जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। ‘जैन’ उन्हें कहते हैं, जो ‘जिन’ के अनुयायी हों। ‘जिन’ शब्द बना है ‘जि’ धातु से। ‘जि’ यानी जीतना। ‘जिन’ अर्थात जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं ‘जिन’। जैन धर्म अर्थात ‘जिन’ भगवान का धर्म है।
पवस्त्रहीन बदन, शुद्ध शाकाहारी भोजन और निर्मल वाणी एक जैन-अनुयायी की पहली पहचान है। यहाँ तक कि जैन धर्म के अन्य लोग भी शुद्ध शाकाहारी भोजन ही ग्रहण करते हैं तथा अपने धर्म के प्रति बड़े सचेत रहते हैं।
कर्मारातीन जयतीति जिन: अर्थात् जो कर्मरूपी शत्रुओं को जीत लेता है वह ‘जिन’ है।
जैन धर्म के उद्भव का स्पष्ट उल्लेख तो किसी भी लिखित कृति में नहीं है किंतु इतना तो निश्चित है कि यह धर्म वैदिक काल से पूर्व भी विद्यमान था। इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि जैन धर्म तथा इसके कुछ तीर्थंकरों के विषय में ऋग्वेद, विष्णु पुराण और भागवत पुराण में भी चर्चा मिलती है। जैन धर्म का प्रवर्तक ऋषभ देव को माना जाता है जो संभवतः चक्रवर्ती सम्राट भरत के पिता थे। इनका संबंध स्पष्टतया राजकुल से था। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकरों की चर्चा है जिनके नाम इस प्रकार हैं:
1. ऋषभ देव 7. सुपाश्र्व 13. विमलनाथ 19. मल्लीनाथ 2. अजित 8. चंद्रप्रभ 14. अनंत 20. मुनीसुब्रत 3. संभव 9. पुष्पदंत या सुविधि 15. धर्म 21. नमी 4. अभिनंदन 10. शीतल 16. शांति 22. नेमिनाथ 5. सुमति 11. श्रेयांस 17. कुंसुनाथ 23. पाश्र्वनाथ 6. पद्मप्रभ 12. वोसुपुज्य 18. अरसनाथ 24. वर्द्धमान महावीर।
जैन धर्म के इन 24 तीर्थंकरों में से अंतिम दो तीर्थंकरों के विषय में ही विशद् जानकारी प्राप्त है। जैन धर्म के अनुयायियों का यह विश्वास है कि उनका धर्म अनादि है और सृष्टि के साथ ही पैदा हुआ है। पहले तीर्थंकर ऋषभ देव का नाम वैदिक साहित्य में सम्मानपूर्वक आता है। किंतु अंतिम तीर्थंकर महावीर का नाम विशेष रूप से इसलिए लिया जाता है क्योंकि समय के साथ-साथ उन्होंने धर्म को एक निश्चित सूत्र में बांधा। इन 24 तीर्थंकरों में से अधिकांश के संबंध राज परिवारों से रहे हैं किंतु इन्होंने लोगों को धर्म सम्मत जीवन जीने का पाठ पढ़ाने के लिए अपने राज्य का त्याग कर तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर जैन धर्म के उत्थान में अपना सर्वस्व लगा दिया।
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जैन धर्म का यह मानना है कि सृष्टि अनादि काल से अपने आदि तत्वों के आधार पर ही चल रही है। आदि तत्व छः हैं -
1. जीव (आत्मा) 2. पुद्गल (पदार्थ) 3. धर्म 4. अधर्म 5. आकाश 6. काल। जीव चेतन द्रव्य है। जीव का मूल गुण है - अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य, अनंत दर्शन एवं अनंत सुख।
कर्म का आवरण हटाकर अपने शुद्ध गुण को प्राप्त करने के बाद ही शांति संभव है। कर्म का क्षय होने पर जीव उसी स्थिति को प्राप्त होता है जिसे मोक्ष कहते हैं। मोक्ष प्राप्त करते ही जीव में अनंत सुख, ज्ञान, दर्शन, वीर्य सद्यः उत्पन्न होते हैं और ऐसा मुक्त जीवन ‘जिन’ कहलाता है। अतः जीवन का ध्येय है मोक्ष प्राप्ति और उसका मार्ग है कर्मक्षय और कर्मक्षय के साधन हैं त्रिरत्न। त्रिरत्न की साधना का प्रचार-प्रसार भगवान महावीर ने किया।
जैन धर्म के अन्तर्गत अहिंसा को जीव और जीवन के प्रति सम्मान के अर्थ में लिया गया है। हिंसा को सबसे बड़ा पाप और अहिंसा को परम धर्म माना गया है। यहां तक कि जमीन पर हल चलाने से होने वाली हिंसा से बचने के लिए जैनियों ने खेती तक करना छोड़ दिया। इसी तरह, श्वेताम्बर जैन मुनि नाक और मुंह पर कपड़ा बांध कर रखते हैं, ताकि कीटाणुओं को नुकसान न पहुंचे। जैन धर्म में इस विश्व को अनादि माना गया है। ईश्वर को विश्व के रचयिता के रुप में स्वीकार नहीं किया गया है।
इसी तरह जैन धर्म में ‘मोक्ष’ पाने के लिए ईश्वर की सहायता या कृपा की कोई आवश्यकता नहीं समझी जाती है। ईश्वर की भक्ति और उपासना के बिना साधक स्वयं अपने प्रयत्नों से जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य ‘मोक्ष’ को प्राप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त जैन धर्म में भी हिंदू धर्म की तरह आत्मा की अमरता में विश्वास पाया गया है, लेकिन जैन धर्म में आत्मा की अवधारणा हिन्दू धर्म से अलग है। जैन धर्म के अनुसार आत्मा में विस्तार होता है, और वह जगह घेरती है।
