प्रत्येक मांगलिक कार्य में श्रीगणपति का प्रथम पूूजन होता है। पूजन की थाली में मंगलस्वरूप श्रीगणपति का स्वस्तिक-चिह्न बनाकर उसके ओर-छोर अर्थात् अगल-बगल में दो-दो खड़ी रेखाएं बना देते हैं। स्वस्तिक-चिह्न श्रीगणपति का स्वरूप है और दो-दो रेखाएं श्रीगणपति की भार्यास्वरूपा ऋद्धि-सिद्धि-बुद्धि एवं पुत्र स्वरूप लाभ और क्षेम हैं। श्रीगणपति का बीज मंत्र है- अनुस्वारयुक्त ‘ग’, अर्थात् ‘गं’। इसी ‘गं’ बीज मंत्र की चार संख्या को मिलाकर एक कर देने से स्वस्तिक-चिह्न बन जाता है। इस चिह्न में चार बीज मंत्रों का संयुक्त होना श्रीगणपति की जन्मतिथि चतुर्थी का द्योतक है। चतुर्थी तिथि में जन्म लेने का तात्पर्य यह है कि श्रीगणपति बुद्धिप्रदाता हैं; अतः जागृत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय-इन चार अवस्थाओं में चैथी अवस्था ही ज्ञानावस्था है। इस कारण बुद्धि (ज्ञान) प्रदान करने वाले श्रीगणपति का जन्म चतुर्थी तिथि में होना युक्ति संगत ही है। श्रीगणपति का पूजन सिद्धि, बुद्धि, लाभ और क्षेम प्रदान करता है, यही भाव इस चिह्न के आस-पास दो-दो खड़ी रेखाओं का है। इस प्रकार मंगलमूर्ति श्रीगणेश स्वरूप का प्रत्येक अंग किसी न किसी विशेषता (रहस्य) को लिये हुए है।
उनका बौना (ठिंगना) रूप इस बात का द्योतक है कि जो व्यक्ति अपने कार्यक्षेत्र में श्रीगणपति का पूजन कर कार्य प्रारंभ करता है, उसे श्रीगणपति के इस ठिगने कद से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि समाजसेवी पुरुष सरलता, नम्रता आदि सद्गुणों के साथ अपने-आपको छोटा (लघु) मानता हुआ चले, जिससे उसके अंदर अभिमान के अंकुर उत्पन्न न हों। ऐसा व्यक्ति ही अपने कार्य में निर्विघ्नतापूर्वक सफलता प्राप्त कर सकता है। श्रीगणपति ‘गजेंद्रवदन’ हैं। भगवान् शंकर ने कुपित होकर इनका मस्तक काट दिया और फिर प्रसन्न होने पर हाथी का मस्तक जोड़ दिया, ऐसा ऐतिहासिक वर्णन है। हाथी का मस्तक लगाने का तात्पर्य यही है कि श्रीगणपति बुद्धिप्रद हैं। मस्तक ही बुद्धि (विचार शक्ति) का प्रधान केंद्र है। हाथी में बुद्धि, धैर्य एवं गाम्भीर्य का प्राधान्य है। वह अन्य पशुओं की भांति खाद्य पदार्थ को देख पूंछ हिलाकर अथवा खूंटा उखाड़कर नहीं टूट पड़ता; किंतु धीरता एवं गंभीरता के साथ उसे ग्रहण करता है। उसके कान बड़े होते हैं। इसी प्रकार साधक को भी चाहिए कि वह सुन सबकी ले, पर उसके ऊपर धीरता एवं गंभीरता के साथ विचार करे। ऐसे व्यक्ति ही कार्यक्षेत्र में आगे बढ़कर सफलता प्राप्त कर सकते हैं। श्रीगणपति ‘लम्बोदर’ हैं।
उनकी आराधना से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मानव का पेट मोटा होना चाहिए अर्थात् वह सबकी भली-बुरी सुनकर अपने पेट में रख ले; इधर-उधर प्रकाशित न करे। समय आने पर ही यदि आवश्यक हो तो उसका उपयोग करे। श्रीगणपति का ‘एकदन्त’ एकता (संगठन) का उपदेश दे रहा है। लोक में ऐसी कहावत भी प्रसिद्ध है कि अमुक व्यक्तियों में बड़ी एका है- ‘एक दांत से रोटी खाते हैं इस प्रकार श्रीगणपति की आराधना हमें एकता