जीवात्मा मंडराने लगती है तथा अवसर की प्रतीक्षा करती है। जब किसी स्त्री को गर्भ स्थापित होता है तब अपने कुटुंबियों और परिवार के प्रति मोहवश पितर प्रायः अपने ही वंशजों के यहां जन्म ले लेते हैं।

इस मनुष्य लोक में जीवों का जहां कहीं जिस किसी भी योनि में जन्म होता है, वह प्रायः ऋणानुबंध (लेन-देन के संबंध) से ही होता है। पुनर्जन्म से संबंधित कुछ मत निम्नलिखित हैं।

सांख्य योग मत: सांख्य योग के अनुसार शरीर दो प्रकार के होते हैं - स्थूल और सूक्ष्म। पंच भूत से बने शरीर को स्थूल शरीर कहते हैं जो सबको दिखाई पड़ता है। सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म तन्मात्राओं, पंच ज्ञानेंद्रियों, पंच कर्मेंद्रियों एवं अंतःकरण (बुद्धि, अहंकार और मन) से निर्मित होता है। सांख्य योग का कहना है कि स्थूल शरीर तो नष्ट होता है, पर सूक्ष्म शरीर नहीं। स्थूल शरीर के विनाश और सूक्ष्म शरीर के पुनर्जन्म के मध्य की स्थिति को ‘‘अधिष्ठान शरीर’’ कहते हैं। इससे पुनर्जन्म की पुष्टि होती है। सूक्ष्म शरीर ही अन्य शरीर धारण करता है। सांख्य योग का मत अन्य भारतीय मतों से यहां भिन्न हो जाता है। अन्य भारतीय दर्शनों के अनुसार आत्मा ही शरीर के नष्ट होने पर पुनः नए शरीर में प्रविष्ट होती है। किंतु, सांख्य योग का कहना है कि आत्मा पुनः जन्म धारण नहीं कर सकती क्योंकि यह शाश्वत, चिरंतन, एवं अपरिवर्तनशील सत्ता है। पुनः जन्म धारण करना आत्मा का गुण नहीं कहा जा सकता। इसके अनुसार सूक्ष्म शरीर ही पुनः जन्म धारण करता है, न कि आत्मा।

वेदांत मत: शंकराचार्य (अद्वैत वेदांत प्रवर्तक) पुनर्जन्म की स्थापना के लिए किसी नई युक्ति का सहारा नहीं लेते। उनके अनुसार व्यक्ति जब तक अज्ञानवश यह सोचता है कि आत्मा ब्रह्म से भिन्न है, तब तक वह पुनर्जन्म के चक्कर में फंसा रहता है। इस प्रकार, माया के वशीभूत होकर व्यक्ति बार-बार जन्म मरण के चक्कर में घूमता रहता है। रामानुज (विशिष्ट द्वैत के प्रवर्तक) का कहना है कि जीव सुख भोगने की कामना से इतना प्रभावित रहता है कि उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है। व्यक्ति की सुख की इच्छाएं इस जीवन में पूर्ण नहीं हो सकतीं, इसलिए उसे अन्य जन्म धारण करना पड़ता है।

आधुनिक मत: स्वामी विवेकानंद, अरविंद और गांधी ने भी अपने-अपने ढंग से पुनर्जन्म का समर्थन किया है। महात्मा गांधी इस विषय में कहते हंै कि मान लें कि कोई व्यक्ति अथक परिश्रम करके विद्योपार्जन करता है और सांप के डसने से अकस्मात उसकी मृत्यु हो जाती है। अब प्रश्न उठता है कि क्या उसकी विद्या भी मृत्यु के साथ समाप्त हो गई? नहीं विद्या का नाश नहीं होता। उस विद्या का उपभोग करने के लिए उस व्यक्ति को पुनः जन्म लेना पड़ता है। इस प्रकार उन्होंने पुनर्जन्म को सिद्ध करने का प्रयास किया। आद्य शंकराचार्य ने भी अपने गुरु को ऐसी ही विलक्षण प्रतिभा से अचंभित कर दिया था। केवल पांच-छह वर्ष की छोटी आयु में ही इस प्रकार का असाधारण ज्ञान होना केवल एक ही आधार पर संभव हो सकता है कि किसी आत्मा को अपने पूर्वजन्म की संचित ज्ञान संपदा का स्मरण हो। कोचीन के ईसाई परिवार में जन्मे क्लिंट ने 5 वर्ष की आयु में हजारों चित्र बनाए और प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता।

