जैन धर्म के प्रमुख पर्व
जैन धर्म के प्रमुख पर्व

जैन धर्म के प्रमुख पर्व  

राजश्री कासलीवाल
व्यूस : 6392 | अप्रैल 2016

पर्युषण एक आध्यात्मिक त्योहार है। इस दौरान ऐसा लगता है मानो जैसे किसी ने दस धर्मों की माला बना दी हो। दसलक्षण धर्म की संपूर्ण साधना के बिना मनुष्य को मुक्ति का मार्ग नहीं मिल सकता। पर्युषण पर्व का पहला दिन ही ‘उत्तम क्षमा’ भाव का दिन होता है। धर्म के दस लक्षणों में ‘उत्तम क्षमा’ की शक्ति अतुल्य है। क्षमा भाव आत्मा का धर्म कहलाता है। यह धर्म किसी व्यक्ति विशेष का नहीं होता, बल्कि समूचे प्राणी जगत का होता है। जैन धर्म में पर्युषण पर्व के दौरान दसलक्षण धर्म का महत्व बतलाया गया है। वे दस धर्म क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आंकिचन और ब्रह्मचर्य बतलाए गए हैं। वही वही धर्म दस लक्षण हैं, जो पर्युषण पर्व के रूप में आकर, सभी जैन समुदाय और उनके साथ-साथ संपूर्ण प्राणी जगत को सुख शांति का संदेश देते हैं। जब कभी आप क्रोधित हों तब आप मुस्कुराहट को अपनाकर क्षमा भाव अपना सकते हैं, इससे जब भी कभी आप क्रोधित हों तब आप मुस्कुराहट को अपनाकर क्षमा भाव अपना सकते हैं। इससे आपके दो फायदे हो जाएंगे, एक तो आपके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाएगी, जिससे उसी समय आपके मन का सारा क्रोध नष्ट होकर मन में क्षमा का भाव आ जाएगा और दूसरा आपकी निश्छल मुस्कुराहट सामने वाले व्यक्ति के क्रोध को भी समाप्त कर देगी, जिससे निश्चित ही उनका भी हृदय परिवर्तन हो जाएगा। क्षमा एक ऐसा भाव है, जो हमें वैर-भाव, पाप-अभिमान से दूर रखकर मोक्ष मार्ग की ओर ले जाता है। सनातन, जैन, इस्लाम, सिख, ईसाई, सभी धर्म एक ही बात बताते हैं कि एक दिन सभी को मिटना है अतः परस्पर मिठास बनाए रखें। मिट जाना ही संसार का नियम है। तो फिर हम क्यों अपने मन में राग-द्वेष, कषाय को धारण करें। अतः हमें भी चाहिए कि हम सभी कषायों का त्याग करके अपने मन को निर्मल बनाकर सभी छोटे-बड़ों के लिए अपने मन में क्षमा भाव रखें। जैन पुराण कहते हैं कि जहां क्षमा होती है वहां क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सभी कषाय अपने आप ही नष्ट हो जाते हैं। जीवन में जब भी कोई छोटी-बड़ी परेशानी आती है तब व्यक्ति अपने मूल स्वभाव को छोड़कर पतन के रास्ते पर चल पड़ता है जो कि सही नहीं है, हर व्यक्ति को अपना आत्मचिंतन करने के पश्चात सत्य रास्ता ही अपनाना चाहिए। हमारी आत्मा का मूल गुण क्षमा है। जिसके जीवन में क्षमा आ जाती है उसका जीवन सार्थक हो जाता है। क्षमा भाव के बारे में भगवान महावीर कहते हैं कि - ‘क्षमा वीरस्य भूषणं।’ ‘अर्थात् क्षमा वीरों का आभूषण होता है। अतः आप भी इस क्षमा पर्व पर सभी को अपने दिल से माफी दें।

