जैन धर्म का कर्म सिद्धांत
जैन धर्म का कर्म सिद्धांत

जैन धर्म का कर्म सिद्धांत  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 12434 | अप्रैल 2016

जिसके द्वारा जीव परतंत्र किया जाता है वह कर्म है। इस कर्म के निमित्त से ही यह जीव इस संसार में अनेक शारीरिक, मानसिक और आगंतुक दुःखों को भोग रहा है। जीव के साथ कर्मों का संबंध अनादिकाल से चला आ रहा है। कहा भी है - ‘‘जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध है जैसे कि सुवर्णपाषाण में मल-किट्ट और कालिमा। इन जीव और कर्मों का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है। ’’अर्थात् जीव का स्वभाव रागादिरूप परिणत होने का है और कर्म का स्वभाव रागादिरूप परिणमन कराने का है। इन दोनों का अस्तित्व भी ईश्वर आदि कर्ता के बिना ही स्वतः सिद्ध है। जिस प्रकार मदिरा का स्वभाव जीव को उन्मत्त कर देने का है और इसके पीने वाले जीव का स्वभाव उन्मत्त हो जाने का है, उसी प्रकार कर्मोदय के निमित्त से जीव का स्वभाव रागद्वेष रूप परिणमन करने का है और कर्म का स्वभाव जीव को विकारी बना देने का है ।

जीव का अस्तित्व ‘‘अहं’’-‘‘मैं’’ इस प्रतीति से जाना जाता है तथा कर्म का अस्तित्व-जगत में कोई दरिद्र है तो कोई धनवान है इत्यादि विचित्रता को प्रत्यक्ष देखने से सिद्ध होता है। इस कारण जीव और कर्म दोनों ही पदार्थ अनुभव सिद्ध हैं। जीव किस तरह इन कर्मों को अपने साथ सम्बन्धित करता है ? औदारिक आदि शरीर नामकर्म के उदय से सहित हुआ यह जीव मन, वचन, काय रूप योगों के द्वारा प्रतिसमय कर्म और नोकर्म के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को सब तरफ से अपनी आत्मा के साथ सम्बन्धित कर लेता है अर्थात् मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से आत्मा के प्रदेशों में हलचल होता है, इसे योग कहते हैं। इस योग से ही कर्मों का आना होता है तथा बंध होता है। जैसे कि अग्नि से तपाया हुआ लोहे का गोला जल में डालने पर प्रतिसमय चारों तरफ से जल को खींच लेता है उसी तरह जब यह आत्मा मन, वचन और काय की प्रवृत्ति करता रहता है तभी तक कर्मबंध होता रहता है और जब योग की प्रवृत्ति को रोक लेता है अर्थात् एकाग्र रूप से आत्मा के ध्यान में परिणत हो जाता है तब बंध का भी निरोध हो जाता है । एक समय में कितने कर्म आत्मा से बंधते हैं ? सिद्ध राशि अनंतानंत प्रमाण हैं।

उसके अनंतवें भाग (अनंत) प्रमाण ही कर्म पुद्गल इस जीव के साथ एक समय में बंधते हैं तथा मन, वचन, काय की प्रवृत्ति में मंदता या तीव्रता होने से कदाचित् इनसे कम या अधिक भी परमाणु बंध जाते हैं। जैसे अधिक चिकनी दीवार पर धूलि अधिक लगती है और कम चिकनी दीवार पर कम चिपकती है वैसे ही कषायों की तीव्रता से अधिक और मंदता से कमती रूप कर्म बंधते हैं । कर्म के कितने भेद हैं? सामान्य कर्म एक ही है, उसमें कोई भेद नहीं है तथा द्रव्य कर्म और भाव कर्म की अपेक्षा दो प्रकार हो जाते हैं। उसमें ज्ञानावरण आदि रूप जो पुद्गल द्रव्य का पिंड है वह द्रव्य कर्म है और उस द्रव्य पिंड में जो फल देने की शक्ति है वह भाव कर्म है अथवा कार्य में कारण का व्यवहार होने से उस शक्ति से उत्पन्न हुये जो अज्ञान आदि अथवा क्रोधादि रूप परिणाम हैं वे भी भाव कर्म कहलाते हैं। इस कर्म के आठ भेद हैं अथवा इन्हीं आठों के एक सौ अड़तालीस या असंख्यात लोक प्रमाण भेद भी होते हैं । आठ कर्मों के नाम- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय इन आठ कर्मों की मूल प्रकृतियाँ - स्वभाव हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार कर्म घातिया कहलाते हैं क्योंकि ये जीव के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, वीर्य आदि गुणों का घात करने वाले हैं । आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय ये चार अघातिया कहलाते हैं क्योंकि घातिया कर्म के नष्ट हो जाने पर ये चारों कर्म मौजूद रहते हैं फिर भी जली हुई रस्सी के समान ये जीव के गुणों का घात नहीं कर सकते हैं अर्थात् अरिहंत अवस्था में जीव के अनंत गुण प्रगट हो जाते हैं । कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ तथा मोह, असंयम और मिथ्यात्व से वृद्धि को प्राप्त हुआ यह संसार अनादि है। इस संसार में जीव का अवस्थान रखने वाला आयु कर्म है। उदय में आने वाला आयु कर्म जीवों को उन-उन गतियों में रोक कर रखता है जैसे कि हम और आप मनुष्यायु कर्म के उदय से मनुष्यगति में रुके हुए हैं।