अमेरिका के सुप्रसिद्ध भौतिक शास्त्री डाॅ. स्टीवेंसन ने 600 से अधिक ऐसी घटनाएं एकत्रित की हैं जिनमें विशेषकर 14 वर्ष की आयु से कम के बच्चों द्व ारा बताए गए उनके पूर्व जन्म के अनुभव जांच करने पर प्रामाणिक सिद्ध हुए हैं। जेरा कालबर्न नामक आठ वर्षीय बालक ने दिमागी आधार पर गणित के कठिन से कठिन प्रश्नों के उत्तर हल करने की जो क्षमता दिखाई थी उससे बड़े-बड़े गणितज्ञ भी आश्चर्यचकित रह गए थे। जिन कठिन गणितीय सवालों को केवल अच्छे गणितज्ञ ही काफी समय लगाकर हल कर सकते थे उन्हें यह बालक बिना क्रमबद्ध अध्ययन के बिना हिचके आनन फानन में कैसे हल कर लेता था।

अनुसंधानकत्र्ता इस रहस्य को अभी तक नहीं जान पाए। प्रसिद्ध कवि गेटे 9 वर्ष की आयु में कविता लिखने लगे थे। विकासवाद के जन्मदाता डार्विन भी ऐसी ही प्रतिभा के धनी थे। लेबनान के केंटुकी नगर का मार्टिन जे. स्पैल्ंिडग 14 वर्ष की आयु में प्रतिभा के आधार पर प्रोफेसर बना।

अमेरिका के ईस्टवुड दीवलो ने सन् 1988 में मात्र 11 वर्ष 8 माह की आयु में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। भारतीय मूल के बाल मुरली अंबारी ने एक-एक वर्ष में दो-दो कक्षाएं पास करते हुए 11 वर्ष में हाई स्कूल अच्छे नंबरों से पास कर लिया और अमेरिका के माउंट सिनाई स्कूल आॅफ मेडिसिन से मात्र 17 वर्ष की आयु में चिकित्सक बनकर निकला।

उसने न केवल सबसे कम उम्र में चिकित्सक बनने का कीर्तिमान बनाया वरन एड्स जैसी खतरनाक बीमारी पर एक शोधपूर्ण ग्रंथ की रचना भी कर डाली जिसे अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन द्वारा पुरस्कृत भी किया गया। कम उम्र में असाधारण प्रतिभा पूर्वजन्म की ही देन है। भौतिक शास्त्री डाॅ. स्टीवेन्सन के अतिरिक्त प्रो. राईन एवं एडगर की खोज विस्तृत एवं प्रामाणिक मानी गई हंै। इनके आधार पर अन्यत्र भी इस दिशा में बहुत शोध हुए।

इस खोज बीन से यह मान्यता और अधिक पुष्ट होती है कि आत्मा का अस्तित्व मरने के बाद भी बना रहता है और उनका पुनर्जन्म होता है। डाॅ. स्टीवेन्सन ने जिन व्यक्तियों के पूर्वजन्म के अनुभव एकत्रित किए हैं उनमें कुछ इस प्रकार हैं- पश्चिम बंगाल के कंपा गांव की एक घटना का वर्णन करते हुए उसने लिखा है कि इस गांव के श्री के. एन. सेन गुप्ता के यहां सन् 1954 में एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया शुक्ला। जब वह बोलने लायक हुई तो अचानक उसके मुंह से ‘मीनू’ की आवाज प्रस्फुटित होने लगी।

जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, पूछने पर मीनू के बारे में विस्तृत ब्योरा देने लगी। मीनू को उसने अपनी पुत्री बताया। इतना ही नहीं वह अपने पिछले जन्म के पति, बच्चों तथा घर परिवार के बारे में सभी बातें बताने लगी। उसने बताया कि पूर्व जन्म में उसका पालन ब्राह्मण कुल में पं. अमृतलाल चक्रवर्ती के यहां हुआ था। खोजबीन करने पर उसके सभी कथन सत्य पाए गए। इसी तरह 1937 में दिल्ली की चार वर्षीय हिंदू कन्या शांति ने पूर्व जन्म के वृत्तांत को स्पष्ट प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया है। वह पिछले जन्म में चैबे कुल में जन्मी थी।

