शनि को ध्याइये सदा सुख पाईय
शनि को ध्याइये सदा सुख पाईय

शनि को ध्याइये सदा सुख पाईय  

व्यूस : 8202 | सितम्बर 2013
नवग्रहों में शनि वास्तव में एक कर्मप्रधान, सात्विक, निष्पक्ष और न्याय प्रिय ग्रह हैं। इस कारण देवों के देव महादेव ने उसको मनुष्यों के ‘कर्मों का निर्णायक बनाया है, और यथोचित पुरस्कार अथवा दंड देने का अधिकार दिया है। संसार का प्रत्येक व्यक्ति शनि से भयभीत रहता है। अपनी कुंडली का किसी ज्योतिषाचार्य से विवेचन करवाते समय लगभग हर व्यक्ति सर्वप्रथम पूछता है कि ‘मेरी जन्मकुंडली में शनि कुपित तो नहीं है?’ शनि से डरने का कारण मूलतः उसका अशुभ कारकत्व है। शनि ग्रह मुख्यतः आयु, बीमारी, मृत्यु का कारण, भय, दुख, विपत्ति, दासता, आलस्य, नौकरी, मेहनत, दरिद्रता दांतों व पैरों के रोग, कृषि साधन, लौह-उपकरण, आदि से संबंध रखता है। कंगनी, कोदों, उड़द, काले तिल, नमक, तथा सभी काली वस्तुओं पर उसक आधिपत्य है। साथ ही गुप्त-विद्या, अध्यात्म और मोक्ष दिलाने वाला ग्रह भी शनि ही है। भारतीय ज्योतिष में शनि ग्रह को नैसर्गिक अशुभ और कष्टकारी माना गया है। पाश्चात्य ज्योतिष भी शनि को ‘ईविल फेट ब्रिंगर’ अर्थात दुख लाने वाल ग्रह मानता है। वास्तव में शनि का इस प्रकार चित्रण अधूरा है। वह वृष, तुला, मकर और कुंभ लग्न में जन्मे जातकों के लिए परम शुभ फलदायक होता है। शनि एक निष्पक्ष न्यायकर्ता ग्रह है। जो लोग अनाचार और अधार्मिक कार्यों में लिप्त रहते हैं, केवल उन्हीं को शनि प्रताड़ित करता है। मनुष्यों के प्रारब्ध (पिछले जन्मों के कर्मफल) अनुसार ही शनि की जन्म-कुंडली में स्थिति होती है। वृषभ और तुला लग्न वालों के लिए शनि ‘योगकारक’ (परम शुभ) होता है। मकर और कुंभ लग्न वाले जातकों का लग्नेश होकर हितकारी होता है। कुंडली में शनि अशुभ, नीच, अथवा अस्त होने पर कष्टकारी होता है। बलवान शनि परम सहायक व शुभ फलदायक होता है। शनि ग्रह का गोचर सबसे धीमा है। अतः उसे ‘शनैः शनैः शनैश्चराय’ से संबोधित किया जाता है। उसका एक और नाम ‘मंदः’ है। वह एक राशि (300) का गोचर पूर्ण करने में सर्वाधिक ढाई वर्ष लेता है और मानव जीवन पर दीर्घकालीन प्रभाव डालता है। जब शनि चंद्र राशि से बारहवें, चंद्र राशि में, तथा चंद्र राशि से अगले भाव में गोचर करता है, इस समय को (2) ग3त्र7) वर्ष) साढ़ेसाती से संबोधित किया जाता है। यह क्रम हर व्यक्ति के जीवन में 30 वर्ष के अंतराल से आता रहता है। शनि का चंद्र राशि से चैथे, सातवें और आठवें भाव से गोचर ‘‘अशुभ ढैय्या’ कहलाता है। शनि का चंद्रमा से तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव से गोचर शुभ फलदायक होता है। अन्य भावों में शनि का गोचर फल मिश्रित होता है। शनि 4 अगस्त, 2012 से तुला राशि में गोचर कर रहा है और 18 फरवरी से 8 जुलाई, 2013 तक वक्री है। 2 नवंबर, 2014 को शनि वृश्चिक राशि में गोचर करेगा और फरवरी, 2017 तक वहां गोचर करेगा। पाठक गण अपनी जन्म राशि अनुसार शनि के शुभ-अशुभ फल का अनुमान स्वयं कर सकते हैं। जन्मकुंडली में शनि की अशुभ स्थिति होने पर उसकी दशा-भुक्ति, ढैय्या और साढ़ेसाती के समय जातक को सांसारिक दृष्टि से कई प्रकार के कष्टों-असफलता, दुख, धन तथा मानहानि, शारीरिक व्याधि, चिंता, परिवार के महत्वपूर्ण व्यक्ति का निधन आदि का सामना करना पड़ सकता है। जब किसी परिवार के कई सदस्यों की एक साथ शनि दशा, ढैय्या या साढ़ेसाती चलती है तब उस समय वह