वेदचक्षुः किलेदं स्मृतं ज्योतिषां। आहार, निद्रा, भय, मैथुन यह मानव और पशु के समान हैं। किन्तु मानव बुद्धि, विवेक के कारण श्रेष्ठ है। अतः सहज प्रवृत्ति मैथुन को विवाह रूपी संस्कार से आवृत्त कर सभ्यता का परिचय प्रदान करता है। ऋग्वेद में विवाह को यज्ञ तथा सन्तानोत्पत्ति को इसका प्रधान कर्म कहा गया। मनुस्मृति में विवाह संस्कार का महत्व स्पष्ट करते हुए कहा है
कि - प्रजानार्थ स्त्रियः सृष्टाः सन्तानार्थ च मानवाः। तस्मात् साधारणों धर्मः श्रुतोपत्नय सहोदित्ः।। (मनु स्मृतिः 9/96) विवाह के प्रकार पैशाच, राक्षस, गंाधर्व, आसुर, प्रजापत्य, आर्ष, दैव, ब्रह्म, जिसमें ब्राह्म सर्वश्रेष्ठ है। यह सम्बन्धों की पवित्रता का द्योतक है। इससे आनुवांशिक दोषों को रोका जा सकता है। यह एक शास्त्र विधि संस्कार है। विवाह क्या है ? विवाह क्यों ? कब ? मनुष्य के जीवन में त्रिवर्ग साधिका भार्या ही होती है। बिना भार्या/पत्नी के किसी भी धार्मिक कार्य की पूर्णता सम्भव नहीं। जैसे त्रेता में अश्वमेध यज्ञ में मूर्ति द्वारा राम ने सीता का सहयोग प्राप्त किया था।
बिना धर्मपत्नी के संसार मे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सम्भव नहीं देव ऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण से मुक्ति विवाह द्वारा ही सम्भव है। मनुष्य के सद्गृहस्थाश्रम में पत्नी का बड़ा महत्व है। संतान प्राप्ति, संस्कार रक्षण व सांसारिक सुखों का कारण पत्नी ही है। एक नारी को भी पुरूष की आवश्यकता होती है। अच्छे सुदृढ़ समाज निर्माण में विवाह संस्था का अपना स्थान है। विवाह कब, कहाँ, पत्नी कैसी मिलेगी यह सब हमारे जन्म के समय ग्रहों की स्थिति पर आधारित होता है।
विवाह में क्या-क्या बाध् ाक तत्व है इन सबका विचार हम यहाँ करंेगे। जातक का एक विवाह होगा या अधिक, पत्नी अनुकूल या प्रतिकूल होगी। फलित ज्योतिष शास्त्र में विवाह सम्बन्धी विचार सप्तम भाव से करते हैं। सप्तम भाव में स्थित ग्रहों के अनुसार फल व्यक्त होता है। दाम्पत्य सुख पुर्ण विवाह योग, चरित्र हीन योग, विवाह समय पत्नी नाशक योग, विच्छेद योग जैसे बहुत से योगों का वर्णन होता है। यदि विवाह के मुख्य प्रयोजन सप्तम भाव के प्रसंग का विश्लेषण करते हंै तो संतान प्रप्ति ही प्रधानता से गणना होती है।
परन्तु धर्म शास्त्रीय रीति भी प्रधान है। यात्रा-पुत्र-कलत्र-सौख्यमखिलं सच्चिन्तयेत सप्तमा। दुक्तं पुत्र सुखासुखगत फलं सर्व च यात्तद्वदेत्। अतः सप्तमेश या लग्नेश शुक्र के बलाबल से जातक का विवाह सम्बन्ध का शुभाशुभ जान सकते हंै। सप्तम में स्थित ग्रह से पत्नी के स्वभाव, स्वरूप, चरित्र, वंश, ध् ान, धान्य व सारे जीवन के सुख-दुःख की जानकारी प्राप्त होती है। सुवशं जातं प्रथम कलत्रं लग्नेश्वरों दारपसंयुतश्चेत। दिनेशकान्त्याभिं हृतस्तदानी स्वरूप हीना सुतरां वदन्ति।। (जा.पारि. 14/19) फलित ज्योतिष शास्त्र में मानव जीवन के जन्म से मृत्यु पर्यन्त की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है।
पूर्व जन्म से अर्जित कर्म फल ही भाग्य है, नारी को भाग्य कहा गया है। पत्नी कैसी? कौन से ग्रह कारक होते है? रवौं दारपे शुभदृष्टें स्त्री पतिव्रता। कलत्रे जीवें धर्मशीला पतिव्रतां दारे गुरूदृष्टे सुशला स्त्री दारे शुभक्षें सुदारः।। (जा.पारि. 7/104) विवाह काल निर्धारण में ग्रहों का महत्वपूर्ण स्थान है। पाराशर ने 7 से 30 वर्ष तक विवाह समय निश्चित रूप से शुभ बताया है।