उसके पति पं. केदारनाथ चैबे मथुरा में कपड़ा व्यवसायी थे। उसने मथुरा का पता जब लोगों को बताया तो पं. केदार नाथ चैबे को दिल्ली सादर आमंत्रित किया गया। वह दूसरी शादी भी कर चुके थे। जैसे ही शांति ने उन्हें देखा तो तुरंत पहचान लिया। टोकियो जापान के प्रख्यात जेन संत एवं अध्यात्मवेत्ता रायाओ कोया सूटानी ने अपनी कृति ‘दि मिस्ट्री आफ लाइफ’ में पुनर्जन्म की अनेक घटनाओं का विस्तृत रूप से वर्णन किया है और ऐसे तर्क, तथ्य एवं प्रमाण दिए हैं कि पुनर्जन्म के सिद्धांत की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

इस पुस्तक का उपनाम ‘एन एक्सपेरिमेंटल रिकार्ड आॅफ रीबर्थ आॅफ ह्यूमेन बीइंग’ है। इसमें उन्होंने जापान की प्रसिद्ध पुस्तक ‘यासूटानीज’ से भी बहुत कुछ उदाहरण उद्धृत किए हैं। किंतु उनकी सबसे अच्छी एक घटना इस प्रकार है। टोकियो शहर के सुगीनामी नामक स्थान में माटशुटारो नाम का 48 वर्षीय एक धनी मानी व्यक्ति रहता था। 10 अक्तूबर 1935 को उसकी मृत्यु हो गई। हेइजाचूरोयामजिकी उसका बहुत ही घनिष्ठ मित्र था। अपने इस बौद्ध मित्र से माटशुटारो प्रायः कहा करता था कि यदि मैं मर जाऊं तो मेरे शरीर की रक्षा करना और अच्छी तरह दफनाना क्योंकि यहां मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है।

कुछ समय बाद जब वह मर गया तो बौद्ध मित्र ने उसके पुनर्जन्म लेने की परीक्षा ली। इस प्रक्रिया में मृत शरीर पर अभिमंत्रित जल का छिड़काव किया जाता है और प्रार्थना की जाती है। मृतक पुनः जन्म लेगा या नहीं, यह देखने के लिए एक प्रकार की स्याही का उपयोग किया जाता है और उसके पैर पर उसका नाम और पता लिखा जाता है। साथ ही एक बौद्ध सूत्र भी लिख दिया जाता है और तब अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। उसके अंतिम संस्कार में काफी लोग आए और बड़ी धूम-धाम से काम समाप्त हुआ।

तीन वर्ष बाद 15 अक्तूबर 1938 को रात्रि के समय एक सिपाही आया और यामजिकी को बतलाया कि उसके यहां एक शिशु ने जन्म लिया है जिसके कंधे पर ‘माट शुटरो’ शब्द लिखा है। साथ ही उसका पता, एक मंत्र और ‘‘यामजिकी’’ शब्द लिखा है। इसे हटाने मिटाने के लिए उसने प्रार्थनाएं कीं, धार्मिक कर्मकांड एवं पूजन किए, किंतु वे जन्मजात चिह्न नहीं मिटे। इससे वह परेशान रहने लगा। एक दिन स्वप्न में उसे संकेत मिले कि जिस आदमी ने यह लिखा है, वही ठीक कर सकता है। सिपाही की याचना पर यामजिकी बच्चे को लेकर माटशुटरो की कब्र पर गया और सामने बच्चे को बैठाकर कुछ मंत्र पढ़े, प्रार्थनाएं कीं तथा अभिमंत्रित जल से अंकित अक्षरों पर रूई के फाहे से पानी लगाया।

