भारत देश के पांचवंे धाम के रूप में विश्व विश्रुत गया में श्राद्ध पिंडदान का धर्म अनुष्ठान सालों भर होता रहता है पर साल के 24 पक्षों में एक पितृपक्ष में इसका महत्व द्विगुणित हो जाता है। पितृतीर्थ गया के इस धर्म अनुष्ठान की भूरि-भूरि प्रशंसा भारतीय धर्म शास्त्रों में की गयी है। पूर्व वैदिक काल से प्रारंभ हुए इस कर्म कृत्य का प्रथम निर्वहन गया श्री में युग पिता ब्रह्माजी द्वारा किया गया जो वर्तमान में भी प्रगति पथ पर अग्रसर है।
गया तीर्थ में जहां-जहां श्राद्धादि संपन्न किए जाते हैं उन्हें ‘वेदी’ कहा जाता है। इन वेदियों पर सदैव पिंड कार्य होते रहते हैं इस कारण इसे ‘‘पिंडवेदी’’ के नाम से भी अभिहित किया जाता है। विवरण है कि प्राच्य काल में यहां 365 वेदियां थीं और नित्य एक-एक करके पूरे साल तक गया श्राद्ध होता रहता था पर समय के साज पर अब इनकी संख्या पचास के करीब है इनमें तीन श्री फल्गु जी, श्री विष्णुपद और अक्षयवट जी की महत्ता युगयुगीन है।
गया के विद्वानों के साथ भारत देशीय धर्म पंडितों का विचार है कि बिना गया श्राद्ध के सायुज्य युक्ति संभव नहीं जो गयासुर की काया पर वेदी के रूप में विराजमान हैं। ध्यान देने की बात है कि पितरों के तारणार्थ जहां-जहां पिंड प्रदान किए जाते हैं वे नदी, पहाड़, तालाब, कुंड, वृक्षादि के रूप में उपस्थित हैं। प्रकृति व पर्यावरण से जुड़ा यह धर्म अनुष्ठान अपने में अनूठा व सारगर्भित है। जीवन रेखा है फल्गु जिसे मागधी संस्कृति में गंगा के समतुल्य स्थिति प्राप्त है। छोटानागपुर के पठार से निकली दो पहाड़ी नदी लीलाजन व मुहाने गया के उत्तरस्थ धर्मारण्य में गुप्त सरस्वती संगम के बाद जो नद प्रवाहित होती है वही फल्गु है, जिसे ‘मलया’, ‘अंतःसार’, ‘अंतः सलिला’ आदि भी कहा गया है। फल्गु की सात धारा की चर्चा भी आई है
जिसके नाम हैं ‘मधुश्रवा’, ‘घृत कुल्पा’, ‘मधु कुल्पा’, ‘कपिला’, ‘आकाशगंगा’, ‘अग्निधारा’ व वैतरणी। गया नगर के पूर्व भाग में प्रवाहमान यह नदी दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है जिसके किनारे किसी जमाने में तीन दर्जन से ज्यादा घाट थे पर आज घाटों की संख्या पंद्रह के करीब है इनमें अहिल्याबाई घाट, देवघाट, गदाधर घाट, ब्राह्मणी घाट, पितामहेश्वर घाट व ब्राह्मणी घाट सदैव गुलजार बना रहता है। गया आने वाले श्रद्धालुओं का प्रथम पड़ाव फल्गु ही है जहां गयाधाम का प्रथम विशद् साक्षात्कार होता है। लोग यहीं स्नान ध्यान व क्षौर कर्म के बाद पिंड कार्य का श्री गणेश करते हैं।
गया तीर्थ का दूसरा महापिंड वेदी क्षेत्र श्री विष्णुपद है जहां देवाधिदेव विष्णु जी के दाहिने चरण को रक्षित कर विशाल देवालय का निर्माण इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा अठारहवीं शताब्दी उत्तरार्द्ध में कराया गया है। 1782-85 के बीच पूर्ण हुए कार्य के उपरांत यहां की वैभव-स्मिता दूर-देश तक प्रचारित प्रसारित हुई। आज भी इस विशाल मंदिर में प्रभु के पादालय के साथ 21 अन्य मंदिरों का दर्शन किया जा सकता है जिनमें गदाधर मंदिर, साक्षी गोपाल मंदिर व अक्षयवट, भूमि-फट महादेव, पंचमुखी हनुमान, साक्षी महादेव, नृसिंह देव मंदिर, विन्ध्यवासिनी मंदिर, ललिता देवी मंदिर, शनि देव मंदिर, इंद्र देवता मंदिर, पंच गणेश मंदिर, सोलह वेदिया तीर्थ, जनार्दन मंदिर, ग्यासुरी देवी मंदिर, कन्याकुमारी मंदिर, बुढ़िया माता (श्मशान काली) मंदिर, सत्यनारायण स्वामी मंदिर आदि का सुनाम है। श्री विष्णुपद दर्शन का सबसे सबल पक्ष यहां का शृंगार है। सृष्टि खंड पद्मपुराण में उल्लेखित है।
