पारसनाथ यह संसार नश्वर है। यही कारण है कि इस दुनिया-जहान में जो आता है एक न एक दिन उसका जाना सुनिश्चित है, परंतु एक ही पर्वत क्षेत्र में किसी धर्म-संप्रदाय के बीस महात्माओं को निर्वाण प्राप्त होना निश्चय ही उसकी प्रतिष्ठा-प्रभविष्णु का द्योतक है। ऐसा ही एक पर्वत शिरोमणि है - श्री पाश्र्वनाथ जिसे पारसनाथ भी कहा जाता है। यहां 24 में से कुल 20 जैन तीर्थंकरों को निर्वाण लाभ प्राप्त हुआ था। लगभग 1365 मी. ऊंचे और 16 हजार एकड़ क्षेत्र में विस्तृत इस पर्वत का ऊपरी विस्तार 12 योजन तक है। तीर्थमाला चैत्यवंदन में अंकित है
- वंदेऽष्टापदगुंड रेजनपदे सम्मते शैलाभिथे। तो जैन कविवर धानत राय जी यहां की महिमा पर लिखते हैं कि एक बार बंदे करे कोई। ताकि नरक पशुगति नहीं होई।। हावड़ा नई दिल्ली ग्रैंड काॅर्ड लाईन पर चर्चित रेलवे टर्मिनल गोमो, जहां से सुभाष चंद्र बोस की स्मृति जुड़ी है, से 12 किमी. दूरी पर पारसनाथ रलवे स्टेशन है जबकि नजदीकी सुविधायुक्त हवाई अड्डा रांची है। पारसनाथ रेलवे स्टेशन से करीब 16 कि. मी. दूरी पर राष्ट्रीय राजमार्ग पर अवस्थित मधुबन मोड़ से 5 किमी. अंदर आने पर शिखर जी के लिए यात्रा का श्री गणेश होता है। भक्तों के लिए यहां हरेक प्रकार की सुविधा सहज उपलब्ध है। स्थान दर्शन, चातुर्दिक परिभ्रमण, प्राच्य उल्लेख व उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर यह स्पष्ट होता है
कि इस संपूर्ण तीर्थ में 26 कि.मी. का मार्ग है जिसमें 9 कि.मी. चढ़ने में, 9 किमी. पर्वतीय खंड भ्रमण के व 9 किमी. उतरने के दूरी हैं। ऐसे पूर्व की 9, दक्षिण की 9 तथा पश्चिम की 9 टोकों की वंदना के बाद ही तीर्थराज सम्मेद शिखर जी की वंदना पूर्ण होती है। निर्वाण भूमि पर निर्मित स्मारक को टोंक कहा जाता है। इनमें सबसे प्रसिद्ध टोंक श्री पाश्र्वनाथ जी का है। जैन धर्म के लिए यह गौरव की बात है कि उनके सभी 24 तीर्थंकरों के स्मृति चिह्न और 20 के निर्वाण से जुड़े स्मारक यहां शोभायमान हैं।
जिन चार तीर्थंकरों ने यहां निर्वाण नहीं पाया उनमें प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ जी कैलाश में, बारहवें वासुपूज्य श्री चंपा (भागलपुर) में, बाइसवें श्री नेमिनाथ गिरनार में व 24वें महावीर स्वामी पावापुरी (राजगीर) में शामिल हैं। शेष 20 तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि यही पवित्र पुनीत पर्वत है जिसका श्री गणेश द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ के जमाने में करीब पांच हजार वर्ष पूर्व हुआ। उल्लेखनीय ह क श्री पाश्र्वनाथ जी के पूर्व यहां 19 तीर्थंकरों को निर्वाण का पुण्यमय लाभ अर्जित हुआ पर यहां की प्रसिद्धि और महत्ता का चातुर्दिक प्रचार-प्रसार पाश्र्वनाथ के निर्वाणोपरांत ही हुआ।
जैन धर्म के 23वें व प्रथम ऐतिहासिक तीर्थंकर श्री पारसनाथ जी के जीवन वृत्त के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि काशी के राजा अश्वसेन और रानी वामादेवी के पुत्र रत्न श्री पारसनाथ ने 30 वर्ष की अवस्था में कैवल्य ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से गृह त्याग कर दिया। गुरु कृपा से सम्मेद शिखर पर 84वें दिन उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई। सत्तर वर्ष तक साकेत, राजगृह, गया, कौशांबी, श्रावस्ती, हस्तिनापुर आदि में धर्मप्रचार करते-करते करीब 100 वर्ष की आयु में श्रावण माह के शुक्लसप्तमी को श्री महावीर स्वामी से 250 वर्ष पूर्व निर्वाण को प्राप्त हुए। चार महाव्रत यथा अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, एवं अस्तेय के उद्घोषक, सप्तवर्णीय मुकुटधारी एवं मोक्ष मार्ग के प्रशस्तक श्री पारसनाथ के जीवनोद्देश्य एवं गुण ग्राही अमर संदेशों का ही सुप्रभाव था कि उस जमाने में इनके अनुयायियों में 16 हजार श्रमण और 42 हजार श्रमणियां सम्मिलित थीं।