दारेशें शुभं राशिस्थे स्वोच्चस्वक्र्षगतों भृगुः। पंच्चमें नवमेदृष्टे च विवाहः प्रायशोभवेत्। (बृहत्पाशर) दारजामित्रगेंशुक्रे तद्धुने दारनायके। त्रिंशेवासप्तविंशाशे विवाहः लभते नरः।। (बृहत्पाराशर) विवाह निर्धारण का दूसरा प्रकार यह है जो ग्रह के स्थित स्थान नवांश उच्चता आदि के आधार पर होता है। जातकालंकार में वर्णित हैः लग्नानडगंपति स्फटैक्यगृहगे जीवेविवाह वदेत। चन्द्राधिष्ठित तारका वधुपयोरेक्यांशकेव तथा।। (जातकालंकार) अर्थात स्पष्ट लग्नेश (राश्यदि) $ स्पष्ट सप्तमेश (राश्यादि) योग कारक गुरू गोचर में आये तब विवाह होगा अथवा स्पष्ट चन्द्र $ स्पष्ट सप्तमेश, योगकारक राशि गोचर उसके उस भाव में नवांश राशि में जब गुरू आते हंै तब विवाह होता है।
शुक्रोऽस्तपो वा तनुनाथ शशांक त्रिकोण मायाति तदा विवाहः।। विवाह निर्धारण का तीसरा भेद, दशा विचार द्वारा प्राप्त होता है। जातक परिजात में कहा हैः शुक्रोपेत कलत्र राशि पदशाभ्ज्ञुक्र्ति विवाह प्रदा। लग्नाद्वित्तपतिस्थ राशि प्रदशा भुक्तौच पाणी ग्रहः। कलत्र नाथ स्थित भांश केशयो सितपक्षपा नायकयोबर्लायः। दशागमें धून पयुत्काभांशके त्रिकोणगें देवगुरो कर ग्रहः।
(जा. पारि. 14/27/28) विवाह संख्या विचार - ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक आचार्यों के द्वारा संख्या पर विचार किया गया है: जीवें मित्रनवांश के बलयुते यद्येक दारान्वितः। स्वांशें द्वित्रिकलत्रवान् बहुवधुनाथः स्वतुगंाशकें। (जा.पा. 14/29) अर्थात गुरू मित्र नवांश में एक विवाह, गुरू स्व नवांश में उच्च का हो तो 2 या अनेक विवाह। नीचे पापक्षगे वापिसपापे च कलत्रपे, क्लीबग्रहे सप्तमस्थे द्विभार्यो जायते नरः।। (बृहत्पारा सप्तम भावः) इसी तरह विवाह संस्था विचार प्रायः सभी फलित ग्रन्थों में समान रूप से वर्णित है।
स्त्री कैसी, संतान, सौभाग्य, जारिणी नष्ट भर्ता आदि बहुत से विषयों पर चर्चा की गई है, जैसे यमेऽगेंऋक्षसन्धौ शुक्रेअस्ते वन्ध्यास्त्री नीचभाशंके दारपे व कारके कुदारः अशंाद्वारे राहौ गृहे स्त्री विधवाः।। (जातक तत्वम् 6/109) इसी प्रकार पत्नी नाशक योगों का भी वर्णन आया है - दारेशे सुतगें प्रणष्टवनितोऽपुत्रोंऽथवा धीश्वतरों धूनें वा निधनेश्वरोऽपि कुरूते पत्नी विनशां ध्रुवम्। (फलदीपिका) इसी प्रकार सफल विवाह में विवाह मुहूर्त का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इससे भी शुभाशुभ फलों की जानकारी प्राप्त कर सकते हंै।
अतः हम कह सकते हैं कि विवाह हमारे सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित करता है। यह ग्रहों के शुभाशुभ प्रभावानुसार जातक को सुखी प्रसन्नता, धन, सुदृढ़ समाज प्रदान करता है। विवाह एक ऐसा संस्कार है जिससे हमारे सम्पूर्ण कर्तव्य पूर्ण होते हंै। अतः ग्रहों के अनुसार ही हम ज्योतिषीय उपाय करके विवाह संस्कार को सम्पन्न कर सकते हैं।
विवाह पर वैदिक काल से ही ऋग्वेद में इसका वर्णन आया है तथा नारी को सौभाग्यशालिनी कहा है। हम आज भी नारी से नर की स्थिति का पता लगाते हंै। पत्नी ही गृहस्थाश्रम की सुदृढ़ नींव है। वैवाहिकों विधि स्त्रीणां संस्कार वैदिकस्मृतः। पतिसेवा गुरूोवासों गृहाथोऽग्नि परिक्रिया।।