आचार्य रजनीश गुजस्ता सदी के महान चिंतक रजनीद्गा! प्रोफेसर पद और सारी दुनिया पर छा गए। अपने दर्द्गान से, अपने क्रांतिकारी विचारों से हजारों लोगों के जीवन की दद्गाा और दिद्गाा बदल डाली। सच है, ब्रह्मांड में फैले ग्रह चाहें तो किसी व्यक्ति को जमीन से उठाकर आसमान की ऊंचाइयों पर बिठा दें, चाहें तो आसमान छतूे व्यक्ति को धलू चटा द।ें क्या रही इन ग्रहों की भूमिका रजनीद्गा के इस ऊंचाई तक पहुंचने में? कैसे उन्हानें भगवान का पद हासिल किया? आइए, जाने... गुप्त शक्ति, ईश्वरीय शक्ति, गूढ़ ज्ञान, सिद्ध ज्ञान व अतुल ऐश्वर्य प्रदान करने वाले अष्टम भाव के राजयोग की चर्चा को जारी रखते हुए प्रस्तुत है आचार्य रजनीश की जन्मकुंडली का ज्योतिषीय विश्लेषण। विश्वविखयात दार्शनिक आचार्य रजनीश इतनी विलक्षण प्रतिभा से युक्त थे कि उन्हें भगवान रजनीश के नाम से पुकारा जाने लगा था। उनकी धारा प्रवाह वाणी और लेखनी का समस्त संसार कायल था। उन्होंने दर्शन पर लगभग 650 पुस्तकें लिखीं। उनके अभिभाषण को सुनकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे और कहते थे कि इतनी अच्छी भाषण कला, ज्ञान व आत्मविश्वास तो केवल ईश्वर में ही हो सकता है। उनका पूरा नाम रजनीश चंद्र मोहन जैन था।
1960 के दशक में आचार्य रजनीश के नाम से विखयात इस आध्यात्मिक गुरु को 1970 और 1980 के दशक में भगवान श्री रजनीश के नाम से पुकारा जाने लगा और बाद में वह ओशो नाम से प्रसिद्ध हुए। ओशो रजनीश भारत और कुछ अन्य देशों के अलावा कुछ समय के लिए अमेरिका में रहे और उन्होंने ओशो आन्दोलन का नेतृत्व किया जो पूर्णतया आध्यात्मिक और दार्शनिक था। भगवान रजनीश को न केवल संसार के सभी धर्मों व दर्शन का अपितु आधुनिक काल के मनोविज्ञान की सभी अवधारणाओं का भी पूर्ण ज्ञान था। उनका दर्शन कुछ-कुछ शून्यवाद के सिद्धांत व बौद्ध धर्म के दर्शन जैसा था। उनके दर्शन में जेदू कृष्णामूर्ति के दर्शन की झलक मिलती है और उनके अनुसार केवल जेदू कृष्णामूर्ति ही पूर्ण विद्वान संत थे। भगवान रजनीश अपने समय के सर्वाधिक प्रसिद्ध व सर्वाधिक चर्चित दार्शनिक थे। ओशो का लग्न वृषभ और राशि धनु है। गुरु उच्चराशिस्थ, राहु एकादश भावस्थ, केतु पंचमस्थ और सूर्य सप्तमस्थ है। साथ ही अष्टम भाव में पांच ग्रह स्थित हैं। ओशो की कुंडली में लग्नेश, पंचमेश व भाग्येश की युति है। पंचम व नवम भाव का कारक गुरु उच्चराशिस्थ है। पंचम भाव को ईश्वर भक्ति, नवम को ईश्वर कृपा व आध्यात्मिक उन्नति तथा प्रथम भाव को आत्मा का कारक माना गया है। इस कारण पंचमेश, लग्नेश व भाग्येश की युति को ज्योतिष में भक्ति योग माना जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यदि शनि का लग्नेश, पंचमेश, भाग्येश व चंद्र से संबंध हो, तो यह जातक को चिंतनशील, विचारक व दार्शनिक बनाता है। ओशो की कुंडली में यह योग विद्यमान है तथा उनका शनि योग कारक होकर गुरु की राशि में स्थित है।
गुरु की राशि में शनि स्थानवृद्धि करता है। उनका शनि आध्यात्मिक उन्नति के भाव का स्वामी होकर लग्नेश, पंचमेश, सप्तमेश और तृतीयेश से संयुक्त होकर अष्टम भाव को बल दे रहा है। इसके अतिरिक्त अष्टमेश गुरु उच्चराशिस्थ है जिसकी आध्यात्मिक उन्नति के नवम भाव पर पूर्ण दृष्टि भी है। इसी कारण उन्होंने ऐसा आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित किया जिसकी पूरे विश्व ने सराहना की। ज्योतिष शास्त्र में अष्टम भाव को गुप्त ज्ञान, नवम को आध्यात्मिक उन्नति, चंद्र व केतु को अध्यात्म का कारक व गुरु को अध्यात्म का गुरु माना गया है। उनकी कुंडली में केतु ईश्वर भक्ति के पंचम भाव में स्थित है। पंचग्रही योग तथा अष्टमेश के उच्चराशिस्थ होने के फलस्वरूप अष्टम भाव की स्थिति उत्तम है। नवमेश शनि, पंचमेश बुध, लग्नेश