नामकर्म नारकी, तिर्यंच आदि जीव की नाना पर्यायों को, औदारिक, वैक्रियिक आदि शरीरों को तथा एक गति से दूसरी गति रूप परिणमन को कराता रहता है। कुल की परिपाटी के क्रम से चला आया जो जीव का आचरण है उसे गोत्र कहते हैं। जिस कुल परम्परा में ऊँचा आचरण चला आता है उसे उच्च गोत्र कहते हैं और जिस कुल परम्परा में निद्य आचरण चला आ रहा है उसे नीच गोत्र कहते हैं। जैसे एक कहावत प्रसिद्ध है कि एक सियार के बच्चे को बचपन में सिंहनी ने पाला। वह सिंह के बच्चों के साथ ही खेला करता था। एक दिन खेलते हुये वे सब बच्चे किसी जंगल में गये। वहाँ उन्होंने हाथियों का समूह देखा। जो सिंहनी के बच्चे थे वे तो हाथी के सामने दौड़े किन्तु वह सियार का बच्चा जिसमें अपने कुल के डरपोकपने का संस्कार था उस हाथी को देखकर भागने लगा। तब वे सभी सिंह के बच्चे भी उसे अपना बड़ा भाई समझकर पीछे लौट कर वापस माता के पास आये और उस सियार की शिकायत की कि इसने हमें आज शिकार से रोका है। तब सिंहनी ने उस सियार के बच्चे से एक श्लोक कहा, जिसका मतलब यह है कि अब हे बेटा ! तू यहाँ से भाग जा, नहीं तो तेरी जान नहीं बचेगी ।

श्लोक - शूरोसि कृतविद्योसि दर्शनीयोसि पुत्रक । यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नो गजस्तत्र न हन्यते ।। हे पुत्र! तू शूरवीर है, विद्यावान है, देखने में सुन्दर है किन्तु जिस कुल में तू पैदा हुआ है उस कुल में हाथी नहीं मारे जाते हैं अर्थात् कुल का संस्कार अवश्य पाया जाता है, चाहे वह कैसे भी विद्यादि गुणों से सहित क्यों न हो। उस पर्याय में संस्कार नहीं मिटता है। इंद्रियों को अपने - अपने रूपादि विषय का अनुभव करना वेदनीय है। उसमें दुःखरूप अनुभव करना असातावेदनीय है और सुखरूप अनुभव करना सातावेदनीय है। उस सुख-दुःख का अनुभव कराने वाला वेदनीय कर्म है । अंतराय कर्म को अंत में क्यों रखा जबकि यह घातिया है? यह कर्म समस्त रूप से जीव के गुणों को घातने में समर्थ नहीं है बल्कि नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीनों कर्मों के निमित्त से ही अपना कार्य करता है। इस कारण अघातिया के अंत में इस अंतराय को कहा है। वेदनीय को घातिया कर्म के बीच में क्यों ले लिया है ? मोहनीय कर्म के जो भेद राग-द्वेष आदि हैं उनके उदय के बल से ही यह वेदनीय कर्म घातिया कर्मों की तरह जीवों का घात करता रहता है इसीलिये इसे मोहनीय के पहले रखा है अर्थात् यह वेदनीय कर्म इंद्रियों के रूपादि विषयों में से किसी में प्रीति और किसी में द्वेष का निमित्त पाकर सुख तथा दुःखस्वरूप साता और असाता का अनुभव कराता रहता है किंतु जीव को अपने शुद्ध ज्ञान आदि गुणों में उपयोग नहीं लगाने देता है, पर स्वरूप में ही लीन करता है।

