सीतामढ़ी
सीतामढ़ी

सीतामढ़ी  

राकेश कुमार सिन्हा ‘रवि’
व्यूस : 6568 | जुलाई 2014

सीतामढ़ी का परिभ्रमण, उपलब्ध साक्ष्य का अध्ययन और भौगोलिक-पौराणिक वृत्तांत के आधार पर स्पष्ट होता है कि जिस वन-प्रांत क्षेत्र में जगत् जननी ने निर्वासित होकर लव को जन्म दिया और जहां दोनों भाई लव-कुश ने मिलकर श्री राम का अश्वमेधी घोड़ा रोककर युद्ध किया और बाद में सीता जी भू-प्रवेश कर गईं, वह स्थान गया-नवादा मार्ग पर बसा मंझवे से 8 किमी. और हिसुआ से करीब 10 किमी. दक्षिण-पश्चिम है। गया और राजगीर के बीच अवस्थित नवादा जिला के मेसकौर प्रखंड में विराजमान सीतामढ़ी में प्राच्य इतिहास संस्कृति की कितनी ही बातें आज भी देखी समझी जा सकती हैं। ऐसे तीर्थराज इलाहाबाद से 60 किमी. दूरी पर संत रविदास नगर जिला में भी एक सीतामढ़ी है तो उत्तर बिहार में एक जिला सीतामढ़ी के नाम से चर्चित है जो सखनदेई नदी के किनारे है।

पंजाब का रामतीर्थ मंदिर परिसर, मध्य प्रदेश का करीला क्षेत्र, उत्तर प्रदेश का विदुर के समीप सीता तीर्थ व जम्भ्कारण्य तीर्थ की प्रसिद्धि भी मा सीता से है पर स्पष्ट साक्ष्य और उपलब्ध कृति सीतामढ़ी की ऐतिहासिकता को स्वतः स्थापित-प्रमाणित करता है। रामायण कालीन कथा से यह जानकारी मिलती है कि जब श्रीराम ने सीता जी को निर्वासित कर दिया तब जगत् जननी ने बाल्मीकि आश्रम के सन्निकट अरण्य भूमि में अपना शेष जीवन व्यतीत किया। ऐतिहासिक वृत्तांत से स्पष्ट होता है कि सीतामढ़ी के पास प्रवाहित नदी ‘तिलैया’ रामायण कालीन तमसा ही है जहां पास का गांव सराय वारत (वारत) में श्री वाल्मीकि का आश्रम स्थल था। इनके गुरुदेव महर्षि अत्रि का आश्रम तपोवन में था और आज भी गया जिले के 24 प्रखंड में एक ‘अतरी’ इन्हीं के नाम से प्रख्यात है।

तमसा नदी के पूरब नरहट के पास कुशा ग्राम कुश की शरण-स्थली बनी तो लव के नाम से ध्वनित लवौरा गांव को आजकल ‘लखौरा’ कहा जाता है। अंग्रेज सर्वेयर व पुरातत्वविद् अलेक्जेंडर कनिंघम, बुकानन हैमिल्टन, एल. एस. एस. ओमैली और भारतीय विद्वानों के रिपोर्ट का अध्ययन अनुशीलन स्पष्ट करता है कि रामायण काल से पूर्व जलराशि, पर्वतीय खंड व सघन वन प्रांतर से परिवृत्त यह एक साधना स्थल रहा जहां राजगीर से गया जाने के क्रम में न सिर्फ तथागत वरन् उनके शिष्य प्रशिष्य का भी आगमन हुआ है। प्रधान राजमार्ग से अंदर जाते ही मन पुरातन स्मृतियों में विस्मृत हो जाता है। सीतामढ़ी का सर्वप्रधान आकर्षण है यहां का गुफा मंदिर जो एक बड़े पाषाड़ खंड को खोदकर बनाया गया है। इस पाषाण खंड में 16 फीट लंबा व 11 फीट चैड़ा एक पाषाण गुफा है जिसके ऊपर की दीवार वक्राकार है। प्रवेश द्वार 56 से. मी. चैड़ा और 130 से. मी. लंबा है। इस गुफा की बनावट व आंतरिक पाॅलिश बराबर पर्वत के गुफा के एकदम समान होने के कारण प्रायशः इतिहासविद इसे मौर्यकालीन स्वीकारते हैं।