क्षमावाणी पर्व: स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि तमाम बुराई के बाद भी हम अपने आपको प्यार करना नहीं छोड़ते तो फिर दूसरे में कोई बात नापसंद होने पर भी उससे प्यार क्यों नहीं कर सकते हंै? इसी तरह भगवान महावीर स्वामी और हमारे अन्य संत-महात्मा भी प्रेम और क्षमा भाव की शिक्षा देते हैं। भगवान महावीर ने हमें आत्म कल्याण के लिए दस धर्मों के दस दीपक दिए हैं। प्रतिवर्ष पर्युषण आकर हमारे अंतःकरण में दया, क्षमा और मानवता जगाने का कार्य करता है। जैसे हर दीपावली पर घर की साफ-सफाई की जाती है, उसी प्रकार पर्युषण पर्व मन की सफाई करने वाला पर्व है। इसीलिए हमें सबसे पहले क्षमा याचना हमारे मन से करनी चाहिए। जब तक मन की कटुता दूर नहीं होगी, तब तक क्षमावाणी पर्व मनाने का कोई अर्थ नहीं है। अतः जब तक मन की कटुता दूर नहीं होगी, तब तक क्षमावाणी पर्व मनाने का कोई अर्थ नहीं है। अतः जैन धर्म क्षमा भाव ही सिखाता है। हमें भी रोजमर्रा की सारी कटुता, कलुषता को भूल कर एक-दूसरे से माफी मांगते हुए और एक-दूसरे को माफ करते हुए सभी गिले-शिकवों को दूर कर क्षमा पर्व मनाना चाहिए।

सुगंध दशमी पर्व: भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की दशमी को यह पर्व मनाया जाता है। इसे सुगंध दशमी अथवा धूप दशमी कहा जाता है। जैन मान्यताओं के अनुसार पर्युषण पर्व के अंतर्गत आने वाली सुगंध दशमी का काफी महत्व है। इस व्रत को विधिपूर्वक करने से मनुष्य के अशुभ कर्मों का क्षय होकर पुण्यबंध का निर्माण होता है तथा उन्हें स्वर्ग, मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस दौरान जैन समुदाय शहरों/ गांवों में सभी जैन मंदिरों में जाकर भगवान को धूप अर्पण करते हैं जिसे धूप खेवन भी कहा जाता है, जिससे सारा वायुमंडल सुगंधमय होकर, बाहरी वातावरण स्वच्छ और खुशनुमा हो जाता है। इस अवसर पर अपने द्वारा हुए बुरे कर्मों के क्षय की भावना मन में लेकर मंदिरों में भगवान के समक्ष धूप चढ़ाई जाती है। कई मंदिरों में मंडल विधान की सुंदर रचनाएं, कई जगहों पर झांकियां, तो कहीं अलग-अलग जगहों के तीर्थ क्षेत्र की झांकियां सजाई जाती हंै तथा स्वर्ण व रजत उपकरणों से जिनालयों को सजाया जाता है। इस दिन पांचांे पाप (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) का त्याग कर भगवान की पूजा, स्वाध्याय, धर्म चिंतन, कथा श्रवण एवं सामयिक आदि में समय व्यतीत करके सुगंध दशमी की पूजा की जाती है। शाम में दशमुख वाले घट में दशांग धूप आदि का क्षेपण कर रात्रि को आरती-भक्ति, भजन आदि में समय व्यतीत कर यह व्रत किया जाता है। सभी जिनालयों में चैबीस तीर्थंकरों को धूप अर्पित करके, भगवान से अच्छे तन-मन की प्रार्थना की जाती है। साथ ही अपने अंदर व्याप्त बुराइयों को दूर करने की भगवान से प्रार्थना की जाती है, ताकि हमारे सारे बुरे कर्मों का क्षय होकर हम मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकें।