उपस्थित लोगों के आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि अब एक भी चिह्न बाकी नहीं था। इस घटना ने नास्तिकों को भी सोचने के लिए विवश कर दिया कि शरीर के न रहने पर भी जीवात्मा का अस्तित्व बना रहता है और कर्मफल के सुनिश्चित विधान के अनुरूप उसे नया जन्म धारण करना पड़ता है। जापानी भी भारतीयों की तरह ही पुनर्जन्म एवं कर्मफल की सुनिश्चितता पर विश्वास करते हैं। ज ा प ा न क े ह ी म ू धर्् ा न् य अध्यात्मवेत्ता एवं दर्शनशास्त्री शूटेन ओडशी एवं टोमोकीची फ्यूकराई ने अपनी खोजपूर्ण कृति ‘‘पैरानार्मल पावर’’ में पुनर्जन्म संबंधी अनेक प्रामाणिक घटनाओं का उल्लेख किया है। ‘रीबर्थ आफ काटशूगोरो’ नामक अपने प्रसिद्ध ग्रंथ मंे मनोवेत्ता लाफकाडियो हियरन ने मरणोपरांत दोबारा जन्म लेने का प्रामाणिक उदाहरण प्रस्तुत किया है।

टोकियो प्रांत के मुशाशी क्षेत्र में सन् 1825 में एक किसान दंपति के यहां दूसरे बच्चे का जन्म हुआ। नाम रखा गया ‘जेनजो’। जब वह कुछ बड़ा हुआ तो उसने बताया कि वह टोकियो के ही दूसरे गांव ‘होडो क्यूवो’ का रहने वाला है जो ‘ताम एरिया’ के नाम से प्रसिद्ध है। उसने अपने पिता का नाम क्यूहेइ बताया और कहा कि जब वह 6 वर्ष का था तो चेचक निकलने से उसकी मृत्यु हो गई थी।

इस तथ्य का पता लगाने जब वैज्ञानिकों का एक दल बताए हुए स्थान पर पहुंचा तो स्थान एवं घटना को सही पाया। मजिस्ट्रेट की फाइल में भी वही रेकार्ड दर्ज थे जो जेनजो ने बताए थे। इसी तरह की अनेक घटनाएं पुनर्जन्म को प्रमाण् िात करती हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि पुनर्जन्म का स्मरण किन लोगों को रहता है? इस संबंध में डाॅ. स्टीवेन्सन का मत है कि जिनकी मृत्यु किसी उत्तेजनात्मक व आवेशपूर्ण मनः स्थिति में हुई हो, उन्हें पिछली स्मृति अधिक याद रहती है।

दुर्घटना, हत्या, आत्महत्या, प्रतिशोध कातरता, अतृप्ति, मोहग्रस्तता आदि का घटनाक्रम प्राणी की चेतना पर गहरा प्रभाव डालता है और वे उद्वेग नए जन्म में भी स्मृति पटल पर उभरते रहते हैं। जिनसे अधिक प्यार या अधिक द्वेष रहा हो, वे लोग विशेष रूप से याद रहते हैं। भय, आशंका, अभिरुचि बुद्धिमत्ता, कला कौशल आदि की भी पिछली छाप बनी रहती है। आकृति की बनावट और शरीर पर जहां तहां पाए जाने वाले विशेष चिह्न भी अगले जन्म में उसी प्रकार पाए जात े ह।ंै

खाजे कर्ताअ ां े क े अनसु ार पर्वू जन्म की स्मृति संजोए रहने वालों में आधे से अधिक ऐसे थे जिनकी मृत्यु पिछले जन्म में बीस वर्ष से कम आयु में हुई थी। सूरदास की मन की आंखों के आगे त्रिलोकी के रहस्य खुले पड़े रहते थे। एक बार सूरदास प्रवचन कर रहे थे। उनके प्रवचन में ज्ञान बरसता था, वाणी में रस झरता था और छवि मंें आनंद तरंगित होता था।

