कोई व्यक्ति यह कहे कि मुझे कम प्रेम है, या ज्यादा प्रेम है, तो शायद उस आदमी को प्रेम का पता ही नहीं है। प्रेम के टुकड़े नहीं होते। इसलिए हम सोचते हैं कि प्रेम विकसित हो रहा है, पसंद और प्रेम में बहुत अंतर है। पसंद कम हो सकती है, ज्यादा हो सकती है, लेकिन प्रेम न कम, न ज्यादा होता है। जीवन के जो गहरे अनुभव होते हैं वे होते हैं, या नहीं होते। महावीर जी को जो जीवन की एकता का अनुभव हुआ वही जीसस को हो सकता है, बुद्ध को हो सकता है। होगा तो होगा, नहीं होगा तो नहीं होगा। दुनिया में कुछ चीजें हैं, आंतरिक जो कभी विकसित नहीं होतीं।
जब वे उपलब्ध होती हैं, या नहीं उपलब्ध होती हैं। जैसे-भांप बनने की स्थिति आने तक पानी की डिग्री हो सकती है। अज्ञान की डिग्रियां होती हैं, ज्ञान की कोई डिग्री नहीं होती। हालांकि हम सब ज्ञान की डिग्रियां देते हैं, एक आदमी कम अज्ञानी, एक आदमी ज्यादा अज्ञानी, यह सार्थक है। लेकिन एक आदमी कम ज्ञानी, एक आदमी ज्यादा ज्ञानी, यह बिल्कुल असंगत-निरर्थक बात है। कम-ज्यादा ज्ञान होता ही नहीं। हां अज्ञान कम ज्यादा हो सकता है। दो अज्ञानियों में भी ज्ञान का फर्क नहीं होता है। एक के पास सूचनाओं का ढेर है, एक के पास सूचनाओं का ढेर नहीं है।
एक ज्यादा अज्ञानी है, यह कम अज्ञानी है यह भी तौल सही नहीं है। ज्ञान आता है तो बस आता है। जैसे आंख खुल जाये और प्रकाश दिख जाये, जैसे दिया जल जाये और प्रकाश मिट जाये। ज्ञानी कभी छोटे-बड़े नहीं होते। कोई कहता कबीर बड़ा कि नानक, महावीर बड़े कि बुद्ध, राम बड़े कि कृष्ण, कृष्ण बड़े कि मुहम्मद। इस तरह बड़े-छोटे का हिसाब लगाते हैं, अपने दिमाग से वास्तव में जहां से आये हैं, या जायेंगे-वहां कोई बड़ा या छोटा नहीं होता है। भगवान के नियमों में शैतान फेरबदल या गड़बड़ करता है। बड़ा या छोटा पत्थर गिराते हैं, जमीन पर कशिश के कारण। मूल्य है कशिश का जो भगवान ने सबके लिए बराबर निर्धारित किया है।
जिस दिन व्यक्ति विचार से निर्विचार में कूद जाता है, उसके बाद फिर कोई छोटा बड़ा नहीं रहता है। कोई कमजोर नहीं है, कोई ताकतवर नहीं है। एक बार निर्विचार में आने पर फिर जो जीवन की, अस्तित्व की परमशक्ति खींच लेती है, एक साथ। जब तक हम नहीं कूदे हैं, तब तक के हमारे मतभेद हैं। जिस दिन हम कूद गये उस दिन कोई भेद भाव नहीं है। महावीर जी ने जो छलांग लगाई है, वही कृष्ण की है, वही क्राइस्ट की है। उसमें कोई अंतर नहीं है।ण् इसलिए कोई विकास अहिंसा में कभी नहीं होगा। महावीर ने कोई विकास किया है, उस भूल में भी नहीं पड़ना चाहिए। वह अनुभव नहीं है मगर उस अनुभव की अभिव्यक्ति में भेद है।
महावीर के पहले भी लोगों ने आंखें खोलीं और प्रकाश देखा। और मैं भी आंख खोलूंगा तो प्रकाश देखूंगा। आंख खुलती है तो प्रकाश दिखता है। कोई विकास नहीं हुआ है। कोई विकास हो ही नहीं सकता। कुछ चीजें हैं जिनमें विकास होता है। परिवर्तनशील जगत में विकास होता है। शाश्वत, सनातन, अंतरात्मा के जगत में कोई विकास नहीं होता। वहां जो जाता है, परम अंतिम में पहुंच जाता है। वहां कोई विकास नहीं, कोई आगे नहीं, कोई पीछे नहीं। वहां सब पूर्णता के निकट होने से, पूर्ण में होने से कोई विकास नहीं होता। परमात्मा से मतलब समग्र जीवन के अस्तित्व का है। वहां विकास का कोई अर्थ नहीं।