श्री भगवान महावीर - जीवन
श्री भगवान महावीर का जन्म वैशाली के पास कुण्डलपुर ग्राम में वृज्जिगण के ज्ञातृकुल नामक कुल में राजा सिद्धार्थ के यहां 599 ईसापूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को हुआ था। इनकी माता का नाम त्रिशला था और इन्हें बचपन में वर्द्धमान नाम दिया गया। राजकुमार वर्द्धमान ने युवावस्था तक क्षत्रियों की समस्त कलाओं का अभ्यास किया। माता के आग्रह से इन्होंने राजा समरवीर की कन्या यशोदा देवी से विवाह भी किया जिससे इन्हें एक कन्या हुई जिसका नाम था प्रियदर्शना। किंतु गृहस्थ जीवन उन्हें बार-बार एक बंधन, एक मायाजाल लगता था जिससे मुक्त होने के लिए उनकी अंतरात्मा झकझोरती रहती थी।
जब राजकुमार वर्द्धमान 28 वर्ष के थे तब उनके माता - पिता की मृत्यु हो गयी। घर त्याग कर मुनि बनने की उनकी इच्छा फिर भी नहीं दबी किंतु भाई नन्दी के आग्रह पर दो वर्ष और घर पर रहना पड़ा। 30 वर्ष की आयु में घर छोड़कर वर्द्धमान ने दीक्षा ले ली। दीक्षा लेते ही उन्हें मनः पर्याय ज्ञान (दूसरे के मन की बात जानने की शक्ति) की प्राप्ति हो गयी। इन्द्रियों और मन पर संपूर्ण विजय की सिद्धि के लिए उन्होंने साढ़े बारह वर्ष तक घोर तपस्या की। इस दौरान कभी-कभी छः महीने तक वे निर्जल उपवास करते रहे तो कभी-कभी महीनों तक खड़े होकर ध्यान करते रहे।
तपस्या के दौरान उन्हें घोर कष्ट भी सहने पड़े तथा अन्य जानवरों ने उन्हें भयंकर कष्ट दिए। आंधी, वर्षा, ओले ने उन्हें डिगाने के भरसक प्रयत्न किए किंतु वे पर्वत की भांति अविचल रहे। इन्द्र ने इस धैर्य तथा मनोबल को देखकर ही उन्हें महावीर कहा। अंततः तपस्या पूरी हुई और महावीर सभी इच्छाओं, वासनाओं से मुक्त होकर वीतरागी, सर्वज्ञ एवं महासिद्ध बन गए।
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श्री भगवान महावीर उपदेश
महावीर ने पाश्र्वनाथ के चार सिद्धांतों - सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह में पांचवां सिद्धांत ब्रह्मचर्य जोड़ा। मोक्ष पाने का साधन स्वयं को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर सदाचार में लगा देना है। भगवान महावीर ने मन की पवित्रता और अहिंसा पर विशेष जोर दिया। मोक्ष प्राप्ति के लिए इन्होंने तीन साधनों का प्रतिपादन किया जो त्रिरत्न के नाम से प्रसिद्ध है वे इस प्रकार हैं:
सम्यक ज्ञान: सच्चा और पूर्ण ज्ञान। इसकी प्राप्ति समस्त तीर्थंकरों के दिए गए अध्ययन से हो सकती है।
सम्यक दर्शन: तीर्थंकरों में पूर्ण विश्वास।
सम्यक चरित्र: नैतिक जीवन व्यतीत करने के लिए उपर्युक्त पांचों सिद्धांतों के अनुसार आचरण करना। आत्मा को भौतिक बंधनों से मुक्त करने के लिए त्रिरत्न का नियमपूर्वक पालन आवश्यक है। जैन धर्म विश्व चेतना के वैदिक धर्म को नहीं मानता है। इसमें ब्रह्मचर्य पर विशेष जोर दिया गया है। इन सिद्धांतों से धीरे-धीरे वैराग्य और तप की स्थिति और अंत में कर्म क्षय की स्थिति प्राप्त होती है।
जैन धर्म की मूल धारणाएं और विशिष्टताएं
- जैन धर्म प्राचीनतम अवैदिक धर्म है। इसमें ईश्वर का स्थान नहीं है।
- जैन धर्म में ईश्वर को स्थान नहीं है, इसलिए इसमें देवी-देवताओं की पूजा का भी कोई प्रावधान नहीं है।
- सभी प्राचीन भारतीय धर्मों की अपेक्षा जैन धर्म में अहिंसा को ही परम धर्म समझा जाता है परंतु दार्शनिक आधार पर भी अनेकान्तवाद को विशेष स्थान दिया गया है।
- जैन धर्म के अनुसार कर्म बन्धन है जो व्यक्ति से चिपटे रहते हैं।
- जैन धर्म में बुद्धिवाद को विशेष स्थान दिया गया है, जबकि हिंदू धर्म में धर्मग्रंथ को एक मात्र अधिकारी ज्ञान का स्रोत समझा गया है।
- जैन धर्म दर्शन अनेकत्ववादी एवं वास्तववादी दर्शन है जिसमें जगत को केवल व्यावहारिक रूप से सत्य और पारमार्थिक से मिथ्या कहा जाता है।
- जैन धर्म के प्रवर्तकों को ऐतिहासिक व्यक्ति कहा जाता है। 24 तीर्थंकरों में भगवान महावीर को सबसे बड़ा और अंतिम तीर्थंकर गिना जाता है।
- जैन धर्म में वर्ण विचार नहीं है।
- जैन धर्म के पंचमहाव्रत - सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। इन पांचों को काफी हद तक हिंदू धर्म में भी मान्यता दी गयी है।
- हिंदू धर्म और जैन धर्म दोनों में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है।
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