रजरप्पा जैसा कि नाम से ही ध्वनित है कि पहले-पहल यह स्थान राजा का तपस्थल रहा जो कालान्तर में इसी नाम से विख्यात हो गया। प्रकृति के सुरम्य, सुंदर एवं एकांत स्थल में दो पर्वतीय नदियों यथा पुरुष प्रकृति युक्त दामोदर और नारी शक्ति प्रतीका भैरवी (भेड़ा) के महासंगम पर माता के इस दरबार को सैकड़ों - हजारों वर्षों से देवी साधना का सिद्ध केंद्र माना जाता रहा है।
ऐसे तो यहां नित्य और हरेक मंगलवार को दूर-दूर से भक्त आते हैं पर साल के दोनों नवरात्रों में यहां की गहमागहमी देखते ही बनती है। रजरप्पा की माता छिन्नमस्तिका के इस मंदिर परिक्षेत्र की आद्योपांत जानकारी से स्पष्ट होता है कि ऐसा देवीधाम पूरे जगत् में दुर्लभ है। प्राचीन एवं ऐतिहासिक रजरप्पा के इस देवी मंदिर को सिद्धपीठ में स्थान दिया गया है जहां की माता पूरे देश में अप्रतिम और अनूठी हैं। देवी छिन्नमस्तिका ‘प्रचंड चण्डिका’ के नाम से भी दूर-दूर तक प्रसिद्ध हैं।
चुण्डमाला विभूषिता रति व काम पर अवलम्बित देवी जी बाएं हाथ में अपना मस्तक धारण किए अपने ही कंठ प्रदेश से निकलती शोणित धारा का पान कर रही हैं। बाएं व दाहिने हाथ में नरमुण्ड व कर्तरी, गले में सर्पमाला, खुले बाल, जिह्वा बाहर, आभूषणों से सजी मां के एक ओर डाकिनी व दूसरी ओर शाकिनी खड़ी हैं।
इनके गले की तीन रक्तधाराओं से डाकिनी, शाकिनी और महामाया जी तीनों तृप्त हो रही हैं। महामाया छिन्नमस्तिके जी दस महाविद्याओं में पंचम स्थान पर विराजमान हैं इस कारण मातृ शक्ति छिन्नमस्तिका को ‘पांचवीं देवी’ भी कहा जाता है। यथा काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी, भैरवी छिन्नमस्तका च विद्या धूमावती तथा। बगला सिद्धिविद्या च मातंगी कमलात्मिका, एता दश महाविद्या सिद्धविद्याः प्रकीर्तिता। छिन्नमस्तिका मां की उत्पत्ति कथा जो यहां के स्थानीय ब्राह्मण परिवार व भक्तों से सुनी जाती है उसका रोचक वर्णन रजरप्पा माहात्म्य में भी है।
एक बार देवी अपनी सहचरी डाकिनी-शाकिनी (कहीं-कहीं जया-विजया) के साथ मंदाकिनी में स्नान करते-करते नवकारिणी कृष्णकाय हो गयीं। उसी समय सहचरियों ने अपनी क्षुधा की पूर्ति हेतु उनसे भोजन की मांग की तब देवी जी ने उन्हें प्रतीक्षा करने को कहा। पुनः पुनः याचना के बाद भी उन्होंने प्रतीक्षा की बात कही। समय गुजरते सहचरियों का विलाप देखकर माता रानी का हृदय फट गया।
इस प्रकार माता ने प्रकाशरत होकर अपने मस्तक (सिर) का स्वयं छेदन कर दिया। कटा सिर देवी के बाएं हाथ में गिरा और कबंध से रक्त की तीन धाराएं फूट पड़ीं, तीनांे रक्तधारा तीनों को संतुष्ट कर गयीं। तभी से जगत् कल्याणार्थ माता के इस रूप को छिन्नमस्तिका की संज्ञा दी गयी जिनका शास्त्रोक्त स्थल रजरप्पा है। साधना व तपश्चर्या के प्राचीन स्थलों में गण्य और पहाड़ी नदी नालों, पहाड़ों एवं जंगलों से घिरा यह पवित्र स्थल मेघा ऋषि के आश्रम और सुख एवं समाधि नामक देवी के महान भक्तों की तपः स्थली के रूप में प्रसिद्ध है।
छिन्नमस्तिका माता के अन्य साधक भक्तों में तंत्र साधक भैरवानंद, वामाखेपा, रानी रूपका, चंद्रचूड़ भट्ट, सुकुमार वसु आदि का नाम आज भी श्रद्धा व भक्ति के साथ लिया जाता है। छिन्नमस्तिका मां का यह स्थान आदिवासी जन जातियों के प्रमुख आराध्य स्थल के रूप में मान्य है जहां वे पूजन-दर्शन के साथ अपने-अपने पूर्वजों के नाम पर पिंड भी अर्पित करते हैं। ‘‘रांची एक्सप्रेस’’ दैनिक के संपादक पवन मारू ने बताया था कि इस तीर्थ में आदिम जाति पिंडदान की प्राचीन परंपरा का निर्वहन आज भी कर रहे हैं।
सत्तरहवीं शताब्दी के मध्यकाल तक यह स्थान घनघोर जंगलों के बीच अवस्थित था तब यहां रात में देवी जी का नित्य अवतरण होता था पर तांत्रिक भैरवानंद की तंत्र-मंत्र की योजना से कूपित होकर देवी सदा-सर्वदा के लिए मंदिर में वास कर गईं। तंत्र, यंत्र, मंत्र पर पूर्णतया आधारित और वास्तु शास्त्र के नियम उपनियम पर बना यह देवालय आकर्षक है जिसके बाहरी दीवार पर की गई मीनाकारी खूबसूरत है।
