भारत देश मंदिरों की प्रख्यात धरती है जहां उŸार से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक मंदिरों का समृद्ध साम्राज्य कायम है। इन्हीं में सुदूर केरल राज्य की राजधानी त्रिरुअनन्तपुरम में विराजमान पùनाभ स्वामी मंदिर का अपना विशिष्ट महत्व है जो दक्षिण भारतीय वैष्णव मंदिरों में पांक्तेय है। अरब सागर के तट पर बसा प्राचीनकाल का तिरुविंदम्, अंग्रेजों के जमाने का त्रिवेन्द्रम ही आज का तिरुअनन्तपुरम है। नगर का नामकरण उस नगर के मध्य भाग में अवस्थित श्री पùनाभ स्वामी मंदिर पर ही पड़ा है। तिरुअनन्तपुरम नगर का सामान्य आशय ‘अनंत का शहर’ अर्थात् सर्पराज अनंत की शैया पर शयन करते श्री विष्णु का स्थान। विश्वास किया जाता है कि प्राचीन त्रावणकोर अर्थात् तिरुवांकुर क्षेत्र में इस मंदिर की स्थापना त्रावणकोर के राजा ने करवाई। बाद में 18वीं शताब्दी में राजा मार्तंड वर्मा ने केरल प्रांत की सीमा रेखा विस्तृत करने के उपरांत इसी नगर में अपनी राजधानी की स्थापना करते उन्होंने इस नगर के अधिष्ठात्र देव पùनाभ के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते रहे और सन् 1633 ई. में इस मंदिर के पुनर्निर्माण होने पर नवसंस्कार प्रदान किया। केरल के दक्षिण प्रदेश का सबसे बड़ा व महत्वपूर्ण मंदिर पùनाभ स्वामी मंदिर है जिसे ‘अनन्तशयनम मंदिर’ भी कहा गया है।
पाषाण निर्मित केंद्रीय मंदिर कक्ष उचित रूपेण दीर्घायताकार है जिसमें श्री अनंतशायी देवता की 22 फीट लेटी प्रतिमा शेषनाग पर विराजित है। मंदिर में लगे सूचना पत्रिका से ज्ञात होता है कि 12008 शालिग्राम खण्ड से निर्मित यह नेपाल की गंडकी नदी से संप्राप्त है। शालिग्राम से निर्मित होने के कारण इस पर अभिषेक आदि नहीं चढ़ाया जाता है। श्री विष्णु के एक तरफ लक्ष्मी व दाहिने तरफ भू-देवी का स्थान है। नाभि के कमल पर ब्रह्मा जी और प्रभु का दाहिना हाथ शिवलिंग पर विराजमान है। करीब नौ एकड़ क्षेत्र में विस्तृत और कैकेकोट्टा क्षेत्र में प्राचीन राजमहल व पद्म सरोवर के समीपस्थ स्थापित इस मंदिर में प्रवेश करते ही बीते हुए युग की याद ताजा हो जाती है। प्रवेश द्वार की आकर्षक गोपुरम पर की गई अनुपम कलाकारी दर्शकों को निमंत्रण देते प्रतीत होती है। प्रधान मंदिर प्रवेश के पूर्व प्रवेश द्वार पर एक तरफ हनुमान व दूसरी तरफ गरुड़ जी का स्थान है। यहां दक्षिण दिशा के मण्डप को कुलशेखर मण्डप कहा जाता है। मंदिर के पूर्व भाग में स्वर्ण मंदिर गरुड़ स्तंभ है। इसके बाद विशाल मण्डप को पार करके काले कसौटी पत्थर से निर्मित श्री कोपिल (गर्भगृह) का दर्शन किया जाता है। यहीं पर निर्मित पाषाण मण्डप को ‘उत्कल मण्डप’ कहते हैं।