की शिक्षा दे रही है। यही अभिप्राय उनको मोदक (लड्डू)’ के भोग लगाने का है। अलग-अलग बिखरी हुई बूंदी के समुदाय को एकत्र करके मोदक के रूप में भोग लगाया जाता है। व्यक्तियों का सुसंगठित समाज जितना कार्य कर सकता है, उतना एक व्यक्ति से नहीं हो पाता। श्री गणपति का मुख-मोदक हमें यही शिक्षा देता है। श्रीगणपति को सिन्दूर धारण कराने का यह अभिप्राय है कि सिन्दूर सौभाग्य सूचक एवं मांगलिक द्रव्य है। अतः मंगलमूर्ति श्रीगणेश को मांगलिक द्रव्य समर्पित करना युक्ति-संगत ही है। दूर्बांकुर चढ़ाने का तात्पर्य यह है- गज को दूर्बा प्रिय है। दूसरे, दूर्बा में नम्रता एवं सरलता भी है। श्रीगुरु नानक साहब कहते हैं- नानक नन्हें बनि रहो, जैसी नन्ही दूब।सबै घास जरि जायगी, दूब खूब-की-खूब।।
श्रीगणपति की आराधना करने वाले भक्तजनों के कुल की दूर्बा की भांति अभिवृद्धि होकर उन्हें स्थायी सुख-सौभाग्य की सम्प्राप्ति होती है। श्रीगणपति के चूहे की सवारी क्यों? इसका तात्पर्य यह है कि मूषक का स्वभाव है- वस्तु को काट देने का। वह यह नहीं देखता कि वस्तु नयी है या पुरानी-बिना कारण ही उन्हें काट डालता है। इसी प्रकार कुतर्की जन भी यह नहीं सोचते कि प्रसंग कितना सुंदर और हितकर है। वे स्वभाववश चूहे की भांति उसे काट डालने की चेष्टा करेंगे। प्रबल बुद्धि का साम्राज्य आते ही कुतर्क दब जाता है। श्रीगणपति बुद्धिप्रद हैं; अतः उन्होंने कुतर्करूपी मूषक को वाहन रूप से अपने नीचे दबा रखा है। इस प्रकार हमें श्रीगणपति के प्रत्येक श्री अंग से सुंदर शिक्षा मिलती है। गणेश जी की उत्पति के संबंध में अनेकों मत उपलब्ध होते हैं। संक्षेप में यहां उन सभी का दिग्दर्शन कराया जा रहा है।
Û वैखानसागम में गणेशोत्पŸिा की दार्शनिक व्याख्या की गयी है। इसके अनुसार ‘अहंकार-तŸव’ से आकाश की उत्पŸिा होती है और यह आकश-तŸव ही ‘गणेश’ है। आकाश सर्वाधार है, अतः गणेश जी भी सर्वाधार हैं। आकाश या उसकी शब्द-तन्मात्रा ही ‘गणेश’ हैं। आकश तत्व से ही सभी तत्व समुत्पन्न होते हैं और अन्ततः सभी उसी में विलीन हो जाते हैं, अतः आकाश में रूप-तन्मात्रा एवं अग्नि-तत्व, रस-तन्मात्रा एवं जल-तत्व, स्पर्श-तन्मात्रा एवं वायु-तत्व, वायु-तन्मात्रा एवं पृथ्वी-तत्व-विश्व के समस्त मूलभूत उपादान निहित रहते हैं। इसीलिए आकाश सर्वाधार है। आकाश-तत्व है, अतः गणेश-तत्व में विश्वोपादान के सभी तत्व एवं उनकी समस्त सूक्ष्म तन्मात्राएं भी सूक्ष्म रूप में अवस्थित हैं। गणेश ही अनत ब्रह्मांडों के अधिष्ठाता देवता हैं। उपनिषदों में ‘त्वं ब्रह्म’ (आकाश ब्रह्म है) कहकर आकाश की ब्रह्मरूपता सिद्ध की गयी है; अतः आकाशस्वरूप होने से गणेश जी भी निष्फल, निरंजन, निर्गुण, निराकार, अनवद्य, अद्वैत, अज, अखंड एवं अभेद परब्रह्म हैं। वैखानसागम में ही दूसरे स्थल पर आकाश को ‘गणाधिपति’ कहा गया है और यह भी उपर्युक्त तथ्यों की सम्पुष्टि करता है। सांख्यशास्त्र के अनुसार पुरुष एवं प्रकृति (शिव एवं पार्वती) (मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्। श्वेताश्वर 4।10) के संयोग से ही ‘महŸात्व’ की उत्पŸिा होती है और ‘अहंकार-तत्व’ से आकाशादि के तत्वों की।
