- पंचमेश (सूर्य), तृतीयेश (बुध), एवं षष्ठेश (बुध), नवमेश (गुरु) एवं दशमेश (शनि), प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी न किसी रूप में पिता एवं पिता की संपत्ति के कारक हैं।
- गुरु एवं सूर्य, गुरु एवं बुध तथा गुरु एवं शनि किसी भी भाव में साथ-साथ बैठे हों तो वे पिता या पिता की संपत्ति से कोई सरोकार नहीं रखते, परंतु वे अपने से संबंधित वस्तुओं एवं व्यवसायों को पूर्ण रूप से प्रभावित कर सकते हैं, किंतु अपने संबंधियों को प्रभावित नहीं करते। वे केवल जातक के व्यक्तिगत जीवन और कुशल-क्षेम को ही प्रभावित करते हैं। बुध एवं सूर्य, बुध एवं शनि तथा सूर्य एवं शनि यदि साथ-साथ बैठे हों तो भी वे ऐसा ही आचरण करते हैं। बुध एवं सूर्य, बुध एवं शनि तथा सूर्य एवं शनि यदि साथ-साथ बैठे हों तो भी वे ऐसा ही आचरण करते हैं। जो ग्रह एक भाव में बैठे हों और वे परस्पर शत्रु हों, फिर भी वह शत्रुता का बर्ताव नहीं करते, लेकिन वे भले एवं मददगार भी नहीं हो सकते तथा वे एक-दूसरे के फल को प्रभावित नहीं करते हैं। वे अपना-अपना फल देते हैं, परंतु युति के कारण उनके फल नहीं बदलते हैं।
- मित्र ग्रह एक ही घर में स्थित होकर अधिमित्र बन जाते हैं, तब वे एक-दूसरे के अच्छे फल में वृद्धि करते हैं। वे तटस्थ उदासीन नहीं बनते हैं।
- कुंडली का सप्तम भाव बुध का स्थाई भाव होता है इसीलिए बुध जब तक स्थाई भाव में होता है, तब सूर्य, मंगल, गुरु या शनि दूसरे, ग्यारहवें, प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, दशम भावों में बैठकर भी जातक के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव नहीं डाल सकते।
- यदि स्त्री ग्रह शनि के साथ एक ही भाव में हों और अन्य कोई ग्रह अपनी दृष्टि से नियमानुसार उन्हें देखता हो तो दृष्ट ग्रह पीड़ित हो जाएगा तथा दृष्ट ग्रह जिन-जिन संबंधियों का कारक होगा, वे सब मुसीबतों में पड़ जाएंगे, परंतु दृष्ट ग्रहों से संबंधित रिश्तेदार सुरक्षित रहेंगे।
- जब तक कोई परेशानी न हो, तब तक स्वगृही, उच्चगृही एवं पक्के भाव का ग्रह शुभ फल ही देता है और शत्रु गृही या नीचगत ग्रह अशुभ फल देता है। स्थाई भाव वाला ग्रह यदि अन्य किसी घर में हो और उसके पक्के घर में शत्रु ग्रह घुस जाए तो स्थाई भाव वाला ग्रह जिस भाव में बैठा हो, उसके फल को बिगाड़ देता है।
- लग्न, सप्तम, एकादश एवं अष्टम भावों का एक साथ परीक्षण करना चाहिए, क्योंकि यह भाव परस्पर घनिष्ठता से संबंधित है। यहां पर लग्न में स्थित ग्रह शासकवत् होता है।
- सप्तम भाव में स्थित ग्रह उसके मंत्री के समान होते हैं। आठवें भाव में स्थित ग्रह उसकी आंखें (दृष्टि) होते हैं तथा ग्यारहवें भाव में स्थित ग्रह पैर हैं। यदि लग्न में केवल एक ग्रह हो और सप्तम भाव में ज्यादा ग्रह हों तो राजा (लग्नस्थ ग्रह) अपने मंत्रियों पर पूरा नियंत्रण नहीं रख पाएगा और यदि ग्यारहवें भाव में स्थित ग्रह उसके शत्रु हुए तो वे राजा (लग्नस्थ ग्रह) के आदेश नहीं मानेंगे और कार्य भी अपनी मन-मर्जी से करेंगे, जिससे उसके फल बिगड़ जाएंगे। अष्टम भाव में स्थित ग्रह नेत्रों की भांति मंत्रियों को मार्ग दिखलाते हुए, नियंत्रित रखते हुए चलाते रहते हैं।