गयायां विष्णुपदाब्जं वरं तीथ्च्च पितृणां अर्थात् पितृतीर्थों में श्री विष्णुपद श्रेष्ठ हैं। इस विष्णु पद को संसार के प्राचीनतम् उपासनास्थलों में एक स्वीकारा जाता है जो वैष्णव सदाचारी असुर ‘गय’ के वक्ष स्थल पर विराजमान होकर युगों युगांे से मानव कल्याण कर रहा है। गया की अंतिम व प्रमुख वेदी के रूप में अक्षयवट की गणना की जाती है जो भष्मकूट पर्वत पर अवस्थित माता मंगला गौरी स्थल व ब्रह्मयोनि पर्वत के पाद क्षेत्र में विराजमान है। तीर्थ दीपिका से स्पष्ट होता है कि वृन्दावन में वंशी वट, प्रयाग में मनोरथ वट, गया में अक्षयवट, जगन्नाथपुरी में काघवट और लंका मंे निष्कुंभ वट के नाम से पंचवट के जड़ में श्रीमाधव सदैव रहा करते हैं।
इन्हीं में लंका को छोड़ नासिक का पंचवटी, उज्जैन का सिद्धवट और काशी का वट माधो (माधव वट) मिलाने से पुण्यमय सप्त वट की गणना की जाती है जहां के दान स्वर्गलोक तक जाते हैं। गया के अक्षयवट के बारे में जनश्रुति है कि मानव जीवन के विकास व उन्नति हेतु इसे स्वर्ग से लाकर ब्रह्माजी ने रोपण किया है। यही वह स्थान है जहां श्राद्धकत्र्ता को गया तीर्थ के विप्र गयापाल आशीर्वाद देते हैं कि तुम्हारा गया श्राद्ध संपन्न हुआ। एक ऊंचे छतनुमा आंगन के मध्य विराजमान अक्षयवट को देखते ही इसकी प्राचीनता का सहज में आभास होता है जहां पास में ही मौखरि वंश के राजा का अभिलेख और पालकालीन ‘वटेश्वर महादेव’ का छोटा मंदिर देखा जा सकता है। पूरे अक्षयवट परिसर में हिंदू पूजन संस्कृति से जुड़े उत्कृष्ट देव विग्रहों को देखा जा सकता है जो ऊंचे चबूतरे पर ताखे में व दीवार के किनारे रखा हुआ है।
गया के अक्षयवट के दर्शनोपरांत श्रद्धालु अपनी मनोकामना व अभिलाषित भाव को कपड़े बांधकर व्यक्त कर देते हैं और जब इसकी पूर्ति हो जाती है तब लोग इसका मनिता उतारने भी आते हैं। ऐसी स्थिति बनती है कि पुत्र होते-होते विघ्न आ जाए तो गयापालों द्वारा यहां उनके शमन-दमन हेतु कुछ कर्म भी किए जाते हैं ताकि वंशवृद्धि होने के उपरांत श्राद्ध-पिंडदान का कर्म जीवन जीवनांतर चलता रहे। ऊपर वर्णित तीन श्राद्ध स्थलों के अतिरिक्त गया में गोदावरी (प्रथम वेदी), प्रेतशिला (अकाल मृत्यु), रामशिला, रामकुंड, प्रेतकुंड, ब्रह्म कुंड, काकबलि, उत्तर मानस, दक्षिण मानस, सीताकुंड, गायत्री घाट, धौतपद, आदि गया, मुण्ड पृष्ठा वैतरणी, धर्मारण्य, सरस्वती, महाबोधि द्रुम, मातंगी, गदालोल आदि भी पिंड वेदी के रूप में स्वीकार्य है
जहां लोग समय व सुविधा रहने पर अवश्य जाते हैं पर गया श्राद्ध में नदी के रूप में फल्गु, मंदिर रूप में विष्णुपद व कल्पवृक्ष के रूप में अक्षयवट का मान चारों युग में रहा है। विवरण है कि रामायण काल में आए श्री राम और महाभारत काल में आए श्री कृष्ण ने भी तीनों तीर्थों का दर्शन-पूजन किया। अस्तु ! गया तीर्थ के मुक्तिदायक स्थलों मंे श्री विष्णुपद, फल्गुजी व अक्षयवट का विशिष्ट स्थान है और न सिर्फ पितृपक्ष वरन् पूरे साल यहां दूर-देश के यात्रियों का निरंतर आगमन बना रहता है।