शहंशाह शाहजहां अपने दो पुत्रों औरंगजेब और दारा शिकोह के साथ सूरदास जी के प्रवचन में जा पहुंचा। सूरदास जी पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म के बारे में प्रवचन कर रहे थे। एक व्यक्ति ने पूछा- ‘क्या व्यक्ति अपना पूर्व जन्म देख सकता है? यदि हां, तो कैसे?’ सूरदास जी ने कहा- ‘कोई भी व्यक्ति यदि ब्राह्म मुहूर्त में उठकर स्नानादि से पवित्र होकर आज्ञाचक्र में दोनांे भौंहों के मध्य दृष्टि केंद्रित करके आधा घंटा ध्यान करे तथा फिर संपुटित महामृत्युंजय मंत्र का ध्यानपूर्वक जप एक वर्ष नियमित रूप से करे तो भयंकर से भयंकर रोग तो दूर हो ही जाते हैं, पूर्वजन्म भी दिख जाता है और मानव की ऋतंभराप्रज्ञा जाग्रत हो जाती है।

यह पूछे जाने पर कि ‘‘कुछ व्यक्तियों को पूर्वजन्म की स्मृतियां रहती हैं, इसका क्या कारण है?’’ उन्होंने कहा कि हां, लाखों में किसी एक को पूर्वजन्म की उपासना के कारण पूर्वजन्म की समृति रह जाती है। इस पर औरंगजेब तमककर बोला, ‘‘हमारी शरीयत में तो पूर्वजन्म का नामोनिशान नहीं है। तुम्हारी यह बकवास सर्वथा बेबुनियाद है।’’ दारा शिकोह संत की वाणी में समाए ज्ञान रस में भीगता जा रहा था। उसे औरंगजेब का व्यवहार धृष्टतापूर्ण लगा।

औरंगजेब को समझाना किसी के वश में नहीं था। उसने हठ पकड़ ली कि उस अंधे संत को बुलवाया जाए और वही सिद्ध कर बताए कि क्या पुनर्जन्म वास्तव में होता है। शाहजहां के मन में भी उत्सुकता थी। अतः संत को सम्मानपूर्वक बुलवाया गया। शाहजहां ने औरंगजेब की जिज्ञासा को उनके सामने रखते हुए कहा - ‘इन बालकों की जिद आपको पूरी करनी ही होगी।’ शाहजहां के स्वर में आदेश नहीं मनुहार थी।

‘अच्छा तो फिर आपके महल की सभी स्त्रियों, दास दासियों को कहिए कि एक-एक करके मेरे सामने कुछ बोलकर जाएं।’ शाहजहां ने सबको बुलाकर कतार में खड़ा कर दिया और हुक्म दिया कि वे एक-एक करके आएं और संत बाबा से सलाम कर उनके सामने से जाएं। सबने आज्ञा मानी और सबसे अंत में जहां आरा आई और उसने ज्यों ही ‘संत बाबा को सलाम’ कहा तो अंधे संत ने कहा, ‘ललिता तोहे पूछत शाहजहां।’

इस पर जहां आरा के मुंह से निकला, ‘उद्धव तुम हो कृष्ण कहां?’ और वह मूच्र्छित हो गई। दोनों ने एक दूसरे का पूर्व जन्म कह सुनाया। सूरदास ने शाहजहां से कहा कि पूर्वजन्म में जहां आरा कृष्ण की सखी ललिता थी और मैं उनका सखा उद्धव।

सूरदास ने शाहजहां को यह भी बताया कि इस जन्म में भी यह कन्या धार्मिक होगी, तुम्हारी बहुत सेवा करेगी और जब मृत्यु आएगी तो इसके हृदय पर धर्म ग्रंथ होगा तथा इसी जन्म में यह मोक्ष पाएगी। संत सूरदास के इस प्रामाणिक कथन पर शाहजहां के परिवार को यह मानना पड़ा कि पुनर्जन्म एवं पूर्वजन्म आश्चर्यजनक लगते हुए भी पूर्णतया सत्य है।

‘द बुक आॅफ लिस्ट्स’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक में विद्वान लेखक डेविड वेलेचिस्की ने पुनर्जन्म की अनेक प्रामाणिक घटनाओं का वर्णन किया है। उनके अनुसार द्वितीय विश्व युद्ध के प्रमुख योद्धा रहे अमेरिकी जनरल जार्ज पैटर्न को अपने पिछले छः जन्मों की स्मृति थी। संयोगवश इन सभी जन्मों में वे सेना में ही कार्यरत रहे। प्रथम जन्म में वे प्रागैतिहासिक काल में एक योद्धा थे।