- यदि लग्नस्थ ग्रह एवं अष्टमस्थ ग्रह आपस में मित्र हुए, तब सप्तम भाव में बैठे ग्रह कोई शरारत नहीं कर सकते हैं। संपत्ति का अच्छा फलदाता सप्तम भाव में मंगल माना गया है।
- यदि अष्टम भाव में बुध हुआ तो वह मंगल के मार्ग में रोड़ा अटकाएगा, परंतु यदि मंगल सप्तम भाव में हो और बुध लग्न में हो तो संपत्ति मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इसका प्रमुख कारण यह है कि मंगल तो दोनों ही स्थितियों में संपत्ति देगा, किंतु बुध लग्न में हुआ तो वह संपत्ति को नष्ट कर देगा अर्थात यह सब जातक की अपनी मूर्खता (लग्नस्थ बुध) के कारण होगा, क्योंकि वहां पर बुध जातक का कारक है।
- यदि बुध अष्टम भाव में हुआ तो संपत्ति की हानि अज्ञात कारणों से होगी, क्योंकि अष्टम भाव में जो ग्रह होते हैं, वे गुप्त रूप से ही जातक के कार्यों को संचालित करते हैं, जातक का उन पर कोई वश नहीं होता है। इसी प्रकार यदि लग्न एवं ग्यारहवें भाव में स्थित ग्रह मित्र हुए तो वे सप्तमस्थ ग्रहों पर पूरा नियंत्रण रखंेगे, जिससे फल अच्छे होंगे, परंतु यदि शत्रु ग्रह हुए तो फल बुरे ही होंगे।
- लग्न में स्थित ग्रह सप्तम भाव में स्थित ग्रहों को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। यदि वे परस्पर शत्रु हुए तो जातक की अपनी मूर्खता या नालायकी के कारण फल बिगड़ते हैं।
- अष्टमस्थ ग्रह नजर भी रखते हैं तो इसमें सप्तम भाव में स्थित ग्रहों की दुर्भावना के कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि परिस्थितियां उनके नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं।
- अष्टम भाव के ग्रह पीछे मुड़कर दूसरे भाव को देखते हैं और वे दूसरे भाव में स्थित ग्रहों के फल को बनाते या बिगाड़ते हैं। यदि ग्यारहवें भाव में स्थित ग्रह अष्टम भावस्थ ग्रहों के शत्रु हुए तो वह उन्हें बिगाड़ खाता नहीं करने देते। यदि अष्टम भाव में स्थित ग्रह द्वितीय भाव में स्थित ग्रहों के मित्र हुए तो वे दूसरे भाव पर सीधा प्रभाव डालते हैं।
Û द्वितीय भाव में स्थित ग्रह छठे भाव में स्थित ग्रहों को देखते हैं और उनके फल को प्रभावित करते हैं। उधर छठे भाव में स्थित ग्रह अष्टम भाव में स्थित ग्रहों को देखते हैं और उनके फल को प्रभावित करते हैं। उधर छठे भाव में स्थित ग्रहों का अष्टम भाव में स्थित ग्रहों से गुप्त संबंध होने के कारण वे दूसरे भाव में स्थित ग्रहों को भी प्रभावित करते हैं। बारहवें भाव में स्थित ग्रह भी दूसरे भाव को प्रभावित करते हैं। इसलिए इन्हें साधु एवं समाधि कहा गया है। कभी-कभी साधु