Û तांत्रिक विद्वानों की दृष्टि में मूलाधार में अवस्थित शक्ति (कुल-कुण्डलिनी के अतिरिक्त) का नाम ‘गणेश’ है। वे मूलाधार-शक्ति को ही गणेश-तत्व भी मानते हैं।
Û मत्स्य पुराण में एक उपाख्यान है कि पार्वती जी ने अपने शरीर के अंग लेप से एक क्रीडनक निर्मित किया। इसके सिर की आकृति गज के सदृश थी। उन्होंने उसे लाकर गंगाजल से जैसे ही उसका अभिषेक किया, वैसे ही वह प्राणवान् हो गया। उसे पार्वती एवं गंगा-दोनों ने अपना पुत्र माना। यही पुत्र ‘गणेश’ के नाम से विख्यात हुआ।
Û लिंग पुराण के अनुसार देवों ने भगवान् शिव से अनुरोध किया कि ‘आप किसी एक ऐसी शक्ति का प्रादुर्भाव करें, जो कि सभी प्रकार के विघ्नों का निवारण किया करे। देवों की इस प्रार्थना के अनुसार भगवान् शिव ने स्वयं ही ‘गणेश’ के रूप में जन्म ग्रहण किया। इस पुराण में गणेश जी का भगवान् शिव के साथ तादात्म्य दिखाते हुए उनकी समस्त उपाधियों, विशेषताओं, अभिधानों एवं विशिष्ट सामान्य लक्षणों का प्रयोग भी गणेश जी के लिए किया गया है। इसके साथ ही साथ शिव तथा गणेश-दोनों में अभिन्नता सिद्ध करने के लिए भगवान् शिव में गणेश जी की भी विशेषताओं एवं लक्षणों को आरोपित किया गया है। ‘वायु पुराण में भगवान् शिव को ‘गजेन्द्रकर्ण’, लम्बोदर’, ‘दंष्ट्रिन्’ (वा. पु. 24।147। 30। 183) आदि कहकर इसी तथ्य की पुष्टि की गयी है। ‘ब्रह्मपुराण’ में भी गणेशजी की उपाधियों का भगवान् शिव के लिए उपयोग करके दोनों में पूर्ण अभिन्नता का प्रतिपादन किया गया है।
Û ‘तैŸिारीय ब्राह्मण’ में गणेश जी के वाहन को भगवान् शिव का भी वाहन कहकर तथा ‘सौर पुराण’ में गणेश जी को साक्षात् शिव ही कहकर यह सिद्ध करने की चेष्टा की गयी है कि श्रीगणेश एवं भगवान् शिव दोनों एक ही हैं।
Û ‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’ के मतानुसार गणेशजी का श्रीविष्णु के साथ तादात्म्य है। भगवान् विष्णु शिवजी से कहते हैं कि ‘पार्वती जी से एक पुत्र होगा, जो समस्त विघ्नों का नाश करेगा।’ इतना कहकर भगवान् विष्णु एक बालक का रूप धारण करके शिव के आश्रम में गये। वे पार्वती जी की शय्या पर बालक रूप में लेट गये। पार्वती जी ने उन्हें अपना पुत्र माना। यही पुत्र ‘गणेशजी’ के नाम से लोकविश्रुत हुआ।
Û ‘शिव पुराण’ के अनुसार पार्वती जी ने अपने शरीर के अनुलेप से एक मानवाकृति निर्मित की और उसे आज्ञापित किया कि ‘मैं स्नान करने जा रही हूं। जब तक मैं नहीं कहूं, तब तक तुम घर के अंदर किसी को मत आने देना। तुम गृह द्वार पर पहरा दो।’ यही गृहद्वार-रक्षक शक्ति ‘गणेश’ के नाम से अभिहित हुई और इन्हीं के साथ भगवान् शिव का संग्राम हुआ।
Û गणेश-सम्प्रदाय एवं गणेश पुराण में भगवान् गणपति को ‘महाविष्णु’ एवं ‘सदाशिव’ कहा गया है और उन्हें साक्षात् परात्पर ब्रह्म माना गया है। वे ही प्र्रपंच की सृष्टि और स्थिति संहार के आदिकारण हैं। उन्हीं से ब्रह्मा-विष्णु-महेश का प्रादुर्भाव हुआ है।