दूसरे में यूनानी योद्धा, जिसमें वे साइप्रस के राजा के विरुद्ध लड़ते हुए मारे गए। तीसरे जन्म में सिकंदर की सेना में तो चैथे जन्म में जूलियस सीजर के साथ थे। पांचवें में अंग्रेजों की सेना में ‘नाइट योद्धा’ के नाम से प्रसिद्ध थे, जिसने ‘हंड्रेड इयर्स वार’ के समय क्रैसी युद्ध में भाग लिया था और दुश्मनों के दांत खट्टे किए थे। छठे जन्म में वह नेपोलियन की सेना में मार्शल थे।

इसी प्रकार अमेरिका का हेनरी डेविड थौरो अपने पिछले 1800 वर्षों के जन्म की कहानियां बताता है। खोजबीन करने पर वैज्ञानिकों ने उसके द्वारा बताई गई बातों को सत्य पाया है। निश्चित रूप से पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य है एवं यह चिंतन सतत हमें आस्तिक बनाता है और अपने कर्मों पर निरंतर एक कड़ी दृष्टि रखने की प्रेरणा देता है।

पुनर्जन्म कब होता है? सत्वगुण प्रधान व्यक्ति मृत्योपरांत उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है। रजोगुणी व्यक्ति मरणोपरांत कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्य योनि में उत्पन्न होता है और बार-बार जन्म लेता रहता है। तमोगुणी मनुष्य मृत्यु के बाद कीट, पशु आदि अधम योनियों में उत्पन्न होता है।

सत्वगुणी लोग स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस लोग मध्य में अर्थात् मनुष्य लोक में ही रहते हैं, और तमो गुण के कार्यक्रम निद्रा, प्रमाद, आलस्यादि गुणों से युक्त तामस लोग अधोगति को या अपने कर्मों के अनुसार कीट, पशु आदि नीच योनियों या नरकांे को प्राप्त होते हैं। वृद्ध व्यक्तियों की वासनाएं प्रायः शिथिल हो जाती हैं, इसलिए वे मृत्यु के बाद निद्राग्रस्त हो जाते हैं।

अपघात से मरे युवा व्यक्ति सत्ताधारी प्रेत के रूप में विद्यमान रहते हैं तथा विषम मानसिक स्थिति के कारण उन्हें नीद नहीं आती है। कई विशिष्ट व्यक्ति छह महीनों में ही पुनर्जन्म ग्रहण कर लते े ह।ैं अधिकतर को पांच वर्ष लग जाते हैं।

प्रेतों की आयु अधिकतम 12 वर्ष समझी जाती है। जीवन जितने समय तक परलोक में ठहरता है, उसका प्रथम एक तिहाई भाग निद्रा में व्यतीत होता हैं, क्योंकि पूर्वजन्म की थकान के कारण वह अचेतन सा हो जाता है। भौतिक शरीर की समाप्ति के बाद भी उसका अंतर्मन जीवित रहता है। इसी मन से वह अपने अच्छे-बुरे कर्मों के फलों को अनुभव करता है।

मनुष्य को निश्चय ही मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच में स्वर्ग-नरक का अनुभव प्राप्त करना पड़ता है। स्वर्ग में जाने के बाद जब मनुष्य के पुण्य कर्मों का फल समाप्त हो जाता है तो उसे पुनः जन्म ग्रहण करना पड़ता हैं। इसी प्रकार नरक लोक में पाप कर्मों का फल भुगत लेने के बाद जब व्यक्ति अपनी बुराइयों को दूर करके पवित्र हो जाता है तब उसे पुनर्जन्म लेना पड़ता है। प्रेत योनि में जाने के बाद पुनर्जन्म होने में लगभग 12 साल लग जाते हैं।

आचार्य वराहमिहिर के वृहज्जातकानुसार पुनर्जन्म एवं पूर्वजन्म का फल :

1. सूर्य तथा चंद्र में से जो अधिक बलवान हो, वह जिस द्रेष्काण में हो, या बलवान सूर्य व चंद्र के अधिष्ठित द्रेष्काण का स्वामी यदि गुरु हो तो जातक जन्म से पूर्व स्वर्ग लोक में रहता है। 