परिवार अधिक विपत्तियां झेलता है। शुभ ग्रहों की दशा-भुक्ति होने तथा बृहस्पति का शुभ गोचर होने पर समय कम कष्टकारी होता है। पौराणिक कथा के अनुसार शनि देवाधिदेव महादेव के परम शिष्य हैं। उनकी धर्म अनुरक्ति और निष्पक्षता से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें मनुष्यों के शुभ-अशुभ कर्मफल प्रदान करने का अधिकार दिया था। साथ ही शिवजी ने शनि को सावधान किया था कि जो भी प्राणी उनकी (शिवजी की) शरण में आयेगा उस व्यक्ति को शनि और प्रताड़ित नहीं करेगा। अतः सुबह नहाकर शिवलिंग का जलाभिषेक -जल, गंगाजल, काले तिल के कुछ दाने व तिल के तेल की कुछ बूंद मिलाकर करना चाहिए। वहीं बैठकर ‘ऊँ नमः शिवाय’ व ‘ऊँ शं शनैश्चराय नमः’ की एक-एक माला जप शनि प्रदत्त कष्टों को कम करता है। एक अन्य कथा अनुसार हनुमान जी से हारने के बाद शनि ने अपना दिन (शनिवार) भी उनकी पूजा के लिए अर्पित कर दिया था, और हनुमान जी के भक्तों को कष्ट न देने का वचन भी दिया था। अतः शनि-प्रदत्त कष्टों से निवारण के लिए हनुमानजी की पूजा आराधना का शास्त्रोक्त विधान है। ‘शनि उपासना’ के लिए ‘पद्मपुराण’ में वर्णित राजा दशरथ द्वारा की गई स्तुति (दशरथ स्तोत्र) का प्रातः काल पाठ करना उत्तम फलदायक माना गया है। स्तोत्र के अंत में की गई प्रार्थना इस प्रकार है:- ज्ञानचक्षर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज सूनवे। तुष्टो ददासि वै राज्यं रूष्टो हरसि तत्क्षणात।। देवासुर मनुष्याश्च सिद्धविद्या धरोनगाः। त्वयां विलोकिताः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः।। प्रसादं कुरू में देव वरार्हो ज्हमुपागतः। (34, 34-35) अर्थात् ‘हे ज्ञान नेत्र ! आपको नमस्कार है। कश्यपनन्दन सूर्य के पुत्र! आपको नमस्कार है। आप संतुष्ट होने पर राज्य देते हैं और रूष्ट होने पर तत्क्षण हर लेते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग, ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं। हे देव ! मुझ पर प्रसन्न होईये। मैं वर पाने के लिए आपकी शरण में आया हूं।’’ शनि पीड़ा होने पर निम्न किसी भी मंत्र का 23 हजार संख्या का जप अनुष्ठान किसी शनिवार और विशेषकर ‘शनि अमावस्या’ को शनि की प्रतिमा का तेलाभिषेक करने के बाद सुबह से रुद्राक्ष की माला पर करना चाहिए। उसके बाद काले तिल से दशांश हवन व आरती के बाद उरद की दल को बड़े का प्रसाद बांटना चाहिए। 1. ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः। 2. ऊँ शं शनैश्चराय नमः । ध्यान रहे कि शनि एक निर्णायक ग्रह है। अतः शनि-प्रदत्त् कष्टों को सहनशील ही बनाया जा सकता है, पूर्णतया मिटाया नहीं जा सकता। शनि पीड़ित व्यक्ति को शनि उपासना के साथ ही धर्मानुकूल आचरण भी करना चाहिए। मांस-मदिरा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए तभी शनि साधना फलीभूत होगी। जिनका शनि शुभ है, एवं शनि दशा, अंतर्दशा, साढ़ेसाती, ढैय्या, आदि नहीं चल रही है, उन्हें भी सुनहरे भविष्य हेतु शनि उपासना तथा मंत्र जप अवश्य करते रहना चाहिए। शनि आराधना मनुष्यों के लिए परम कल्याणकारी है। इससे जीवन में सात्विकता आती है, और मानव जीवन के लक्ष्य का ज्ञान देकर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है। ‘नीलांजन समाभासं रवि पुत्रं यमाग्रजं। छाया मार्तण्ड सम्भूतं तम् नमामि शनैश्चरम्।। ऊँ शं शनैश्चराय नमः।



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