वास्तव में वस्तु का स्वभाव भला या बुरा नहीं है किन्तु जब तक राग-द्वेषादि रहते हैं तभी तक यह किसी वस्तु को भला और किसी को बुरा समझता रहता है जैसे नीम का पत्ता मनुष्य को कड़वा लगता है किन्तु ऊँट को प्रिय लगता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मोहनीय कर्मरूप राग-द्वेष के निमित्त से वेदनीय का उदय होने पर ही इंद्रियों से उत्पन्न सुख तथा दुःख का अनुभव होता है। मोहनीय के बिना वेदनीय कर्म राजा के बिना निर्बल सैन्य की तरह कुछ नहीं कर सकता है। इन कर्मों के बंधन के क्या कारण हैं तथा इनसे कैसे मुक्ति पाई जा सकती है? ज्ञान-दर्शन और उनके साधनों में प्रतिकूल आचरण, अंतराय, उपघात, प्रदोष, निन्हव तथा आसादन करने से यह जीव ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का प्रचुरता से बंध करता है अर्थात् श्रुतधर आदि ज्ञानीजनों के प्रति अविनीत व्यवहार करना, यह प्रतिकूल आचरण कहलाता है। ज्ञान में विघ्न करना या ज्ञान के साधनों में विघ्न करना अंतराय है। मन से अथवा वचन से प्रशस्त ज्ञान में दूषण लगाना उपघात है। तत्त्वज्ञान के विषय में हर्ष का अभाव होना अथवा किसी के द्वारा मोक्ष के साधन का वर्णन किए जाने पर उसकी प्रशंसा न करके अंतरंग में कलुषित भाव करना प्रदोष है। जानते हुए किसी कारण से कहना कि यह पुस्तक मेरे पास नहीं है, इस शास्त्र को मैं नहीं जानता हूँ, इस प्रकार पुस्तक ज्ञान का अपलाप करना अथवा यदि अप्रसिद्ध गुरु से ज्ञान प्राप्त किया है तो उनके नाम को छिपाकर प्रसिद्ध गुरू का नाम कहना यह निन्हव है।

काय और वचन से अनुमोदना नहीं करना या दूसरों के द्वारा प्रकाशित ज्ञान का काय से या वचन से निषेध करना आसादन है। इन छः कारणों के होने पर ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों का स्थिति और अनुभाग बंध प्रचुरता से हो जाता है। प्राणियों पर अनुकंपा करने से, व्रत धारण करने में उद्यमी रहने से तथा उनके धारण करने से, क्षमा धारण करने से, दान देने से तथा गुरुजनों की भक्ति करने से सातावेदनीय कर्म का तीव्र बंध होता है और इनके विपरीत आचरण करने से असातावेदनीय कर्म का तीव्र बंध होता है अर्थात् सभी जीवों पर दया भाव करने से, धर्म में अनुराग रखने से, धर्म का आचरण करने से, व्रत शील और उपवास के करने से, क्रोध नहीं करने से, शील-तप और संयम में निरत व्रतीजनों को प्रासुक वस्तुओं के दान देने से बाल, वृद्ध, तपस्वी और रोगीजनों की वैयावृत्ति करने से, आचार्य, उपाध्याय, साधु तथा माता-पिता और गुरुजनों की भक्ति करने से, सिद्धायतन और चैत्य-चैत्यालयों की पूजा करने से, मन-वचन-काय को सरल एवं शांत रखने से सातावेदनीय कर्म का प्रचुरता से बंध होता है। प्राणियों पर क्रूरतापूर्वक हिंसक भाव रखने से, पशु-पक्षियों के छेदन-भेदन, वध-बंधन और अंग-उपांग आदि के काटने से, उन्हें नपुंसक करने से, शारीरिक और मानसिक दुःखों के उत्पादन से, तीव्र अशुभ परिणाम रखने से, विषय-कषाय की बहुलता से, अधिक निद्रा लेने से तथा पाँच पापरूप आचरण करने से असातावेदनीय कर्म का तीव्र बंध होता है। प्राणियों की हिंसा आदि में रत रहने वाला और जिन पूजन आदि मोक्षमार्ग के साधनों में विघ्न करने वाला जीव अंतराय कर्म का बंध कर लेता है, जिससे वह मन इच्छित वस्तु को प्राप्त नहीं कर पाता है तथा जो दूसरों पर क्रोधादि करता है और दूसरों के दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य में विघ्न-बाधाएं उपस्थित करता है, मिथ्यात्व आदि का सेवन करता है, ऐसा जीव अंतराय कर्म को उत्पन्न करता है। इस प्रकार से जो इन कर्मों के बंध के कारण कहे गये हैं, वे सब कर्मों के आस्रव के भी कारण हैं क्योंकि कर्मों का आस्रव होने पर ही बंध होता है इसीलिए यहाँ पर कारण में कार्य के उपचार से इनको कर्मबंध के कारण कहा है।