2. बलवान सूर्य व चंद्र के अधिष्ठित दे्रष्काण का स्वामी यदि स्वामी चंद्र या शुक्र हो तो जातक जन्म से पूर्व चंद्रलोक या पितृलोक में रहता है। इसी तरह द्रेष्काण का विचार गोष्ठी स्वामी यदि शनि या बुध हो, तो इसका अर्थ है कि जातक पूर्व जन्म में नरक लोक में था। जातक की कुंडली में लग्न में गुरु की उपस्थिति उसके पूर्व जन्म में ब्राह्मण होने या ब्राह्मणोचित कार्यों में संलग्न होने का संकेत है। 

3. जातक के लग्न में उच्च या स्वराशि का बुध या चंद्र स्थित हो तो यह उसके पूर्वजन्म में सदगुणी व्यापारी (वैश्य) होने का सूचक है। किसी जातक के जन्म लग्न में मंगल उच्च राशि या स्वराशि में स्थित हो तो इसका अर्थ है कि वह पूर्वजन्म में क्षत्रिय, योद्धा था। 

4. केंद्र में वक्री शनि की स्थिति जातक के पूर्वजन्म में शूद्र होने की ओर इंगित करती है। इसके अतिरिक्त नीच के सूर्य की त्रिक स्थान में स्थिति भी जातक के पूर्व जन्म में शूद्र होने की सूचक है। अर्थात जन्मकुंडली के छठे, सातवें या आठवें में स्थित ग्रहों में सबसे बली ग्रह के अनुरूप जातक को मृत्यु के बाद लोक या योनि प्राप्त होती है।

इस तरह छठे, सातवें या आठवें भाव में बली गुरु हो तो जातक देवलोक, चंद्र या शुक्र हो तो पितृलोक, सूर्य या मंगल हो तो मृत्युलोक (पुनः पृथ्वी पर जन्म) में और शनि या बुध हो तो नरक (शूद्र) लोक या नीच योनि में जन्म लेता है। यदि भाव 6, 7, 8 में कोई ग्रह न हो तो इन भावों के द्रेष्काणाधिपति में से बलवान द्रेष्काणेश के लोक में मनुष्य का जन्म होता है।

यदि उच्च राशि अर्थात् कर्क का गुरु केंद्रस्थ (1-4-7-10) हो या छठे अथवा आ. ठवें भाव में स्थित हो या मीन लग्न में शुभ ग्रह का नवांश हो और शेष ग्रह बलवान न हों तो जातक मोक्ष प्राप्त करता है। लग्न में उच्च या स्वराशि का चंद्र पाप प्रभाव से मुक्त होकर स्थित हो तो ऐसा जातक अगले जन्म में अच्छे कुल में जन्म लेता है। 

5. व्यय भाव में शनि या राहु यदि षष्ठेश या अष्टमेश से युक्त होकर स्थित हो तो जातक अगले जन्म में मृत्यु लोक में जन्म लेता है। जो लोग अचानक दुर्घटनाग्रस्त होकर मृत्यु के मुंह में समा जाते हैं, जिनकी इच्छाएं (तृष्णाएं) अधूरी रह जाती हैं, जो मोहमाया में जकड़े रहते हैं, कंजूस होते हैं या जिनका निधन असामयिक होता है उनका जन्म पुनः होता है।

अतः ये मनुष्य के सत्कर्म ही हैं जो उसे मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। किसी भी बच्चे के जीवन के आरंभिक चार वर्ष की अवधि माता के दुष्कर्मों के कारण, अगले 4 वर्ष की पिता के दुष्कर्मों के कारण तथा उसके बाद के चार वर्ष अर्थात 8 से 12 वर्ष के बीच की अवधि उसके अपने दुष्कर्मों के कारण घातक हो सकती है।

पराशर के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु का स्वरूप भी उसके पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ही निर्धारित होता है। ये धारणाएं आज कितनी वैज्ञानिक हैं, इस पर विचार करना भी आवश्यक है। यह ठीक है कि जब मृत्यु होती है तो शरीर नष्ट हो जाता है, पंचमहाभूतों में विलीन हो जाता है लेकिन शरीर में संरक्षित शक्ति नष्ट नहीं होती।

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