1. विषय प्रवेश हमारे वेदों और पुराणों में भारत की सत्य और शाश्वत आत्मा निहित है और इन्हें समझे बगैर भारतीय परम्परा एवं दृष्टिकोण को समझना सम्भव भी नहीं है। शास्त्रों में ज्योतिष को वेदों के नेत्र (ज्योतिषम् वेदानां चक्षु) की संज्ञा प्राप्त है और प्राचीन समय से ही ज्योतिषीय ज्ञान द्वारा मानव की सेवा की जाती रही है। समय के साथ-साथ इसकी अलग-अलग शाखाएं निकलती रहीं, जैसे सामुद्रिक विज्ञान, वास्तु शास्त्र, अंक विज्ञान, टैरो आदि। सभी का लक्ष्य जन-साधारण की सेवा ही है, जिससे मानव आने वाले समय की संभावनाओं को जान कर स्वयं को प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने के लिये सबल एवं सक्षम बना सके और जीवन के लक्ष्य की ओर निरंतर अग्रसर होने से न भटके। जीवन का लक्ष्य क्या है और उसे प्राप्त करने की ओर अग्रसर होने में ज्योतिष कैसे सहायक होता है, इसी की चर्चा हम इस लेख में करेंगे।
2. जन्म चक्र और कर्म बंधन सर्वप्रथम, हम जीवन आधार को समझने का प्रयास करते हैं। इससे जीवन आध् ाार और जीवन लक्ष्य पर पड़ी धूमिलता की परत साफ हो जायेगी। गीता के अध्याय 2.13 में भगवान कृष्ण कहते हैं कि जिस प्रकार जीवात्मा इस स्थूल शरीर में क्रमशः कुमार, यौवन और वृद्धावस्था प्राप्त करता है, ठीक उसी प्रकार मरणोपरांत जीवात्मा को अन्य शरीर प्राप्त होता है। धीर व्यक्ति इस जीवन या शरीर के विषय से मोहित नहीं होते। अर्थात, हिन्दू वैदिक शास्त्रों में पूर्वजन्म-जन्म-पुनर्जन्म चक्र को पूर्ण मान्यता प्राप्त है जिसका आधार कर्म है। ज्योतिष का आधार भी कर्म सिद्धांत ही है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य को शरीर अपने पूर्व जन्मों के संचित कर्मों के आधार पर और कर्म फलों को भोगने के लिये ही मिलता है। जितना फल हमें इस जन्म में भोगना है उसी के आधार पर हमें शरीर, वंश और वातावरण प्राप्त होता है। यही हमारा इस जन्म का भाग्य या प्रारब्ध भी है जो हमारी जन्म कुंडली में ग्रह-स्थिति द्वारा अंकित होता है।
3. जीवन लक्ष्य जीवन का आधार कर्म है और उद्देश्य ऋण से उऋण (मुक्त) होना है। श्री भागवतम् के प्रथम स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के अनुसार भोग विलास का फल इन्द्रियों को तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवन निर्वाह। जीवन का फल भी तत्व जिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है। सोचिये कि अगर कोई आधार और लक्ष्य ही न हो तो ज्योतिषीय गणना और शास्त्रों की क्या आवश्यकता है? अधिकांशतः लोग ज्योतिषीय ज्ञान प्राप्त करते-करते केवल भविष्यवक्ता या दोष-सुधारक की भूमिका ही निभाते रह जाते हैं और अंतिम सत्य की ओर कदम नहीं बढ़ाते या फिर जातकों को उस ओर जाने की प्रेरणा नहीं दे पाते जबकि अंतिम सत्य तक पहुंचना बेशक कठिन हो पर उस ओर एक कदम बढ़ाना इतना कठिन नहीं। गीता में मोक्ष प्राप्ति को ही जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य बताया है। मोक्ष से तात्पर्य है जीवन रूपी चक्र से मुक्ति प्राप्त करना अर्थात भगवान से अपने वास्तविक सम्बन्ध को जान कर उसे पुनर्जीवित करना। उसके लिये कर्म बंधन से मुक्त होना होगा। कर्म बंधन किस प्रकार उत्पन्न होते हैं और किस प्रकार हमें बाँध लेते हैं, इसे लेख में दिये गये चित्र द्वारा समझें। गीता के अध्याय 5.15 में कहा है कि अविद्या (अज्ञान) द्वारा जीव का स्वाभाविक ज्ञान ढंका हुआ है (जिस प्रकार शीशे पर धूल की परत हो तो व्यक्ति स्वयं को पहचान भी नहीं सकता) और इसी अज्ञान से समस्त जीव मोहित हो रहे हैं। उपरोक्त चित्र के प्रथम वर्ग में इस जन्म से पूर्व जन्मों का चक्र दर्शाया गया है। अर्थात, जन्म के उपरान्त अज्ञानवश क्रियमाण कर्म करते-करते मानव की