भी समाधि को प्राप्त कर लेता है। षष्ठम भाव में स्थित ग्रहों की अदृश्य शक्तियां तथा रहस्यमय शक्तियां आठवें भाव को प्रभावित करती हैं, क्योंकि छठा भाव पाताललोक तथा आठवां भाव रहस्यमय दुनिया कहलाता है। इन दोनों घरों की गुप्त शक्तियां मिलकर जातक पर अप्रत्याशित हमला करती हैं। महान विपत्ति के समय जातक को जिस व्यक्ति से सहायता की आशा होती है, वह या तो गंभीर रूप से बीमार हो जाता है या दुर्घटना का शिकार हो जाता है अथवा अन्य कारणवश बिल्कुल विवश हो जाता है तथा उक्त समय पर जातक की सहायता के लिए नहीं पहुंच पाता है, जिसके कारण जातक का बड़ा अनिष्ट हो जाता है। यदि छठे भाव एवं अष्टम भाव में स्थित ग्रह दुष्ट ग्रह हुए तो युति के कारण उनकी दुष्टता दस गुणी बढ़ जाती है।
- छठे एवं आठवें भाव के ग्रह गुप्त रूप से मिलीभगत करके ग्यारहवें भाव के ग्रहों के मार्ग में अपना विष रूपी बुरा प्रभाव दूसरे भाव में डाल देते हैं। यदि दूसरा भाव खाली (अथवा कोई ग्रह वहां न बैठा) हो, तब कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। यदि द्वितीय एवं द्वादश भाव में शुभ ग्रह हों, तब भी कोई बुरा प्रभाव नहीं होता है। दुर्भाग्य से जातक को कोई कष्ट या नुकसान हो रहा हो, तब वह क्षति या कष्ट थोड़े समय के लिए होता है, परंतु किसी अज्ञात स्रोत से जातक को अकस्मात सहायता मिल जाती है और दूसरा भाव पूर्ववत सक्रिय हो जाता है।
- यदि बारहवें एवं आठवें भाव में स्थित ग्रह परस्पर शत्रु हुए, तब जातक को पूजा स्थानों में नहीं जाना चाहिए, क्योंकि दूसरा भाव पूजा स्थान माना गया है। मंदिर, पूजालय आदि अदृश्य प्रभाव के स्थान हैं, अतः ग्रह स्थिति में वहां पर जाने से दुर्भाग्य का राक्षस चुपके से चिपट जाएगा।
Û यदि द्वादश भाव एवं अष्टम भाव में स्थित ग्रह परस्पर शत्रु हैं और दूसरे भाव में अत्यंत शुभ ग्रह हों, तब जातक को पूजा स्थानों में अवश्य जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने पर दुर्भाग्य के आघात से रक्षा होती है। उसे देवता को सिर नवाकर चरणस्पर्श करना चाहिए।
Û तृतीय, एकादश, पंचम, नवम, दशम भावों के अवलोकन से जीवन में उतार-चढ़ाव के समय का ज्ञान होता है। जातक के वयस्क होने और छोटे भाई के जन्म के बीच का स्थान अवधि एवं जातक के माता-पिता के संबंध में भी इन्हीं भावों से ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
Û तृतीय भाव में यदि कोई ग्रह हो तो वह जातक के छोटे भाई के समय से लेकर जातक पर अपना प्रभाव दिखाना आरंभ कर देता है। यदि नवम एवं पंचम भाव में शनि, राहु या केतु हो तो बच्चे के जन्म के समय से जातक के जीवन में बदलाव अनुभव होता है। यह बदलाव जातक के भले के लिए नहीं होता है। यदि पंचम भाव में राहु, केतु, शनि हों और आठवें भाव में उनका शत्रु ग्रह हो तो जातक के दुख, दर्द, कष्ट कई गुणा बढ़ जाते हैं। ऐसी स्थिति में ग्यारहवें भाव में बैठा ग्रह मुसीबतों को बढ़ाने में ही योगदान देता है।
