5 सितंबर कुशग्रहणी अमावस्या: भाद्र कृष्ण अमावस्या को कुशग्रहणी के नाम से जाना जाता है। अमावस्या को कुशा स्थान पर जाकर पूर्व अथवा उत्तर मुख होकर बैठें। ब्रह्माजी का ध्यान करके हुं फट् इस मंत्र का उच्चारण करके दायें हाथ से कुशा उखाड़ंे। इस कुशा को अपने घर में पवित्र स्थान पर रखें, एक वर्ष पर्यन्त तक इसे देव तथा पितृ कार्यों में उपयोग करें। 9 सितंबर (सिद्धिविनायक व्रत): यह व्रत भाद्र शुक्ल चतुर्थी को किया जाता है। इस दिन मध्याह्न काल में विघ्न विनाशक गणेशजी का जन्म हुआ था। मध्याह्न काल में गणेश जी का षोडशोपचार विधि से पूजन करना चाहिए, नैवेद्य में लड्डुओं का विशेष भोग लगाना चाहिए। सायंकाल में मंत्र, जप, आरती करके प्रसाद ग्रहण करें। इस व्रत को करने से जीवन में समस्त विघ्न बाधाओं का शमन होता है तथा जीवन मंगलमय, सुखमय बनता है। इस दिन चंद्र दर्शन करने से मिथ्या दोष लगता है। अतः चंद्रमा को न देखें। 12 सितंबर (राधाष्टमी व्रत): भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को भगवती श्री राधा जी का जन्म हुआ था। इस मध्याह्न काल में श्री राधा का पूजन करना चाहिए। सामथ्र्य हो तो पूरा उपवास करें, अथवा एक समय रात्रि में भोजन करें, इस व्रत को विधि-पूर्वक करने से व्यक्ति व्रज के रहस्य को जान लेता है। पितृ पक्ष - श्राद्ध आरंभ 19 सितंबर से 4 अक्तूबर तक: मनुष्य के ऊपर तीन प्रकार के ऋण होते हैं, देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण इन ऋणों में पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए पितरों का श्राद्ध, तर्पण किया जाता है। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक सोलह दिन पर्यन्त तक पितृ पक्ष माना जाता है। जिस तिथि को जिसके पूर्वज, माता-पिता आदि का देहान्त हुआ हो उसी तिथि को श्राद्ध पक्ष में उनका तर्पण श्राद्ध किया जाता है। पितरों का श्राद्ध न करने से दोष लगता है और जो लोग अपने पितरों का श्रद्धा पूर्वक प्रत्येक वर्ष श्राद्ध करते हैं उनके पूर्वज उन्हें धन, यश, आयु , आरोग्यता का आशीर्वाद प्रदान करते हैं। नोट: 13 सितंबर को अष्टमी तिथि मध्याह्न काल मे न होने से अर्थात 12 सितंबर को अष्टमी तिथि मध्याह्न काल में व्याप्त है। इसलिए राधाष्टमी का व्रत 12 सितंबर को करना ही शास्त्र सम्मत है।