इच्छाएं और अपेक्षाएं उत्पन्न होती रहती हैं, जिनमें मानव आसक्त हो जाता है और इसी कारणवश कर्मों के बंधन से बंधता चला जाता है। कर्मों के फलों को भोगने के लिये मानव बाध्य है। इस प्रकार जन्म-जन्मान्तर से भोगने वाले कर्मों का पैकेट (चित्र में बड़ा गोला) बढ़ता ही रहता है। उस बड़े गोले का एक छोटा हिस्सा हमें इस जन्म में (चित्र का छोटा गोला) भाग्य के रूप में भोगने के लिये मिलता है। भोग्य फलों के अनुसार ही जीवात्मा कोई शरीर धारण करती है। प्रारब्ध अनुसार ही हमें शरीर, वंश और वातावरण मिलता है। इस जन्म में फिर से वही चक्र चलता है और इस प्रकार यह जन्म-जन्मान्तरों का चक्र चलता ही रहता है। संभवतः चैरासी लाख योनियों के जिक्र का तात्पर्य भी कभी न खत्म होने वाले चक्र से ही होगा।
4. मुक्ति मार्ग यह सब कुछ-कुछ समझ में आने के बाद एक निराशावादी प्रश्न का मन में आना संभव है कि न जाने कितने जन्मों से कर्मों का संचय हो रहा है जिनका फल हमें अभी भोगना होगा। संभवतः उसका आकार हिमालय पर्वत से भी प्रचंड होगा, अर्थात हम इस चक्र रूपी भँवर से तो कभी निकल ही नहीं सकते। इसके अतिरिक्त, कर्म तो हम इस जीवन में भी प्रति क्षण कर ही रहे हैं और उनमें से कुछ उस प्रचंड पहाड़ का आकार और बढ़ा देंगे। सामान्यतः मानव को उन्हीं कर्मों के फल को भोगना होता है जिसके निर्णय में मन, बुद्धि और अहंकार ने योगदान दिया हो। तभी तो कहते हंै “भगवान् सब देखता है” क्योंकि हमारे अन्दर की जीवात्मा ही तो परमात्मा का अंश है और फिर स्वयं से छिपा कर कोई कर्म कैसे करोगे? अर्थात, भविष्य का निर्माण तो हम स्वयं ही करते हैं और हर पल करते हैं। आपके उपरोक्त प्रश्न का उत्तर भी शास्त्रों ने दिखाया है। जिस प्रकार अनेक सूखी लकड़ियाँ एक छोटी सी चिंगारी से धू-धू करके तुरंत भस्म हो जाती हैं, ठीक उसी प्रकार इस जन्म चक्र को तोड़ने के लिये और पूर्व संचित अप्रारब्ध को तुरंत भस्म करने के लिये ज्ञान रुपी दिव्य अग्नि की आवश्यकता है। गीता के अध्याय 9.27 और 9.28 में कहा है कि तुम जो भी कर्म (भोजन, दान, आर्थिक कार्य यानि सभी कार्य) का अनुष्ठान करते हो, जो भी तप करते हो वह मुझे समर्पित करते हुए करो। इस प्रकार शुभ-अशुभ फल के बंधन से मुक्त हो जाओगे। मुक्ति और मोक्ष पर्यायवाची हैं। जीवन चक्र से आत्मा की मुक्ति और आत्मा का परमात्मा को प्राप्त कर लेना ही मोक्ष प्राप्ति है। श्री भागवतम के प्रथम स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कर्मों की गाँठ बहुत मजबूत है और ज्ञानी पुरुष भगवान के चिंतन की तलवार से उस गाँठ को काट डालते हैं। शास्त्रों और गीता के उपदेशों से सीख लेकर हमें प्रत्येक कर्म को प्रभु को समर्पित करते हुए ही करना है। इस सन्दर्भ में गीता के द्वितीय अध्याय के 2.47 का श्लोक तो सभी को ज्ञात हैं: अर्थात, मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करना मात्र है और फल पर कोई अध् िाकार नहीं. न तो मनुष्य को स्वयं को कर्ता मानना चाहिये और न ही कर्म न करने के लिए आसक्त होना चाहिये।
5. निष्कर्ष निष्कर्ष यह है कि ज्ञान (जीवन का आधार, लक्ष्य और कर्म सिद्धांत को जानकर उस पर अमल करना) से ही मानव, जीवन चक्र से मुक्त हो सकता है। इस मार्ग पर हमारे कार्य एवं वातावरण बाधक हो सकते हंै जिससे निपटने के लिये ज्योतिष हमें आने वाली संभावनाओं से सचेत करता है और हम उनका वहन और सामना करने के लिये स्वयं को सबल एवं सक्षम बनाते हैं और अपने मुक्ति-पथ पर निरंतर चल सकते हैं। इसके साथ-साथ ज्योतिष द्वारा हम कर्मों के सिद्धांत को भी अच्छी प्रकार समझ पाते हैं और अपने जीवन लक्ष्य की ओर निरंतर अग्रसर होते रहते हैं। इसमें ज्योतिष एवं उसकी सभी शाखाएं अपनी-अपनी सराहनीय भूमिका अदा कर रही हैं।