विघ्नहर्ता श्रीगणेश
विघ्नहर्ता श्रीगणेश

विघ्नहर्ता श्रीगणेश  

व्यूस : 6905 | सितम्बर 2013
आनंदरूप करूणाकर विश्वबन्धो संतापचन्द्र भववारिधिभद्रसेतो। हे विघ्नमृत्युदलनामृतसौख्यसिन्धो श्रीमन् विनायक तवाङ्घ्रियुगं नताः स्मः।। यस्मिन्न् जीवजगदादिकमोहजालं यस्मिन्न् जन्ममरणादिभयं समग्रम्। यस्मिन् सुखैकघनभूम्नि न दुःखमीषत् तद् ब्रह्म मङ्गलपदं तव संश्रयामः।। भगवान् श्रीगणेश परम सम्माननीय देवता हं। वे साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं। भगवान् श्रीगणेश को प्रसन्न किये बिना कल्याण सम्भव नहीं। भले ही आपके इष्टदेव भगवान् श्रीविष्णु अथवा भगवान् श्रीशंकर अथवा पराम्बा श्रीदुर्गा हैं, इन सभी देवी-देवताओं की उपासना की निर्विघ्न सम्पन्नता के लिये विघ्न विनाशक श्रीगणेश का स्मरण आवश्यक है। भगवान् श्रीगणेश की यह बड़ी अद्भुत विशेषता है कि उनका स्मरण करते ही सब विघ्न-बाधाएं दूर हो जाती हैं और सब कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाते हैं। लोक-परलोक में सर्वत्र सफलता पाने का एकमात्र उपाय है कि कार्य प्रारम्भ करने से पहले भगवान् श्रीगणेश का स्मरण-पूजन अवश्य करें। यदि सुख-शांति चाहते हैं तो भगवान् श्रीगणेश की शरण लं तभी कल्याण होगा। आनंद-स्वरूप श्रीमन् विनायक ! आप करुणा की निधि एवं संपूर्ण जगत् के बंधु हैं, शोक संताप का शमन करने के लिये परमादक चंद्रमा हैं, भव-सागर से पार होने के लिये कल्याणकारी सेतु हैं तथा विघ्नरूपी मुत्यु का नाश करने के लिये अमृतमय सौख्य के सागर हैं; हम आपके युगल - चरणों में प्रणाम करते हैं। जिसमें जीव-जगत् इत्यादि मोहजाल का पूर्णतः अभाव है; जहां जन्म-मरण आदि का सारा भय सर्वथा है ही नहीं; जिस अद्वितीय आनंदघन भूमि में किंचिन्मात्र भी दुःख नहीं है, उस ब्रह्मस्वरूप आपके मंगलमय चरण की हम शरण लेते हैं। वेदों, उपनिषदों, पुराणों तथा महाभारत में श्रीगणेश का व्यास-समास रूप से वर्णन आया है। यजुर्वेद में इस देवता को गणपति, प्रियपति एवं निधिपति के रूप में आहूत किया गया है। ये प्रथम पूज्य हैं, गणेश हैं, विघ्नेश हैं, साथ ही विद्या-वारिधि और बुद्धि-विधाता भी हैं । पार्वतीनन्दन हेरम्ब और स्कन्द-दोनों ही क्रमशः गणपति एवं सेनापति हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपति-खण्ड में इन्हें अयोनिज कहा गया है। इनके कई नाम हैं। एक नाम है - विनायक। विनायक का अर्थ है (वि= विशिष्ट तथा नायक= नेता)- विशिष्ट नेता। गणपति, प्रियपति तथा निधिपति कहने में वेद का तात्पर्य बड़ा ही गूढ़ प्रतीत होता है। इनका स्वरूप अतिशय विलक्षण है। ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’- न्याय के अनुसार हमारे वेदों में स्पष्ट कर दिया है कि मूल तत्त्व एक ही है। जीवधारियों का अन्तर्यामी परमेश्वर एक है। उसमें किसी प्रकार का कोई भेद नहीं, तथापि प्राणियों के अनुरूप ही उसकी महिमा इतनी ही (अर्थात् सीमित) नहीं है, वह इससे भी बहुत अधिक और विलक्षण है। जो सर्वशक्तिमान् पूर्ण ब्रह्म अग्नि के भीतर है, जो जल में है, जो सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों में अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट है, जो औषधियों में है, वनस्पतियों में है, जो सर्वत्र परिपूर्ण है, जिसका नानाविध वर्णन हुआ है, उसे नमस्कार है।’ ‘गणपत्युपनिषद्’ में लिखा है- आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृतेः पुरुषात् परम्। एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः।। ‘जो इस सृष्टि के आदि में आविर्भूत हैं- प्रकट हुए हैं, जो प्रकृति-पुरुष से परे हैं, इस प्रकार से गणपति का ध्यान करने वाला योगी तो योगियों में श्रेष्ठ है।’ ‘गण’ क्या है- सत्, चित् और आनन्द-तीन गणों के पति (रक्षक) होने से, उनसे विभूषित रहने के कारण उस तत्त्व को ‘गणपति कहते हैं। इस प्रकार वह सत्ता, ज्ञान, और सुख का पाता (रक्षक) है। जागृत, स्वप्न तथा सुषुप्ति- जैसी अवस्थाओं का वेत्ता और द्रष्टा होने से ‘गणपति’ है। परा, पश्यन्ती और मध्यमा- तीनों जिसे दृष्टिगोचर होती रहती है, वह तुर्यावस्था में स्थित ब्रह्म ही ‘गणपति देव’ है। त्रिभुवन-पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग-इन तीनों गणों का पति होने के कारण वह ‘गणपति’ अथवा ‘गणेश’ है। ज्योतिषशास्त्रानुसार देवगण, मानवगण तथा राक्षसगण- तीनों का स्वामी होने के कारण वह गणपति आराध्य है। इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।। (ऋग्वेद 1। 164।46) अर्थात् सत् (सत्ता) एक ही है। उसी को मेधावीजन इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्य, सुपर्ण, गरुत्मान्, यम एवं मातरिश्वा (पवन) कहते हैं। अनेकता में एकता ही हमारे शास्त्र-पुराणों का चरम लक्ष्य है। भागवतकार ने कहा है- ‘ब्रह्माद्वयं शिष्यते’ (10। 14। 18) एक ब्रह्म ही उपक्रम है और वही पर्यवसान है। ऋग्वेद में एक ब्रह्म के बहुधा भाव की कल्पना एक दार्शनिक विषय है। एको देवः लिखकर यह बतलाया गया है कि यह एक ब्रह्म विषयक सिद्धान्त है। दिव् (द्योतते दीव्यति वा) धातु से व्युतपन्न ‘देव’ शब्द तीन अर्थों में व्यवहृत हुआ है। देवता एक तद्धितीय शब्द है। ‘देवनां समूहो देवता’- ऐसी व्याख्या भी मिलती है। आचार्य यास्क ने अपने निरुक्त के दैवतकाण्ड में लिखा है- ‘देवो दानाद् वा दीपनाद् वा द्योतनाद् वा’- (3। 7। 15) अर्थात् सारे भोग्य पदार्थ देने वाले, प्रकाशित होने वाले और समस्त लोकों का ज्ञान कराने वाले को ‘देवता’ कहते हैं। ‘दिवु’ धातु (दीव्यति) क्रीडार्थक है। ‘दिवि दीव्यान्ति’- जो स्वर्गादि प्रकाशमान् लोकों में क्रीड़ा करते हैं, वे देवता हैं। वेदों में गुण कर्मानुसार अनेक नामों से अनेक देवताओं की स्तुति की गयी है- ‘एको देवः सर्वभूतेषु गूढः’ से अभिप्राय है कि वह ब्रह्म या परमात्मा अथवा परा शक्ति एक ही है। ‘तस्मात् सर्वैरपि परमेश्वर एव हूयते’ अर्थात् अनेक नामों से- तत्तत्कर्मानुसार विभिन्न नामों से पुकारे जाने पर भी देव (ईश्वरीय शक्ति-महाशक्ति) एक ही है। एक ही मूल सत्ता है। सारे देवता उसी के विकास हैं। नियन्ता एक है। यास्क ने ‘नो राष्ट्रमिव’ लिखकर भलीभाँति स्पष्ट कर दिया है कि व्यक्तिगत रूप से भिन्न होते हुए भी जैसे असंख्य नर-नारी राष्ट्र रूप से एक ही हैं, उसी प्रकार अनेक