काशी से पारसनाथ के रास्ते दो अन्य तीर्थों का संबंध श्री पाश्र्वनाथ जी से है जिनमें एक पचार पर्वत (औरंगाबाद) और दूसरा कोल्दुआ पर्वत (चतरा, झारखंड) का नाम आता है। यह बात जानकारी की है कि इस स्थान से ताम्रयुगीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं। विवरण मिलता है कि पारसनाथ के इस स्थल का नए जमाने में प्रथम उतार कोशी (केशी) ने किया जो इनका प्रबल समर्थक था। उत्तर गुप्तकाल व पालकाल में भी यहां निर्माण के कुछ कार्य हुए पर उनका विवरण उपलब्ध नहीं होता।
उल्लेख है कि वि. सं. 1649 में मुगल बादशाह अकबर ने जैन हरिविजय सुरि को संपूर्ण शिखर भी भेंट में दे दिया था। बाद में अकबर के प्रिय राजा मान सिंह के महामंत्री नान ने यहां पंद्रहवीं शती के अंतिम चरण में सभी बीस तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि पर टोंकों का निर्माण कराया। आगे बंगाल के मुर्शिदाबाद के सेठ महताब राय ने भी यहां के विकास में योग दिया। बाद में सन् 1678 ई. में यहां जैन समाज का महान जिन बिम्ब प्रतिष्ठित होने से इसकी प्रतिष्ठा में और भी श्री वृद्धि हुई। वर्ष 1820 में इस स्थान का विशद् सर्वेक्षण कर्नल मैकेंजी द्वारा किए जाने के बाद यहां की ऐतिहासिक पुरातात्विक महत्ता चहुं ओर उजागर हुई। गत शताब्दी के अंतिम चरण में यहां साध्वी श्रीसुरप्रभा जी की देख-रेख में नवविकास व जीणोद्धार का कार्य प्रारंभ होने के बाद हाल के दिनों में यहां की रौनकता खूब बढ़ी है।
सम्प्रति झारखंड राज्य के प्रथम श्रेणी स्तर के पर्यटन केंद्र में परिगणित पारसनाथ पर्वत भ्रमण के लिए आप किसी प्रांत या किसी मार्ग से आएं मधुबन ही जाना होता है। मधुबन के सिर पर मुकुट की भांति पर्वत विराजमान है जो झारखंड के पुरातन वन प्रक्षेत्र में एक है। मधुबन में खाना-ठहरना व ऊपर जाने की सारी व्यवस्था सहज में मिल जाती है। वैसे पारसनाथ बाजार के ईसरी क्षेत्र में भी भक्तों के सुविधार्थ बड़े-बड़े धर्मशाले हैं जिनमें तेरापंथी कोठी व बीसपंथी कोठी पुराना व प्रमुख है।
इसके अलावा यहां जहाज मंदिर, श्री भौमिया जी मंदिर, श्री दिगंबर जैन त्रिमूर्ति मंदिर, नवग्रह मंदिर, भक्तामर मंदिर, श्री पाश्र्वकल्याण केंद्र, श्री 1008 शांति नाथ मंदिर, श्री 1008 चंद्रप्रभु मंदिर, श्री 108 सम्मति सागर जी मंदिर, सांवलिया पाश्र्वनाथ मंदिर, सम्मति साधना केंद्र, बीस-चैबीस मंदिर, श्री दिगंबर जैन हास्पिटल एवं रिसर्च सेंटर, जैन श्वेतांबर सोसाइटी व राष्ट्रीयकृत बैंक की शाखाएं उपलब्ध हैं। पारसनाथ तीर्थ की यात्रा हेतु ऊपर चढ़ने के दो मार्ग हैं जिसमें दूसरे मार्ग नीमियाघाट सीतानाला की तरफ से लोग कम ही जाते हैं। अधिकांश भक्तों की टोली मधुबन से ही ऊपर चढ़ती है जहां 1994-95 में पक्के मार्ग बना दिए जाने से अब ऊपर चढ़ना आसान हो गया है। ऐसे खटोली व गोदी वाले भी नीचे रहते हैं
जो शरीर वजन के अनुरूप ऊपर चढ़ाने का पैसा लेते हैं। घुमावदार पहाड़ी रास्ते पर रेडियो सेंटर तक जीप का रास्ता बना है जहां से 1 किमी. की दूरी पर श्री पारसनाथ जी का टोंक है। प्रारंभिक चढ़ाई चढ़ते समय तीन किमी. बाद गंधर्व नाला और पुनः तीन किमी. बाद शीतलनाला मिलता है। यहां से एक मार्ग पाश्र्वनाथ की टोंक तक व दूसरा अन्य 19 टोंकों तक जाता है। इनमें सबसे पहले गौतम स्वामी की टोंक मिलती है। श्रमण संस्कृति के अनुसार वंदना यहीं से आरंभ की जानी चाहिए। पारसनाथ का दूसरा रास्ता