गर्भगृह से लगे तीन द्वार से मंदिर में देव श्री विष्णु अलग-अलग दृष्टव्य होते हैं। प्रथम द्वार से प्रभु शमन मुद्रा में हाथ नीचे लटकाए शिवलिंग पर रखे हैं तो दूसरे वार से नाभि - क्षेत्र का पुण्य दर्शन और तीसरे प्रधान द्वार से श्री विष्णु चरण का स्पष्ट दर्शन होता है। मंदिर के गलियारों में लगे पाषाण स्तंभ व पाषाण पट्टिका पर धार्मिक आख्यानों का सुंदर चित्रण हुआ है। यह मंदिर मूलतः नौ मंजिला बनाना था पर सात मंजिल बन पाया जिसमें दो मंजिल तो स्पष्ट दर्शित है। इसकी मंजिलों पर ढलवां और त्रिअंकी प्रकार की आकर्षक छतें हैं। मंदिर के प्रधान तीर्थों में श्री महागणपति क्षेत्र, पद्मतीर्थ, मंत्रेनमणि, कुनिरमलिका, नवरात्रि मण्डप, अभेक्षश्रम आदि प्रमुख है। यहां पत्थर की हाथी का सुंदर चित्रण देखने योग्य है। इस मंदिर के निर्माण में नेपाली शिल्प कला का केरल शिल्प कला के साथ नूतन प्रयोग हुआ है जिसका द्रविड़ शिल्प जगत् में अमूल्य स्थान है। मंदिर के दक्षिण द्वार के पास एक शिशु मूर्ति है यहीं उत्सव विग्रह के साथ देव श्री पùनाभ की त्रिशक्ति श्री देवी, भू-देवी और नीला देवी का स्थान है। मंदिर दर्शन का सबसे अलग दास्तान यह है कि यहां के मंदिर प्रवेश के लिए पुरुषों को अद्योवस्त्र के रूप में केवल धोती या लूंगी व महिलाओं के लिए साड़ी व लहंगा ही मान्य है।
मंदिर में प्रवेश ‘पूर्व नाडु’ अर्थात् पूर्वी द्वार से किया जाता है जहां सुबह 3ः30-4ः45, 6ः30-7, 8ः30-10ः00, 10ः30-11ः10 व 11ः45 से 12ः00 बजे तक फिर शाम में 4ः00 से 6ः30 तक दर्शन करने का विधान आम भक्तों को है। शेष समय में देव स्नान, देव शृंगार, देव भोग, देव आराधना, देव गान व देवशयन का हुआ करता है। श्री पùनाभ स्वामी के मंदिर की आंतरिक व बाह्य दीवारें चित्रांकित हैं और श्रीकृष्ण, अग्रशाला गणेश, नृसिंह, क्षेत्रपाल, गरुड़, षष्ठ आदि देवताओं के स्वतंत्र देवालय भी यहां विराजित हैं। इसमें भोजन कक्ष के पास ही ‘अग्रशाला गणेश’ का स्थान है। मंदिर में छोटे-बड़े पाषाण खण्ड के साथ काष्ठ सामग्री का प्रयोग भरपूर हुआ है। मंदिर के ठीक बाहर निकलने के पूर्व गर्भगृह से आते वक्त श्रीराम, लक्ष्मण, जानकी का दर्शन किया जाता है। बाहर में एक छोटा मण्डप है जिसे ‘पाद मण्डपम्’ कहा जाता है। परिसर के चातुर्दिक खुला स्तंभ युक्त मण्डप और किलिक्सन नासिका युक्त गोपुरम् पर पारंपरिक केरलीय प्रभाव है। दक्षिण में एक मण्डप में तुला लगा हुआ है। मंदिर के एक पुजारी शरतचंद्र कुमार बताते हैं यहां लोग अपने वजन के अनुरूप कुछ न कुछ दान अवश्य करते हैं और यह परंपरा मंदिर स्थापन से कायम है।
मंदिर दर्शन के बाद मंदिर के तरफ से ही बने स्टाॅल में प्रसाद का डिब्बा (खीर) लिया जा सकता है। यहीं पर आगे किताबें, तस्वीरें व पूजन सामग्री का स्टाॅल है। मुख्य मार्ग पर ही धोती स्टाॅल में हरेक के उम्र के अनुसार परिधान मौजूद हंै। पूरे मंदिर परिसर में भगवान के नाम की पूजा, पाठ व भजन कीर्तन करने वालों का तांता लगा रहता है। यहां के विशेष अनुष्ठान का अतिशय महत्व बताया जाता है। श्रीविष्णु सहस्रनाम में 346वें क्रम में ‘श्री पùनाभ’ का नाम मिलता है जो उनकी विशिष्टता का जीवंत प्रमाण है। यहां ‘दर्शनम्’ व ‘विशेष पूजा’ हेतु कुछ राशि प्रदान किया जाता है। इस मंदिर की कथा व माहात्म्य का वर्णन महाभारत व ब्रह्माण्ड