रूपों में प्रकट होने पर भी, अनेक नामधारी होने पर भी सभी देवों में परमात्मतत्व एक ही है। वेद वस्तुतः एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है। उसमें चेतना (चेतनाशून्य) पदार्थों, जैसे- जल, वायु, विद्युत, पर्वत-पादप आदि की भी स्तुतियां की गयी हैं। वेदों में औषधियां वैद्यों से बातंे करती हैं। जल और वायु, चमस और स्त्रुवा-सब-के-सब चलते-फिरते हैं वर प्रदान करते हैं, धनादि अभीष्ट वस्तुएं देते हैं। वहां तो चेतनवाद की प्रधानता है। साथ ही ऋग्वेद में यह भी कहा गया है कि तपस्वियों को छोड़कर ये देवता औरों के मित्र नहीं होते। देवताओं के गुप्तचर अहर्निश विचरण करते-रहते हैं- उनकी आंखें कभी बंद नहीं होती। संत ज्ञानेश्वर के मतानुसार भगवान् गणाध्यक्ष साक्षात् ओंकार के स्वरूप हैं। यदि ध्यान से उनका विग्रह देखें तो पता चलेगा कि वस्तुतः उनका बहिरंग रूप ओंकार का प्रतीक है। दक्षिण भारत के किसी भी गणपतिदेव की आकृति शत-प्रतिशत ओंकार के चित्र से मिलती-जुलती है। दार्शनिक दृष्टि से भगवान् गणधिपति बड़े ही विलक्षण देवता हैं। गणेश-पूजन की महत्ता अनादिकाल से ही भारत सदैव आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न देश रहा है। अन्य देशों से भारत के वैशिष्ट्य का यही कारण है। आध्यात्मिक शक्ति-सम्पत्ति के लिए प्राचीन ऋषियों ने अनेक साधन आविष्कृत किये हैं। उनमें से निर्दिष्ट पर्व कालों में निर्दिष्ट देवता का पूजन और आराधना एक है। यह पूजा और आराधना व्यष्टि और समष्टि के भेद से दो प्रकार की होती है। हमारे पूर्वजों का यह विचार नहीं था कि एक व्यक्ति ही पूर्वोक्त आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न हो अपितु वे उस शक्ति का संचार समष्टि में भी चाहते थे। बिना शक्ति के चाहे ऋषि हों या देव, कोई भी अपने मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ नहीं होते। आचार्य शंकर ने कहा है कि ‘शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुम्’। कार्य की सामान्य सिद्धि के लिये अन्य कारणों के साथ ‘प्रतिबन्धक-संसर्गाभाव’ को भी शास्त्रकारों ने एक कारण माना है। यह प्रतिबन्धक अदृष्ट रूप है अर्थात् यह मानव के दृष्टिगोचर नहीं होता। जो वस्तु दृष्टिपथ में नहीं आती, कार्य-सिद्धि के न होने से उसका अनुमान होता है। मानव अन्य सभी कारणों के रहते हुए भी कार्य के सम्पन्न होने से प्रतिबन्धक या विघ्न का अनुमान करता है। वह विघ्न या प्रतिबन्ध तब तक नहीं हट सकता, जब तक प्रबल अदृष्ट-शक्ति का अवलम्बन नहीं किया जाय। विघ्न-बाधाओं को दूर करने के लिए विघ्नेश्वर की शरण ली जाती है। अतएव छोटे-मोटे-सभी कार्यों के आरम्भ में ‘सुमुखश्चैकदन्तश्च’ आदि द्वादश नामों का स्मरण करके कार्य आरम्भ करते हैं। यों तो नाम स्मरण का माहात्म्य छिपा नहीं है, फिर भी भागवत आदि ग्रन्थों में नाम के स्मरण का विशेष माहात्म्य प्रतिपादित है। इन द्वादश नामों के कीर्तन की फलश्रुति इस प्रकार है- द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि।। विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गम