Û यदि नवम भाव में शुभ ग्रह बैठे हों तथा द्वितीय भाव खाली हो (कोई ग्रह न हो) तब जातक को कोई लाभ नहीं होता है, क्योंकि नवम भाव महासमुद्र के समान है, जिसमें से सौभाग्य के बादल उठते हुए दूसरे भाव में स्थित ग्रह (जो पर्वत के समान है) से टकराकर सौभाग्य का अमृत-जल बरसाते हैं। यदि दूसरे भाव में कोई ग्रह न हो, तब जातक के ऊपर सौभाग्य की वर्षा नहीं हो पाती है।
Û यदि दशम भाव एवं द्वितीय भाव खाली हो तो चतुर्थ भाव द्वारा नियत शुभ फल व्यर्थ चले जाएंगे अर्थात भविष्यरूपी समुद्र ही सूखा रह जाएगा जिससे जातक का जीवन नीरस हो जाएगा और यदि कुछ बादल आशा की किरणें बनकर आएं भी तो उन्हें रोककर वर्षा करवाने वाला पर्वत न होगा।
Û यदि तीसरे एवं नवें भाव में बुरे ग्रह हों तो पंचम भाव भी बुरा फल देगा। यदि नवम भाव में सूर्य या चंद्रमा हो तो पांचवां भाव भी शुभ फल देगा। यदि पंचम भाव में राहु या केतु हों और आठवें भाव में उनके शत्रु ग्रह हों तो ग्यारहवें भाव के माध्यम से दुर्भाग्य की प्रबल चोट पड़ेगी तथा अष्टम एवं पंचम भाव में स्थित ग्रहों द्वारा सांकेतिक संबंधी प्रभावित होंगे। यदि इसी ग्रह स्थिति के रहते हुए दूसरा भाव खाली हो, तब जातक की कमाई पर दुष्प्रभाव पड़ेगा और उसे कोई नहीं बचा सकेगा क्योंकि दशम भाव एवं पंचम भाव में स्थित ग्रह भी क्रूर हो जाएंगे, चाहे उनकी नैसर्गिक स्थिति कैसी भी हो। यदि नवम भाव में सूर्य या चंद्रमा हो तो पंचम भाव में राहु या केतु बच्चों पर या स्वयं जातक पर बुरा प्रभाव नहीं डाल पाएंगे।
Û दूसरे, चैथे एवं दूसरे भाव की एक साथ परीक्षा करनी चाहिए, क्योंकि नवम भाव जातक के इस जन्म से पहले जीवन का संकेत देता है। यह जातक के अच्छे-बुरे संचित कर्मों को प्रकट करता है। उन्हीं के फलस्वरूप जातक इस जीवन में सुख या दुःख भोगता है।
Û सभी कर्मों का फल एक समय में नहीं मिलता है, अतः जातक जिन कर्मों का फल इस जीवन में भोगता है, उन्हें प्रारब्ध कहते हैं। इसका संकेत दशम भाव से मिलता है और फल द्वितीय भाव के माध्यम से चतुर्थ भाव द्वारा होता है। यदि चतुर्थ भाव खाली हो तो दूसरे एवं दशम भाव द्वारा सांकेतिक फल से जातक वंचित हो जाता है, क्योंकि जातक को पहले तो सब तरफ से आशा-ही -आशा की ज्योति दिखाई देती है, किंतु अंतिम क्षणों में आशारूपी बिजली गुल हो जाती है जिससे जातक के आगे घोर निराशा का अंधकार छा जाता है। यदि अष्टम भाव में खोटे/बुरे ग्रह हों तो वे अपना दुष्फल जरूर देते हैं, किंतु यदि दूसरे भाव में अच्छे ग्रह हों तो वे अज्ञात एवं अप्रत्याशित स्रोत से भी सहायता ले आते हैं। यदि दशम भाव खाली हो, तो दूसरे भाव में स्थित ग्रह बहुत अच्छा फल भी नहीं दे पाते। यदि द्वितीय एवं दशम भाव खाली हो तो चतुर्थ भाव में उत्तमोत्तम ग्रहों के फलस्वरूप मृगतृष्णा ही पल्ले पड़ती है।