रत्नगर्भा धरती भारतवर्ष में समय-समय पर ऐसे महात्माओं का अवतरण हुआ है जिन्होंने विश्व बंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओत-प्रोत होकर न सिर्फ भारतीय आदर्शां का पूरी ईमानदारी से अनुपालन व संरक्षण किया वरन् जनकल्याणार्थ कितने ही देव स्थलों की स्थापना भी की। ऐसे ही एक ऋषि हं ‘महर्षि कश्यप’, जिन्हें भारतीय विधि के ज्ञाता सूत्र ऋषियों में स्थान दिया गया है और जिनका आश्रम प्राचीन मगध प्रदेश के केंद्रीय भाग में अवस्थित कश्यपपुरी (आज का केसपा या कश्यपा) में विराजमान था।
धर्म साहित्य के अष्टायन अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि लोक पितामह व्रसा जी के छः मानसपुत्रों में प्रथम मरीचि से उत्पन्न संतान कश्यप थे जिनका विवाह दक्ष प्रजापति की सभी तेरह कन्याओं के साथ हुआ था। इनके गोत्र कश्यप कहलाए जिन्हें भारतीय गोत्र में उŸामोŸाम स्थान प्राप्त है।
तभी तो यह माना जाता है कि वृक्ष, पशु, पक्षी और सभी मानव जाति कश्यपगोत्री हैं। आज पूरे देश में निवासरत् कश्यपगोत्री के सर्व-उपस्थिति का ही प्रभाव है कि जहां कभी भी जिन्हें अपना गोत्र नहीं अता-पता हो, उन्हें कश्यपगोत्री मान लिया जाता है। ऐसे सप्तर्षि मंडल के एक तारे का नाम भी कश्यप है तो वैशेशिक दर्शन के प्रव महर्षि कणद को भी अन्य नामों के साथ कश्यप नाम से जाना जाता है।
ज्ञातव्य है कि सनातन धर्म के ज्ञाता अधिष्ठाता कश्यप ऋषि के नाम पर ही कश्मीर प्रदेश का नामकरण हुआ जो उनका प्राच्यकालीन लीला क्षेत्र रहा है। तदुपरांत गुरु आदेश से इन्होंने मथुरा प्रदेश में साधना की और वहीं ‘सप्तर्षि टीला’ पर ध्यान-क्रम में उन्हें इस स्थल का बोध हुआ जो दोनों तरफ से मोरहर नदी की धारा के मध्य वनाच्छादित उच्च भूमि था।
सम्पूर्ण मगधांचल में दुर्ग निर्माण कला और भवन स्थापत्य के लिए प्रख्यात टिकारी से लगभग 11 कि.मी. की ओर अवस्थित केसपा गांव के बाहरी छोर पर विराजमान माता जी के तीर्थ के पास ही कश्यप मुनि जी के आश्रम का उल्लेख मिलता है जो दुतलीय था। नीचे के तल में जो जमीन से अंदर था, नीचे साधना कक्ष और ऊपर निवास कक्ष था। ज्ञात होता है कि ‘कश्यप संहिता’ की रचना कश्यप मुनि ने यहीं की जिसकी उपयोगिता आयुर्वेद जगत् में आज चर्चित है।
जिस प्रकार गंगा भगीरथ और गोदावरी गौतम ऋषि की कृपा से इस धरती पर आईं। ठीक उसी प्रकार सरस्वती को इस धराधाम पर लाने का श्रेय कश्यप मुनि को जाता है और इसकी प्रत्यक्ष स्थिति संप देश भर में सात स्थानों पर है। बोधगया के सन्निकट इसी सरस्वती तीर्थ के ठीक सामने निरंजना और मोरहन नदी का संगम होता है जिसके साथ गुप्त सरस्वती के संगमोपरांत फल्गु उद्गमित हुआ है।
इस स्थल पर कश्यप ऋषि द्वारा स्थापित अष्टादश शिव और देश के सप्त सरस्वती में एक माई विशाल के मंदिर आज भी देखे जा सकते हैं। गया से जुड़े महाकाव्य कालीन उद्धरण में कश्यप के जिस आश्रम का वर्णन विवेचन है यह कश्यप ऋषि का ही आश्रम है जिसकी मान्यता बौद्ध काल में भी बनी रही। तथागत के समय में उनके एक प्रिय शिष्य का नाम ‘महाकश्यप’ मिलता है जो तंत्र साधना में निष्णात था।