दसलक्षण पर्व: क्रोध एक कषाय है जो व्यक्ति को अपनी स्थिति से विचलित कर देती है। इस कषाय के आवेग में व्यक्ति विचार शून्य हो जाता है और हिताहित का विवेक खोकर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। लकड़ी में लगने वाली आग जैसे दूसरों को जलाती ही है, पर स्वयं लकड़ी को भी जलाती है इसी तरह क्रोध कषाय के स्वरूप को समझ लेना और उस पर विजय पा लेना ही क्षमा धर्म है। मनीषियों ने कहा है कि क्रोध अज्ञानता से शुरू होता है और पश्चात्ताप से विचलित नहीं होना ही क्षमा धर्म है। पाश्र्वनाथ स्वामी और यशोधर मुनिराज का ऐसा जीवन रहा कि इन्होंने अपने क्षमा और समता से पाषाण हृदय को भी पानी-पानी कर दिया। शुत्र-मित्र, उपकारक और अपकारक दोनों के प्रति जो समता भाव रखा जाता है वही साधक और सज्जन पुरुषों का आभूषण है। शांति और समता आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, जो कभी नष्ट नहीं हो सकता। यह बात अलग है कि कषाय का आवेग उसके स्वभाव को ढंक देता है। पानी कितना भी गरम क्यों न हो पर अंततः अपने स्वभाव के अनुरूप किसी न किसी अग्नि को बुझा ही देता है। अज्ञानी प्राणी अपने इस धर्म को समझ नहीं पाता, कषायों के वशीभूत होकर संसार में भटकता रहता है। इसलिए अपने जीवन में क्षमा को धारण करना चाहिए। षट् आर्यकम गृहस्थों के छह आर्य कर्म होते हैं। इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप।

1. इज्या- अर्हंत भगवान् की पूजा को इज्या कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं- नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पवृक्ष, आष्टान्हिक और ऐन्द्रध्वज। नित्यमह- प्रतिदिन शक्ति के अनुसार अपने घर से गंध, पुष्प, अक्षत आदि अष्टद्रव्य सामग्री ले जाकर अर्हंत देव की पूजा करना, जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा आदि का निर्माण करना और मुनियों की पूजा करना आदि नित्यमह है। चतुर्मुख- मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो जिनेन्द्र देव की पूजा की जाती है वह चतुर्मुख है। इसे महाभद्र या सर्वतोभद्र भी कहते हैं। कल्पवृक्ष - समस्त याचकों को किमिच्छक दान - क्या चाहिए? ऐसा उनकी इच्छानुसार दान देते हुए जो चक्रवर्ती द्वारा जिनपूजा की जाती है वह कल्पवृक्ष पूजा है। अष्टान्हिक - नंदीश्वर द्वीप में जाकर कार्तिक, फाल्गुन, आषाढ़ में इन्द्रों द्वारा होने वाली पूजा आष्टान्हिक पूजा है। ऐन्द्रध्वज- इन्द्र, प्रतीन्द्र आदि के द्वारा की गई पूजा ऐन्द्रध्वज है।

2. वार्ता- असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प इन छह कार्यों में से किसी भी कार्य द्वारा आजीविका करके धन कमाना वार्ता है।

3. दत्ति- दान दत्ति है। इसके चार भेद हैं- दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और सकलदत्ति। दयादत्ति - दुःखी प्राणियों को दया पूर्वक अभय आदि दान दयादत्ति है। पात्रदत्ति - रत्नत्रय धारक मुनि, आर्यिका आदि को नवधा भक्ति पूर्वक आहार देना, ज्ञान, संयम आदि के उपकरण शास्त्र, पिच्छी, कमण्डलु आदि देनरा, औषधि तथा वस्तिका आदि देना पात्रदत्ति है। समदत्ति - अपने समान गृहस्थों के लिए कन्या, भूमि, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है। अन्वयदत्ति - अपनी संतान परम्परा को कायम रखने के लिए अपने पुत्र को या दत्तकपुत्र को धन और धर्म समर्पण कर देना सकलदत्ति है। इसे अन्वयदत्ति भी कहते हैं।

4. स्वाध्याय - तत्त्वज्ञान को पढ़ना, पढ़ाना, स्मरण करना स्वाध्याय है।

5. संयम - पाँच अणुव्रतों से अपनी प्रवृत्ति करना संयम है। 6. तप - उपवास आदि बारह प्रकार का तपश्चरण करना तप है। आर्यों के इन षट्कर्म में तत्पर रहने वाले गृहस्थ होते हैं।



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