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मंदिर के ठीक बाहर ही तीन सटे बड़े चट्टान मां सीता के भू-प्रवेश स्थान के रूप में चर्चित है। मंदिर के बाहरी दीवार पर अंकित विवरण के अनुरूप सन् 1954 में इस मंदिर का नवनिर्माण बाबा श्री राम किशुन दास जी ने करवाया। सीतामढ़ी के इस तीर्थ की प्रसिद्धि मध्यकाल से बढ़ी है, तब से हरेक सीतानवमी, रामनवमी, श्रावणी पूर्णिमा व सरस्वती पूजा को यहां विशेष मेला लगा करता है। मंदिर के पीछे का प्राचीन टीला अब समतल हो चला है तो मंदिर के पीछे एक बड़े तालाब के पास ही विशाल धर्मशाला का दर्शन किया जा सकता है जो ठाकुरबाड़ी के नाम से भी क्षेत्र में चर्चित है। मंदिर के ठीक सटे बजरंग बली के मंदिर का निर्माण किया गया है, आगे श्री चंद्रवंशीय क्षेत्रीय महापंचायत भवन बनाया गया है। प्रधान देव स्थल से करीब आधे कि.मी. दूरी पर एक पहाड़ी खंड व उसके तलहटी में बने रामायण कालीन पोखर को देखा जा सकता है जिसके दो तरफ पुराने सीढ़ी भी शोभित हैं। विवरण है कि इसी पोखर में कपड़ा धोकर माता सीता उसी पर्वतीय खंड में वस्त्रों को सुखाती और वर्षा के दिनों में उन्हीं कन्दराओं में स्वयं को बरसात से बचाती थीं। विवरण स्पष्ट करता है

कि इसी अरण्य क्षेत्र में लव व कुश ने श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के अश्व को पकड़ कर बांध दिया था। इसे आज भी रसलपुर गांव में लम्बवत् पाषाण स्तंभ के रूप में देखा जा सकता है। इसी रसलपुर (रस्सी से घोड़ा बांधने के कारण रसलपुर) में आगे शेख मुहम्मद नामक संत का दरगाह बना। गदाधर प्रसाद अम्बष्ट ‘विद्यालंकार’ की कृति ‘बिहार दर्पण’ में इसका स्पष्ट उल्लेख है कि इस दरगाह का निर्माण हिंदू मंदिर के स्थान पर किया गया है।

कहीं-कहीं ऐसा भी उल्लेख है कि माता-सीता सीतामढ़ी में और पुत्र द्वय रसलपुर के पर्वतीय कन्दराओं में रहा करते थे। आजादी के बाद अन्यान्य मागधी तीर्थ की भांति यहां का भी नव शंृगार हुआ पर उपेक्षा का आलम तब दूर हुआ जब गया से कटकर वर्ष 1963 में नवादा जिला बना और यहां के जिलापदाधिकारी आर. वी. महतो ने यहां के विकास हेतु यथोचित प्रयास किया तब मंदिर के भूमि क्षेत्र को साफ कराया गया, मैसकोर प्रखंड मुख्यालय व सीतामढ़ी मंदिर क्षेत्र में यहां के ऐतिहासिक वृत्तांत को पाषाण खंड पर अंकित कराया गया और प्रधान राजमार्ग पर सीतामढ़ी द्वार बनाया गया। ऐसे तो यहां साल के सभी पूर्णिमा को विशेष पूजा होती है पर अगहन मास में पूर्णिमा के उत्सव में हजारों नर-नारी शामिल होते हैं।

संप्रति यहां तीन नए देवालय बनाए जा रहे हैं। साथ ही मार्ग को और भी दुरूस्त किया गया है। भारत देश के मौर्यकालीन देवालयों में एक है सीतामढ़ी का गुफा मंदिर जहां की दिव्य स्मृति घूमने वालों के मन में सदैव जीवन्त बना रहता है। गया, पटना, नवादा व राजगीर-नालंदा से सीतामढ़ी जाना सहज है। इसके आसपास श्रीहर शिव मंदिर, सोनसा पहाड़, पहाड़ी दरगाह-मंझवे व ककोलत का जलप्रपात भी पर्यटक जरूर जाते हैं। सचमुच धर्म, इतिहास व पुरातत्व का संगम स्थल है सीतामढ़ी, जहां माता सीता की उपस्थिति का बोध प्रत्येक दिन ब्रह्म मुहूर्त में होता है, और इसे सभी स्थानीय ध्वनि मत से स्वीकारते भी हैं।


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