पुराण सहित अन्य धर्म आख्यानों में भी है। विवरण है कि प्राच्यकाल में दिवाकर नामक एक विष्णु भक्त ने प्रभु दर्शन के लिए गहन तपस्या की। भगवान विष्णु उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिशु रूप में वहां पधारे और कुछ दिनों तक निवास करने के पश्चात् कुछ कारण से वे यह कहकर अंतध्र्यान हो गये कि अब हमें ‘अनंतशयम्’ में दर्शन करने आना। उन्हें खोजते-खोजते जब दिवाकर त्रिवेंद्रम क्षेत्र आये तो उन्हें समुद्र से तनिक दूरी पर शास्ता मंदिर व श्रीकृष्ण देवालय मिला। वहीं पास के कनक वृक्ष के कोट्टर में एक शिशु दिखा।
जैसे ही दिवाकर मुनि वहां पहुंचे कि वृक्ष गिर गया और उन्हें छः कोस विराट मूर्ति दिखी। श्री पùनाभ स्वामी का देवालय आज उसी विग्रह रूप के नाभि क्षेत्र पर विराजमान है जिसके उŸार सिर व दक्षिण चरण की स्थिति है। त्रिवेंद्रम सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन के बाहर लगे शिलापट्टिका से सूचना मिलती है कि तीन समुद्र का संगम जो दुनिया में अद्वितीय व अनुपम है, उसका वर्णन गांधी जी ने सन् 1936 जनवरी महीने में वहां बैठे-बैठे किया था। हरिजनों के मंदिर प्रवेश के बाद गांधी जी ने श्री अनंत पùनाभ स्वामी मंदिर का दर्शन किया। मंदिर प्रवेश के अवसर पर भाषण देते हुए गांधी जी ने कहा कि ईश्वर की नजर में ऊंच-नीच का भेद नहीं। सब लोग एक समान हैं। ऐसे 1892 में स्वामी विवेकानंद भी यहीं के दर्शन के बाद कन्याकुमारी प्रस्थान कर ऐतिहासिक कर्म की ओर आकृष्ट हुए थे। त्रिवेंद्रम् में श्री पùनाभ मंदिर के अलावा श्री परशुराम मंदिर, अहाकाल भगवती मंदिर, गणेश मंदिर, कंटेश्वर महादेव, श्रीमुरुगन स्वामी, श्रीनिवास मंदिर, भद्रकाली मंदिर, सुब्रह्मण्यम स्वामी मंदिर, शास्ता (हरिहर पुत्र) मंदिर, महादेव मंदिर आदि का भी स्थान दर्शन योग्य है। श्रीपùनाभ स्वामी मंदिर का दो वार्षिक उत्सव अतीव महत्व का है।
इसमें पहला ‘कोटिपट्टू’ (अक्तूबर, नवंबर माह में) श्रावण नक्षत्र के दिन ध्वजा आरोहरण से प्रारंभ होकर दसवें दिन प्रधान देव श्री पùनाभ के जुलूस के साथ संपन्न होता है तो दूसरा उत्सव ‘आराट्टू’ (मार्च-अप्रैल माह में) रोहिणी नक्षत्र में होता है। मंदिर की व्यवस्था संचालन ये लगे केरल पुलिस भी मंदिर के परिधान में रहा करते हैं अर्थात् धोती और ऊपर पूरा खुला बदन। यही है यहां की अनूठी व विअलग दास्तान। मंदिर के बाहर पù सरोवर में मंदिर की बनी छाया का निहारन ऐसा प्रतीत होता है जैसे स्वर्गलोक से यह मंदिर धरती पर उतर आया हो। पास में दोनों तरफ राजमहल की भवनें इसकी शोभा को द्विगुणित करती हैं। अस्तु! सुदूर दक्षिण में अंतिम भारतीय राजधानी त्रिवेंद्रम् की यात्रा स्वयं में बहुत ही अविस्मरणीय है। यहां भक्ति के साथ पर्यटन का भी भरपूर आनंद लिया जा सकता है। धार्मिक दृष्टिकोण से यहां का सर्वविशिष्ट केंद्र श्री अनंत पùनाभ स्वामी मंदिर ही है जिसके प्रथम दर्शन से तन-मन धर्ममय होकर देव श्री विष्णु के श्री चरणों में स्वतः नतमस्तक हो जाता है।