कहते हैं इस मंदिर का प्रथम निर्माण झारखंड के वैद्यनाथ मंदिर की भांति देव शिल्पी श्री विश्वकर्मा जी ने किया। 96वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रामगढ़ के राजा के द्वारा नवसंस्कार के बाद मंदिर का नाम व यश पूरे देश में मुखरित हुआ।यहां के मुख्य मंदिर का आंतरिक व बाह्य निर्माण देखने योग्य है। गर्भगृह छोटा और गोलाकार है जहां दीवार से लगे तांखे में माता रानी का स्थान है जो ‘योनि मंडल मडिताम्’ के एकदम अनुरूप है, यंत्र में जिस प्रकार चार दरवाजे होते हैं ठीक उसी प्रकार यहां भी स्थिति व्याप्त है।
दामोदर और भैरवी के संगम के ठीक सीध में विराजित यह मंदिर चैसठ योगिनी और अष्ट कमल से अलंकृत है जहां मुख्य मंदिर के अलावे अष्टमहाविद्या मंदिर, दक्षिणमुखी काली मंदिर, सूर्य मंदिर, महाकाल भैरव मंदिर, शिव मंदिर व बलि का स्थान है। यह मातृ देवालय के ठीक सामने है जहां रोजाना छाग बलि अर्पित की जाती है। यहां ‘मुण्डन कुंड’ भी है जहां मुंडन की परंपरा है तो पास में ही रोगग्रस्त लोगों को मुक्त करने वाला ‘पापनाशिनी कुंड’ भी विराजमान है।
संपूर्ण देश में प्रचंड तांत्रिक साधना के लिये प्रसिद्ध रजरप्पा ‘योनि सिद्धि’ का एकमात्र अकाट्य स्थल बताया जाता है। अभी भी यहां कितने अज्ञात व पहचान छुपाने वाले साधक रात्रि में आकर मातृ साधना कर चुपचाप सुबह-सुबह धाम छोड़ देते हैं। यहां के पुजारी द्वय की राय में अमावस्या की रात्रि में 101 दीपक जलाकर माता छिन्नमस्तिका की पूजा करने से कहीं न ठीक होने वाले रोग का भी शमन-दमन हो जाता है।
साल-दर-साल मां के भक्तों की बढ़ती संख्या यह स्पष्ट करती है कि माता छिन्नमस्तिका हरेक के मन-मुराद को पूर्ण करती हैं। इनकी आराधना हेतु ‘शाक्त प्रमोद’ का छिन्नमस्ता मंत्र उपयोगी है जो इस प्रकार है- ऊँ श्रीं स्रीं ह्रीं क्लीं बज्रवैरोचनीय हुं हुं फट् स्वाहा। प्रयाग के ‘कल्याण मंदिर’ से झारखंड विभाजन (15 दिसंबर 2000) के पूर्व प्रकाशित ‘बिहार में शक्ति साधना’ में इस बात का स्पष्ट अंकन है कि जिन तीन शक्ति पीठों की अवस्थिति वैदिक काल नहीं आदि काल से व्याप्त है उसमें सर्वमंगला (गजा) व अंबिका (सारण) के साथ माता छिन्नमस्तिका (रामगढ़) गण्य हैं।
नए वाहन लेकर पूजा करने आना तो यहां नित्य का विधान है। भक्तों की राय में परिवहन साधनों का सुरक्षित गमनागमन मां पर ही निर्भर है। प्रायः प्रत्येक ट्रक में लगी इनकी तस्वीर इसी बात की परिचायक है। झारखंड की राजधानी रांची व हजारीबाग से करीब 80 किमी. दूरी पर अवस्थित यहां आने के लिए रांची-हजारीबाग के मध्य रामगढ़ से आना सहज है जहां से मंदिर की दूरी मात्र 32 किमी. है।
यहां से छोटी बड़ी गाड़ी यहां आने के लिए हमेशा मिल जाती है। ऐसे धनबाद, टाटानगर, गया, पटना व कोलकाता से भी यहां सड़क मार्ग से आना सहज है। वर्ष 1975-1980 के मध्य मार्ग ठीक-ठाक बन जाने से और झारखंड राज्य बनने के बाद तीर्थ स्थल विकास के तहत यहां कुछ कार्य कराए जाने से भक्तों की परेशानी कम हुई है। यहां ठहरने और पूजापाठ क्रम में भी दुकानदारों व पुजारियों का अच्छा सहयोग भक्तों को मिलता है।
न सिर्फ झारखंड वरन् पूरे देश में मां के भक्त रहा करते हैं जिसमें बंगालियांे व बिहारियों की संख्या सर्वाधिक है। सचमुच श्रद्धा, विश्वास व भक्ति का यह त्रिवेणी क्षेत्र वर्णनातीत है। मां को जब-जब जिसने पुकारा है माता जी ने किसी न किसी रूप में उपस्थित होकर भक्तों की कार्य सहायता व कार्य पूर्ण की है। इधर-किसी कार्य को पूर्ण होने में मातृकृपा ही मानते हैं और अगर अपूर्ण तो मातृ कोप। कहते हैं- पूर्व देशीय देवी पीठों में असम स्थित मां कामाख्या जी के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ है जहां से कोई निराश नहीं लौटता।