ऐसा विवरण मिलता है कि आगे चलकर भद्रवर्गीयों को दीक्षा देने के बाद अग्निहोत्री-कश्यप बंधु तीन वर्ग में विभक्त हो गये जिनमें दो-दो सौ जटिलों का नायक क्रमशः ‘नदी कश्यप’ तथा ‘गया कश्यप’ बना जबकि तीनों में सबमें बड़े ‘उरुबेल कश्यप’ पांच सौ जटिलों के नायक बने। आज यहां महर्षि कश्यप के आश्रम का कुछ ही भाग द्रष्टव्य है शेष काल के गाल में समाहित होता चला जा रहा है।
संपूर्ण देश में देवी तारा जी का प्राचीनतम् तीर्थ के रूप में ख्यात मां के इस स्थान में माता जी की साढ़े छः फीट की अनूठी मूर्ति काले पत्थरों की बनी है जो पालकाल की श्रेष्ठ प्रस्तुति है। इसके अलावा मंदिर के अंदर व बाहर गणेश, भैरव, सूर्य, उमाशंकर, लक्ष्मी-विष्णु, बुद्ध, हारिती, लकुलिश व दुर्गा के उत्कृष्ट मूर्Ÿा विग्रह देखे जा सकते हैं।
भू-तल से करीब 12 फीट ऊंचे चबूतरे पर मां के मंदिर के ठीक पहले बाहरी भाग में एक त्रिकोणीय हवन कुंड है जिसकी सबसे बड़ी खासियत है कि यह कभी भरता ही नहीं और तो और देवी आराधना का श्रेष्ठ काल नवरात्र में भी नौ दिन तक नित्य धूप-हुमाद जलने पर भी हवन कुंड की स्थिति ज्यों का त्यों बनी रहना इस क्षेत्र में चर्चा का विषय है। इस हवन कुंड को आधुनिक काल में प्रज्ज्वलित करने का श्रेय पं. देवन मिश्र को जाता है जो टिकारी राजघराने के सम्मानित सदस्य व राजविदूषक थे।
जिस प्रकार माता काली की कृपा से रामकृष्ण जी महान साधक इस; माता शारदा भवानी मैहर की कृपा से आल्हा-ऊदल महान योद्धा बने; माता उच्चैठ भवानी, मधुबनी की कृपा से विद्यापति मैथिल कोकिल हुए। हरसिद्धि देवी उज्जैन की कृपा-दृष्टि से ही देवन मिश्र विद्वान-प्रवर व विदूषक हुए। यह उन्हीं की अटूट मातृ साधना का प्रतिफल है कि प्रत्येक नवरात्र मं प्रथमा तिथि से अष्टमी तक यहां महिलाओं का गर्भगृह में प्रवेश वर्जित रहा करता है।
विवरण है कि मातृ आराधना वे अंदर बंद रहकर करते और इस बीच में उन्हें बाहरी दुनिया से कोई संपर्क नहीं रहता। कितने ही लौकिक-अलौकिक कथा-कहानी मातृ स्थल तारा तीर्थ से संबंध है जिसे संपूर्ण मगध की पुरातन पंच देवियों में एक स्वीकारा जाता है। पूरे गांव के निरीक्षण से स्पष्ट होता है कि पालकाल में यह स्थल मूत्र्ति निर्माण का उत्कृष्ट केंद्र था।
यहां गांव में एक गृहस्वामी के घर के बाहर व खेत के साथ-साथ मंदिर के बाहर भी मूर् शिल्पों का समृद्ध संसार देखा जा सकता है। गया जी के बाहरी क्षेत्र द्वादश देवी तीर्थ में प्रथम स्थान पर गण्य माता जी के इस स्थान की रौनकता नव श्रंगार के बाद खूब बढ़ी है इसमें ग्रामीण, भक्त व स्थानीय पुजारी का सहयोग सराहनीय है।
प्रचार-प्रसार में कमी व जानकारी का अभाव होने से देवी तीर्थ केसपा को आजतक वह स्थान नहीं मिल सका है जिसका वह प्राचीन काल से ही हकदार है जबकि मनौति पूरन केंद्र के रूप में केसपा की ख्याति न सिर्फ जिला व बिहार प्रदेश वरन् संपूर्ण देश में है।
जानकार पं. धनंजय मिश्र बताते हैं कि जिस प्रकार बालापुर, अकोला (महाराष्ट्र) की स्वयंभू भगवती श्री बाला जी छत्रपति शिवा जी का पल-प्रतिपल मार्ग दर्शन कराती थीं ठीक उसी प्रकार पं. देवन मिश्र को भगवती ने नव जीवन प्रकाश दिया।
यही कारण है कि केसपा तीर्थ के पूजन में पहले कश्यप ऋषि व बाद में पं. देवन मिश्र का नाम जरूर लिया जाता है। अस्तु देश के विशालतम मूर्Ÿा शिल्प युक्त देवी तीर्थ में केसपा का सुनाम है जहां की महिमामयी मां तारा प्रत्येक को मुंह मांगा वरदान देकर जीवन पथ को सुवासित करती हैं।