तथा।। संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते।। केवल नाम-स्मरण या संकीर्तन मात्र से संतुष्ट न रहकर हमारे पूर्वजों ने श्रीगणेश के एक पूजाक्रम का भी प्रवर्तन किया है। इस क्रम के प्रवर्तन में वैदिक मन्त्र, पौराणिक विधि एवं तन्त्र के कुछ अंशों का भी अवलम्बन लिया गया है। इसी से श्रौत, स्मार्त, पौराणिक या तान्त्रिक, जो भी कर्म हों, उनके प्रारम्भ में गणेश जी की आराधना होती है और इस आराधना में परस्पर कुछ वैलक्षण्य भी देखा जाता है। यह तो अन्य कर्मों के आरम्भ करने की बात है किन्तु जब भाद्रपद शुक्ल-चतुर्थी का पर्व आता है, तब उसके प्रारम्भ में भी विघ्नहरणार्थ विघ्नेश-पूजा की जाती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि एक अंग-पूजन है और एक प्रधान-पूजन। श्रीगणेश जी का अंग के रूप में पूजन है, वह विघ्नहरण के निमित्त है और प्रधान पूजन सभी मनोरथों की सिद्धि के निमित्त है। एक ही देवता का कभी अंग और कभी प्रधानता के रूप से पूजित होना अनुचित नहीं है। पारमार्थिक दृष्टि से देवताओं में उच्च-नीच भाव नहीं है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि में यह अपरिहार्य है। भगवत्पाद श्रीशंकराचार्य जी- जैसी महान् आत्मा जिन्होंने आसेतु-हिमाचल भारत में भेदभाव के बिना अद्वैत-सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की, वे ही भगवत्पाद ‘षण्मतप्रतिष्ठापनाचार्य’ भी कहे जाते हैं। षण्मत हैं- गाणपत्य-सौर-शैव-वैष्णव-शाक्त और कौमार। इन मतों में कोई किसी मत का भी हो, उसे अन्य मतों का आदर करना ही पड़ता है। इससे अद्वैत-भाव की कोई हानि नहीं होती। देश और प्रान्त के भेद से पूजन का भेद उपलब्ध होने पर भारत में भाद्र-शुक्ल-चतुर्थी एवं माघ कृष्ण चतुर्थी के दिन श्री गणेशोत्सव विशेष रूप से प्रचलित है। श्रीविद्या क्रम में गणेश-पूजन को ‘महागणपति-सपर्या’ कहते हैं। आज हम चमत्कारों को देखकर नमस्कार करते हैं किन्तु नमस्कार करने से चमत्कार उत्पन्न होता है, यह बात हम भूल गये हैं। चमत्कार ही आध्यात्मिक शक्ति है। यह देवताओं के नमस्कार और पूजन से ही सिद्ध होता है। अच्छे फल की प्राप्ति के लिए अच्छे कर्मों का अनुष्ठान न्याय संगत है। यह कर्मभूमि है। बिना अच्छे कर्म के किये फलमात्र की कामना उचित नहीं। विेशेषतः देवता-प्रसाद के लिए यथोचित कर्म करना पड़ता है। देश का गौरव अच्छे कर्म और अच्छे आचरण करने वालों पर अवलम्बित है। बड़ी-बड़ी इमारतों और अस्त्र-शस्त्र की अभिवृद्धि से देश का गौरव नहीं मापा जा सकता। सदाचार-सम्पत्ति, सत्कर्मानुष्ठान, सभी में सुहृद्भाव या मातृ-भाव आदि से ही देश का गौरव है। गणेश चतुर्थी-जैसे महापर्व पर यदि हम सामूहिक रूप से उत्सव मनायंेगे और अपनी भक्ति-श्रद्धांजलि भगवान् को अर्पित करेंगे तो प्रकृति के रौद्र रूप के प्राकट्य से घटी केदारनाथ जैसी त्रासदी की पुनरावृत्ति निश्चित रूप से नहीं होगी। हम सिद्धिविनायक महागणपति से प्रार्थना करते हैं कि वे प्राणिमात्र को सुखी बनायें और उपस्थित अशान्ति को दूर करें तथा मंगलमूर्ति भगवान् श्रीगणेश प्रसन्न होकर सभी का कल्याण करें।



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