शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्ररः गृहीत्वैतानि संयाति वायूर्गन्धानिवाशयात् कुरूक्षेत्र में युद्ध के दौरान जब-कौरव व पांडव आमने-सामने खड़े थे तो अपने दादा, गुरु, भाई-बंधु, सगे-संबंधियों को देखकर अर्जुन को मोह हो गया और उसने युद्ध करने का इरादा छोड़ने की इच्छा की तब कृष्ण भगवान ने अर्जुन को समझते हुए कहा हे ! अर्जुन यह शरीर नश्वर है मगर आत्मा अमर है, यह कभी नहीं मरती। जैसे वायु गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके ले जाता है वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है उससे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके ले जाता है वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है उससे इन मन सहित इंद्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमें ले जाता है।
जिस प्रकार वायु इत्र के फोहे से गंध ले जाती है किंतु वह गंध स्थायी रूप से वायु में नहीं रहती, क्योंकि वायु और गंध का संबंध नित्य नहीं है। इसी प्रकार इन्द्रियां मन, बुद्धि, स्वभाव आदि को अपना मानने के कारण उनको साथ लेकर दूसरी योनि में चला जाता है। जैसे वायु तत्वतः गंध से निर्लिप्त है ऐसे ही जीवात्मा भी तत्वतः मन, इन्द्रियां, शरीरादि से निर्लिप्त है, परंतु इन मन इन्द्रियां, शरीरादि में मेरे पन (मेरा है) की मान्यता होने के कारण जीवात्मा इनका आकर्षण करता है। जैसे वायु आकाश का कार्य होते हुए भी पृथ्वी के अंश को (गंध को) साथ लिये घूमती है, ऐसे ही जीवात्मा परमात्मा का सनातन अंश होते हुए भी प्रकृति के कार्य शरीरों को साथ लिये भिन्न-भिन्न योनियों में घूमता है। जड़ होने के कारण वायु में वह विवेक नहीं है कि वह गंध को ग्रहण न करें, परंतु जीवात्मा को तो वह विवेक और सामथ्र्य मिला हुआ है कि वह जब चाहे तब शरीर से संबंध मिटा सकता है। भगवान ने मनुष्य मात्र को यह स्वतंत्रता दे रखी है कि वह चाहे जिससे संबंध जोड़ सकता है और चाहे जिससे संबंध तोड़ सकता है।
अपनी भूल मिटाने के लिये केवल अपनी मान्यता बदलने की आवश्यकता है कि प्रकृति के अंश इन स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों से मेरा (जीवात्मा का) कोई संबंध नहीं है, फिर जन्म मरण के बंधन से सहज ही मुक्ति है। भगवान ने यहां तीन शब्द दृष्टांत के रूप में दिये हैं-
1. वायु
2. गंध
3. आशय ‘आशय’ कहते हैं स्थान को जैसे जलाशय (जल$आशय) अर्थात जल का स्थान। यहां आशय नाम स्थूल शरीर का है।
जिस प्रकार गंध के स्थान (आशय) के फोहे से वायु गंध ले जाती है और फोहा पीछे पड़ा रहता है इसी प्रकार वायुरूप जीवात्मा गंधरूप सूक्ष्म और कारण शरीरों को साथ लेकर जाता है तब गंध का आशय रूप स्थूल शरीर पीछे रह जाता है। भगवान कहते हैं इस जीवात्मा से तीन खास भूलें हो रही हैं।
1. अपने को मन बुद्धि शरीरादि जड़ पदार्थों का स्वामी मानता है पर वास्तव में बन जाता है उनका दास।
2. अपने को उन जड़ पदार्थों का स्वामी मान लेने के कारण अपने वास्तविक स्वामी परमात्मा को भूल जाता है।
3. जड़ पदार्थों में माने हुए संबंध का त्याग करने में स्वाधीन होने पर भी उनका त्याग नहीं करता।
यहां पर जीव को ईश्वर अर्थात अपने शरीर का नियामक कहा गया है। यदि वह चाहे तो अपने शरीर को त्याग कर उच्चतर योनि में जा सकता है और चाहे तो निम्न योनि में जा सकता है। शरीर में जो परिवर्तन होता है वह उसी पर निर्भर करता है। मृत्यु के समय वह जैसी चेतना बनाये रखता है वही उसे दूसरे शरीर तक ले जाती है। यदि वह कुत्ते या बिल्ली जैसी चेतना बनाता है तो उसे कुत्ते या बिल्ली का शरीर प्राप्त होता है। यदि वह अपनी चेतना देवी गुणों में स्थित करता है तो उसे देवता का स्वरूप प्राप्त होता है। यह दावा मिथ्या है कि इस शरीर के नाश होने पर सब कुछ समाप्त हो जाता है। आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण करता है और वर्तमान शरीर तथा वर्तमान कार्यकलाप ही अगले शरीर का आधार बनते हैं। कर्म के अनुसार भिन्न शरीर प्राप्त होता है और समय आने पर शरीर त्यागना होता है।
अतः इस संसार में जीव अपनी देहात्म बुद्धि को एक शरीर से दूसरे शरीर में उसी तरह ले जाता है जैसे वायु सुगन्ध को ले जाता है। इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है।