कबीर ने एक पंक्ति से समझाया है कि, चलती हुई चक्की को देखकर कबीर रोने लगे। और उन्होंने लौटकर अपने मित्रों से कहा कि मुझे बड़ा दुख हुआ। दो पाटों के बीच में जो पड़ जाता है वह चूर-चूर हो जाता है। उदाहरणतया एक कील भी है, जो चाकों के बीच में और जो उसका सहारा ले लेता है वह कभी चूर-चूर नहीं होता। उस पूरे अस्तित्व के विकास चक्र के बीच में बैलगाड़ी की एक कील की तरह है। उस कील को कोई परमात्मा कहे, धर्म कहे, आत्मा कहे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। जो उस कील के निकट पहुंच जाता है वह उतना ही चाकों से बाहर हो जाता है। बैलगाड़ी के कील के तल पर कोई गति नहीं है।
सब गति उसी पर ठहरी हुई है। महावीर जैसे व्यक्ति उस कील के निकट पहुंच गये हैं- जहां कोई लहर भी नहीं उठती, जहां कभी विकास नहीं होता। जहां गति नहीं, वहां कोई विकास नहीं। महावीर के अंतरंग में समभाव एवं अप्रतिक्रिया योग ! हम सबके मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि भिन्न-भिन्न अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में महावीर जैसे व्यक्ति की चित्त दशा क्या होगी? उसका कोई उल्लेख तो नहीं है परंतु बहुत गहरा और बुनियादी कारण है। महावीर जैसी चेतना की अभिव्यक्ति में परिस्थितियों से कोई भेद नहीं पड़ता इसलिए विभिन्न परिस्थितियां कहने का कोई अर्थ नहीं है।
प्रतिकूल-अनुकूल में उनका चित्त समान है परंतु प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति में हम सभी का चित्त रूपान्तरित होता है। जैसी स्थिति होती है वैसा चित्त हो जाता है। स्थिति दुख की होती है तो उन्हें दुखी होना पड़ता है सुख की होती है तो सुखी होना पड़ता है। सिर्फ बाहर की स्थिति जो मौका दे देती है चित्त वैसा हो जाता है। महावीर के आंतरिक चित्त (मन) में क्या हो रहा होगा? जब किसी दिन बहुत शिष्य इकट्ठे होंगे। किसी दिन कोई नहीं आया होगा, अकेले होंगे तो महावीर का मन कैसा हुआ होगा।
किसी दिन सम्राट आये होंगे सुनने और चरणों में लाखों रुपये रखे होंगे और किसी दिन कोई भिखारी आया होगा और उसने कुछ नहीं रखा होगा तो महावीर का मन कैसा होगा? किसी गांव में स्वागत समारोह हुए होंगे, फूल मालायें चढ़ी होंगी और किसी गांव मंे पत्थर फेंके गए होंगे, और गांव के बाहर खदेड़ दिया गया होगा, तो महावीर का मन कैसा हुआ होगा? यानि इन स्थितियों में महावीर के भीतर क्या होता है? असल में महावीर होने का मतलब ही यह है कि भीतर अब कुछ भी नहीं होता है। जो होता है वह सब बाहर होता है। यही महावीर होने का अर्थ है, क्राइस्ट होने का अर्थ है, यही बुद्ध होने का अर्थ है, यही कृष्ण होने का अर्थ है कि भीतर अब कुछ भी नहीं होता।
भीतर बिल्कुल अछूता छूट जाता है। जैसे एक दर्पण है और उसके सामने से कोई निकलता है। जैसा व्यक्ति है- सुंदर या कुरूप - वैसी तस्वीर बन जाती है। व्यक्ति निकल गया, तस्वीर मिट गई, दर्पण रह जाता है। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि दर्पण सुंदर व्यक्ति को कुछ ज्यादा रस में झलकाये, कुरूप को कम रस में झलकाये। सुंदर है कि कुरूप है, कौन गुजरता है सामने से, दर्पण का काम है झलका देना। अर्थात् दर्पण की घटनाएं सब बाहर ही घटती हैं, भीतर नहीं घटतीं। जैसे फोटो प्लेट में भीतर घटना घट जाती है।