सीता नाला के तरफ से जाता है। अनश्रुति है कि भगवान रामचंद्र ने सीता के साथ वनवास अवधि में वहां विश्राम कर जल राशि का भोग किया था। यहां से क्रमशः आगे बढ़ते जाने पर एक के बाद एक टोंक मिलते जाते हैं जो वहां निर्वाण प्राप्त 20 में से किसी न किसी तीर्थंकर से संबंधित हैं। पावापुरी जैन परंपरा के अनुरूप जैन धर्म में कुल चैबीस महा तीर्थंकर हुए जिनमें अहिंसा, सत्य अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य जैसे ‘पंचमहाव्रत’ के उद्घोषकत्र्ता महावीर स्वामी का अपना अलग स्थान है।
अंतिम व चैबीसवें तीर्थंकर के रूप में प्रख्यात महावीर स्वामी का जीवन व दर्शन एक ऐसा झलकता आईना है जिसमें भारतीयता के प्रायशः कृत दृष्टिगत होते हैं। महाश्रमण भगवान महावीर का महापरिनिर्वाण जहां हुआ था वह स्थान पावापुरी कहलाता है। विवरण है कि इसी स्थल में अंतिम समवशरण के बाद महावीर स्वामी बहत्तर वर्ष की अवस्था में शरीर छोड़ परममोक्ष को प्राप्त हो गये। भारतीय इतिहास में इसकी सर्वमान्य तिथि 468 ई. पूबतायी जाती है पर इतिहासविदों का एक वर्ग इसे 526 ई. पूर्व भी स्वीकार करता है। स्थान भ्रमण, दर्शन व जैन आगम शास्त्रों के अध्ययन अनुशीलन से ज्ञात होता है कि बिहार क्षेत्र के जैन तीर्थ यथा राजगृह, वैशाली, कुंडलपुर, चैखंडी, लडुआर, बासो कुंड, गुणावां जी आदि के मध्य पावापुरी की महत्ता युगांे-युगों से कायम है जो नालंदा व राजगीर के साथ मिलकर ‘‘स्वर्णिम पर्यटन त्रिकोण’ बनाता है।
पावापुरी राष्ट्रीय राजमार्ग पर अवस्थित पावापुरी मोड़ से दो किमी. अंदर है जो नालंदा से 21 किमीराजगीर से 30 किमी. और बिहार की राजधानी पटना से 62 किमी. दूरी पर अवस्थित है। यह जानकारी की बात है कि महावीर स्वामी जी के निर्वाण तिथि के बाद से ही ‘वीर निर्वाण संवत्’ प्रारंभ होता है जिसका जैन समाज में विशेष महत्व है। ऐतिहासिक साक्ष्यों से जानकारी मलती है कि भगवान महावीर धर्म प्रचार के क्रम में निर्वाण स्थिति का बोध होते हजारों सहयोगियों के साथ राजगृह से ‘पावा’ आए। पूर्व काल में इस क्षेत्र का नाम अप्पापुरी (आपापुरी) था। यहां आकर उन्होंने लोक कल्याणार्थ प्रवचन दिए, यह स्थान समवशरण कहलाता है।
फिर दो किमी. पहले ही आकर जहां प्राण त्याग किए आज वहीं ‘जल मंदिर’ बना है। विवरण है कि भगवान महावीर का अंतिम संस्कार एक बड़े कमल सरोवर के बीच किया गया। ऐसे यहां के महात्मा यह भी कहते हैं कि मृत्यु के बाद महावीर जी का शरीर कर्पूर की भांति कांतिमय हो हवा में विलीन हो गया। चाहे जो भी हो पर यह पूर्णतया सत्य है कि महावीर जी का जीवनान्त यहीं हुआ। जैन आगम शास्त्र में इसका नाम नौखूद-सरोवर मिलता है। प्राच्य काल में लगभग पचास एकड़ भू-भाग में विस्तृत इस तालाब में लाल, नीला व सफेद कमल पुष्प खिले थे और आज भी कमल पुष्प व रंग-बिरंगी पद्धतियांे से यह तालाब शृंगारित है। पास में ही पार्क, दादाबाड़ी और श्वेताम्बर व दिगंबर मंदिर दर्शनीय हंै।
संपूर्ण देश में अनूठा व विअलग इस मंदिर तक जाने के लिए लाल पाषाण खंड के पहुंच पुल बनाए गए हैं जिसके प्रारंभिक व अंतिम छोर पर अलंकृत कक्ष बना हुआ है। मंदिर पूर्वाभिमुख है जिसके अंदर के तीन कक्षों में ठीक सामने बाबा महावीर जी, बाएं तरफ गौतम स्वामी व दाहिने सुधर्मा स्वामी का चरण वंदन स्थान है। कुल मिलाकर देश के जैन तीर्थ यथा श्रीजल मंदिर, पावापुरी सम्मेद शिखर (पाशर््वनाथ), श्रवण बेलगोला, उदयगिरि -खंडगिरि, टणकपुर, गिरनार, पालिटाणा (शत्रंुत्रय), ऋषभदेव तीर्थ आदि के मध्य पावापुरी एक सम्मानित स्थान है जहां के दर्शन-भ्रमण से ही पुरातन युग की स्मृति सहज में जीवन्त हो जाती है।