शुक्र, तर्कशास्त्र के कारक मंगल व अध्यात्म के कारक चंद्र अधिष्ठित राशि धनु का स्वामी होकर गुरु नवम भाव को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है तथा चंद्र व गुरु में स्थान परिवर्तन योग है। यही कारण है कि चंद्र की महादशा में ओशो को ज्ञान की प्राप्ति होने का पूर्ण योग बना। उनके अनुसार उन्हें 1953 में 21 वर्ष की अवस्था में ज्ञान प्राप्त हुआ था। मार्च 1953 के गोचर के अनुसार उनकी कुंडली के अष्टम भाव पर गोचर के गुरु व शनि दोनों की दृष्टि पड़ रही थी। सन् 1966 में एकादश भाव में गुरु की राशि में स्थित राहु की महादशा तथा गुरु की अंतर्दशा में उन्होंने प्रोफेसर के पद से त्यागपत्र देकर आध्यात्मिक गुरु बनने का निश्चय कर लिया। वर्ष 1966 में गुरु गोचर में वाणी के द्वितीय भाव में स्थित होकर कर्म के दशम तथा अष्टम भावों को पूर्ण दृष्टि से देख रहा था।
शनि महादशानाथ राहु पर गोचर कर रहा था। वर्ष 1969 में ओशो के अनुयायियों और शिष्यों ने मुंबई में उनके नाम पर एक संस्था की नींव रखी जिसे बाद में पुणे स्थानांतरित कर दिया गया। इस आश्रम को आज 'ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट' के नाम से जाना जाता है। उस समय उन पर अष्टम, नवम, दशम और एकादश भावों को प्रभावित करने वाले ग्रहों की दशा चल रही थी। महादशा एकादश भाव में स्थित राहु की चल रही थी तथा अंतर्दशा अष्टमस्थ भाग्येश व दशमेश शनि की। सन् 1969 में वर्षारंभ के गोचर में महादशानाथ राहु पर शनि व गुरु का पूर्ण तथा वर्ष के मध्य में भाग्य भाव पर उक्त दोनों ग्रहों का गोचरीय प्रभाव था। ओशो 1966 से 1981 अर्थात् 15 वर्षों के लंबे समय तक जगह-जगह प्रवचन करते रहे। लेकिन वर्ष 1981 के बाद लगभग साढ़े तीन वर्षों तक मौन अपना लिया। इस समय उनके सत्संग में सभी लोग मौन होकर बैठ जाते थे और ओशो की किसी रचना को सुनते थे। अनुयायियों की सामूहिक मौन सभाओं का वर्ष 1984 में अंत हुआ और ओशो ने फिर से प्रवचन करना शुरू कर दिया। वर्ष 1981 में उन पर उच्चराशिस्थ गुरु की महादशा चल रही थी। वर्ष 1985-86 में ओशो अध्यात्मज्ञान के प्रचार-प्रसार हेतु विश्व यात्रा पर निकल पड़े और वर्ष 1986 में वापस भारत लौट आए तथा 1987 में अपने पुणे स्थित आश्रम में फिर से प्रवचन करना आरंभ किया।
वर्ष 1989 में उन्होंने भगवान रजनीश का त्याग कर ओशो नाम अपना लिया। वर्ष 1990 में 58 वर्ष की आयु में उन्होंने अंतिम सांस ली। ओशो को जेन मास्टर भी कहा जाता है क्योंकि वह ध्यान व एकाग्रता की उच्च अवस्थाओं में प्रवेश करने के लिए विशेष रूप से जाने जाते थे। ओशो के अनुसार इस संसार में प्रेम, हंसी व ध्यान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। ज्योतिष सीख अष्टम भाव पर अधिक ग्रहों का प्रभाव तथा अष्टमेश गुरु का उच्च होना ये दोनों योग चमत्कृत कर देने वाले ज्ञान का सृजन करते हैं। अष्टम भाव पर अधिकाधिक ग्रहों का प्रभाव स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों को जन्म देता है तथा आयु पक्ष को भी प्रभावित करता है। अष्टम भाव की उत्तम स्थिति ज्ञान व धन दोनों के लिए श्रेष्ठ है। महादशानाथ यदि उत्तम स्थिति में हो और उसकी महादशा चल रही हो, तो ऐसे में उस ग्रह पर गोचरीय शनि व गुरु का प्रभाव होने पर उत्तम फल की प्राप्ति होती है। जैसे ओशो का 1969 के आरंभ का गोचर। जातक ग्रंथों में लिखा है कि कुंडली में जिस भाव पर अधिकाधिक ग्रहों का प्रभाव हो, वह बलवान हो जाता है और उस भाव से संबंधित शुभ फल की प्राप्ति होती है तथा जातक का जीवन उसी भाव के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। ओशो की कुंडली में गूढ़ ज्ञान का भाव प्रबल होने फलस्वरूप उन्होंने अपना समस्त जीवन ज्ञान का अन्वेषण करने में लगा दिया।