यहाँ पर जो ये कर्मों के बंध के कारण कहे गये हैं, वे सब अनुभाग बंध की अपेक्षा से कहे गये हैं क्योंकि प्रदेश बंध की अपेक्षा से इन नियमों में व्यभिचार देखा जाता है। इस प्रकार से कर्मों के कार्य और उनके बंध के कारणों को समझकर हमें उन-उन कारणों से बचने का प्रयत्न करना चाहिए, जो कि हमारे लिए सर्वथा अहितकर हैं। जैसे कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म के बंध के कारण, असातावेदनीय, दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, नरकायु, तिर्यंचायु, अशुभ नाम, अशुभ गोत्र और अंतराय कर्म बंध के कारण सर्वथा हमारे लिए अहितकर ही हैं। इनके कारणों को तो सर्वथा छोड़ देना चाहिए और सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र इन कर्मों के बंध के कारणों का प्रारंभ में समादर करते हुए विशुद्ध रत्नत्रय के बल से इन कारणों को भी छोड़कर अपनी चैतन्य स्वरूप शुद्धात्म अवस्था को प्राप्त करके अनंत सुखी होने का ही पुरुषार्थ करना चाहिए। सम्यग्दृष्टि जीव मरकर भोगभूमि के तिर्यंच हो सकते हैं, सो कैसे? यह भी बद्धायुष्क की अपेक्षा है अर्थात् किसी जीव ने पहले तिर्यंचायु बांध ली, पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया, तो वह भोगभूमि में ही जायेगा-कर्मभूमि का तिर्यंच नहीं होगा और वहाँ से आयु पूर्ण कर मरकर वैमानिक देवों में ही जन्म लेगा। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होने वाले असंयम की मुख्यता से अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग और वङ्कावृषभनाराचसंहनन, इन दश प्रकृतियों का बंध एकेन्द्रियों से लेकर चतुर्थगुण स्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि तक ही होता है। देशव्रती इनका बंध नहीं कर सकता। आगे इनका बंध नहीं होने से संवर हो जाता है।

प्रत्याख्यानावरण के उदय से होने वाले असंयम से प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन ४ प्रकृतियों को एकेन्द्रियों से लेकर संयतासंयत गुणस्थान देशव्रती जीव तक बांधते रहते हैं। आगे इनका बंध नहीं होने से संवर हो जाता है। यहाँ पर त्रय हिंसा का त्याग हो जाने से पाँच स्थावर जीवों का अदया, पाँच इन्द्रिय और मन का अवश, इन ११ प्रकार के असंयम से ही इन कर्मों का आस्रव बंध होता है, ऐसा समझ लेना। प्रमाद के निमित्त से बंधने वाली असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशस्कीर्ति ये छः प्रकृतियाँ हैं। ये छठे गुणस्थान तक ही बंधती हैं। आगे इनका संवर हो जाता है। देवायु का बंध प्रमाद हेतुक भी है और अप्रमाद हेतुक भी है। अतः इसका सातवें गुणस्थान तक बंध होता है। छठे गुणस्थान तक प्रमाद का सद्भाव है। सातवें में अप्रमत्त अवस्था है। जिन कर्मों का मात्र कषाय के निमित्त से ही बंध होता है, उन कर्मों का कषाय के अभाव में संवर हो जाता है। प्रमादादिक के निमित्त से रहित यह कषाय तीव्र, मध्यम और जघन्य ऐसे तीन भेद से तीन गुणस्थानों में बंट जाता है। पुरुषवेद संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन पाँच प्रकृतियों का नवमें गुणस्थान तक बंध होता है, आगे इनका बंध रुक जाता है।

पांच ज्ञानावरण, चक्षुदर्शन आदि चार दर्शनावरण, पाँच अंतराय, यशस्कीर्ति और उच्चगोत्र इन १६ प्रकृतियों का दशवें गुणस्थान तक बंध होता है, आगे नहीं होता। दशवें गुणस्थान के अंत में कषाय का पूर्णतया अभाव हो जाने से आगे केवल योग के निमित्त से ही बंध होता है। इसीलिए ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में मात्र योग के निमित्त से सातावेदनीय का आस्रव होता है। अर्हंत अवस्था में सातावेदनीय का जो बंध है, वह एक समय की स्थिति वाला है। अर्थात् कर्म के आने का समय और जाने का समय एक ही है, वह रुकता नहीं है। चूँकि स्थिति और अनुभाग कषाय से होते हैं और दशवें गुणस्थान के आगे कषाय नहीं हैं। तेरहवें गुणस्थान तक यह एक सातावेदनीय बंधती हैं। आगे इसका अभाव हो जाने से चैदहवें गुणस्थान के अयोगकेवली अबंधक कहलाते हैं। यही कारण है कि तेरह गुणस्थान तक बंधक होने से सयोगकेवली अर्हंत देव भी कथंचित् बंधक माने गये हैं।



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