मनुष्य के जीवन में अध्ययन का विशेष महत्व है। अध्ययन की विशेषता यह है कि यह बुद्धि के कोष को ज्ञान से युक्त करता है। ज्ञान व्यक्ति को सद् एवं असद् में जो भिन्नता है, उससे परिचित कराता है। वास्तुशास्त्र के आर्षग्रंथों में वृहत् संहिता के बाद वशिष्ठ संहिता की भी बड़ी मान्यता है तथा दक्षिण भारत के वास्तुशास्त्री इसे ही प्रमुख रूप से मानते हैं। इस संहिता ग्रंथ के अनुसार वास्तुशास्त्र में विशेष स्थिति में बैठकर अध्ययन करने का दिशा निर्देश दिया गया है।
वशिष्ठ संहिता के अनुसार ‘‘राक्षसाम्बुपयोर्मध्ये विद्याभ्यासस्य मंदिरम्’’ अर्थात अध्ययन कक्ष निऋति से वरुण के मध्य होना चाहिए। वास्तुमंडल पर दृष्टिपात करें, तो निऋति एवं वरुण के मध्य दौवारिक एवं सुग्रीव के पद होते हैं। दौवारिक का शाब्दिक अर्थ है पहरेदार तथा सुग्रीव का अर्थ है सुंदर ग्रीवा या सुंदर कंठ वाला। दौवारिक की प्रकृति चुस्त एवं चैकन्नी होती है। उसमें आलस्य नहीं होता है।
अतः दौवारिक पद पर अध्ययन कक्ष के निर्माण से विद्यार्थी चुस्त एवं चैकन्ना रह कर अध्ययन कर सकता है तथा क्षेत्र विशेष में सफलता प्राप्त कर सकता है। निरंतरता से किया गया अध्ययन ज्ञान के कोष में वृद्धि करता है। ज्ञान कोष का समय-समय पर प्रयोग करने के लिए सुंदर अभीव्यक्ति की आवश्यकता होती है अन्यथा ज्ञान व्यर्थ चला जाता है। ज्ञान की सुंदर प्रस्तुति में सुग्रीव की भूमिका महत्वपूर्ण है। इस प्रकार देखा जाए तो दौवारिक एवं सुग्रीव एक दूसरे के पूरक हैं। इन पदों की इन विशेषताओं के कारण ही वास्तुशास्त्र के आचार्यों ने इस स्थान को अध्ययन कक्ष के निर्माण के लिए प्रशस्त माना।
पश्चिम दिशा और नैर्ऋत्य कोण के बीच का भाग अध्ययन कक्ष के लिए प्रशस्त मानने के पीछे एक कारण यह भी है कि यह क्षेत्र बृहस्पति, बुध तथा चंद्र के प्रभाव क्षेत्र में आता है। बुध बुद्धि प्रदान करने वाला तथा बृहस्पति ज्ञान पिपासा को बढ़ाकर विद्या प्रदान करने वाला ग्रह है। चंद्र मस्तिष्क को शीतलता प्रदान करता है। अतः इस स्थान पर विद्याभ्यास एवं अध्ययन करने से निश्चय ही सफलता प्राप्त होती है।
अध्ययन कक्ष की आंतरिक संरचना करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए- ू अध्ययन कक्ष का द्वार पूर्व या उŸार की ओर होना चाहिए। परंतु आग्नेय, नैर्ऋत्य या वायव्य कोण में नहीं होना चाहिए। ू कक्ष की खिड़कियां भी उŸार, पूर्व या पश्चिम में होनी चाहिए। ू अध्ययन कक्ष में अलमारियों का निर्माण कक्ष की दक्षिण व पश्चिम की दीवारों पर करवाना चाहिए।
अध्ययन कक्ष में मेज इस प्रकार लगाएं कि विद्यार्थी उŸार या पूर्व की ओर मुंह करके पढ़ने बैठे। ू अध्ययन कक्ष के ईशान कोण में पूर्व की ओर इष्टदेव की छोटी मूर्ति या चित्र रखना शुभ होता है। पीने का पानी भी इसी कोने में रखा जा सकता है। ू अध्ययन कक्ष की दीवारों, फर्नीचर, परदों आदि का रंग हलका नीला या हरा, बादामी या सफेद होना शुभ होता है। बादामी रंग प्रतिभावर्धक होता है। हलका नीला या हरा रंग आध्यात्मिक व मानसिक शांति प्रदान करता है।
इन रंगों के प्रभाव से नेत्रों एवं मस्तिष्क को शीतलता भी प्राप्त होती है। वास्तुसम्मत अध्ययन कक्ष की स्थिति तथा आंतरिक संरचना विद्यार्थी को सरलता से सफलता का मार्ग प्रदान करती है। वर्तमान समय में समय के प्रभाववश हमारा विद्यार्थी वर्ग परेशान है, प्रतियोगिता में अतिशीघ्र लक्ष्य प्राप्त कर लेना चाहता है। ऐसे में पश्चिम में निर्मित अध्ययन कक्ष विद्यार्थी की मनोकामना की पूर्ति में सहायता कर सकता है।
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