प्राचीन भारतीय इतिहास के श्री केंद्र मगध की राजधानी पटना से 24 किमी. दूर और फतुहा प्रखंड मुख्यालय से 9 कि.मी. दूरी पर वैकठपुर गांव में राष्ट्रीय राजमार्ग 30 से सटे वैकठपुर का विशाल शिवालय आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। यहां के यशोगान की शुरूआत पुरातन काल से ही हुई है। एकांत, शांत, रमणीक और सुरम्य ग्रामीण क्षेत्र में बसे बाबा का यह तीर्थ लोक आस्था का प्रधान केंद्र है। ऐसे तो साल के प्रत्येक दिन यहां दूर-दूर से लोग आते हैं पर पूरा श्रावण, शिवरात्रि और किसी पर्व त्योहार में यहां विशेष गहमागहमी बनी रहती है। विवरण मिलता है कि पुरातन काल में यह स्थान ‘वैकुंठ वन’ के नाम से चर्चित था। इसी तीर्थ के आगे उत्तरवाहिनी गंगा के किनारे बाढ़ में उमानाथ महादेव मंदिर और उसके आगे ‘सिमरिया घाट’ है जहां नए जमाने में सरकारी-गैर सरकारी प्रयास से कुंभ मेले का श्री गणेश किया गया है। जानकारी मिलती है कि बाबा के दर्शनार्थ राजा नल राजा इन्द्रसेन, राजा चित्रांगद, महर्षि याज्ञवल्क्य, च्यवन ऋषि, बाबा बम बम आदि भी आए थे।
इस तीर्थ का प्रथम ख्यातनाम पुजारी राजा वृहद्रथ थे जो जरासंध के पिता श्री थे। राजा जरासंध का इहलोकागमन इन्हीं की कृपा से हुआ बताया जाता है। वैकठपुर महादेव के प्रथम निर्माता के रूप में जरासंध का ही नाम लिया जाता है। उस समय गंगा के तट से मंदिर तक नया रास्ता बनाया गया। प्रचलित कथा से ज्ञात होता है कि राजा जरासंध नित्य ही बड़ी नेम निष्ठा से गौरी शंकर महादेव की पूजा करते और इन्हीं की कृपा दृष्टि से जरासंध का राज-काज ठीक चल रहा था। किंतु एक दिन रास्ते में ही ऐसा विघ्न हो गया कि जरासंध मंदिर नहीं आ पाए। इतना ही नहीं गले के शिव यंत्र को भी उन्होंने भूलवश फेंक दिया। कहते हैं जहां पर यंत्र गिरा वहीं आज ‘कौड़िया खाड़’ विद्यमान है अर्थात् कौड़ी से बना गड्ढा। अंत में वही हुआ जिसका डर था। जरासंध पराजित होकर दुनिया छोड़ गए। बाद के समय में भी मंदिर का विकास रथ चलता रहा। पाल वंश के जमाने में भी इस देवालय की स्थिति ठीक ठाक थी पर इस युग के किसी वृत्तांत की कोई जानकारी कहीं से नहीं मिलती।
जानकारी की बात है कि मुगलकाल में राजा मानसिंह बंगाल के रनिया सराय में मचे उपद्रव को शांत करने के लिए पूरे काफिले के साथ इसी मार्ग से आगे बढ़ रहे थे कि कौड़िया खांड़ में उनका रथ फंस गया। रात होने पर वहीं विश्राम की योजना की। रात में राजा मानसिंह को स्वप्न आया कि पास में ही मेरा स्थान है तुम उसका उद्धार करो। विश्वास किया जाता है कि राजा ने मनः संकल्प किया कि विजय श्री कर इसी मार्ग से लौटते वह मंदिर को नवरूप दे देगा। प्रभु कृपा हुई .. 1585-86 के बीच राजा मान सिंह के निर्देशन में विशाल मंदिर बना दिया गया और तो और राजा मानसिंह की माता की मृत्यु भी यहीं हुई जिनकी स्मृति में बनी ‘बारादरी’ आज भी मंदिर के विशाल आंगन के ठीक सामने विराजमान है। राजा मानसिंह ने मंदिर में पूजा-पाठ, राग-भोग के लिए पंडा-पुजारी परिवार को बसाया। उसी जमाने से कान्यकुब्ज ब्राह्मण यहां पूजा-पाठ व धर्मानुष्ठान करा रहे हैं जिनके घर परिवारों की संख्या चालीस के करीब है।
कला, स्थापत्य और मूत्र्त शिल्प की दृष्टि से वैकठपुर के गौरी शंकर महादेव का संपूर्ण पूर्व भारत में विशेष नाम है। बड़े भू-भाग में बसे इस मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यहां का महिमामयी शिव लिंग है जिसमें चारों तरफ बारह सौ शिवलिंग बने हैं और आगे माता गौरी की आकर्षक मुखाकृति है। यहां के शिवलिंग का यह रूप अद्भुत और अनूठा है तभी तो इसे ‘‘कामना लिंग’ भी कहा जाता है। अंदर में ही श्री विष्णु और बाहरी चैखट के ऊपर गणेश विराजमान हैं। मुख्य प्रवेश कक्ष के बाहर एक तरफ गणेश व दूसरे तरफ नंदी जी का स्थान है। इस मंदिर परिसर में ‘शीतला माता’, ‘सूर्य नारायण’, ‘हनुमान’, ‘मां गंगा’ और पीछे ‘दुर्गा जी’ का मंदिर है। यहीं पर ‘नईया बाबा’ नाम पड़ने के पीछे तर्क यही है कि बाबा स्वामी सच्चिदानंद परमहंस जी सदैव नाव पर ही रहकर बाबा की आराधना करते थे। इनके नाम पर एक धर्मशाला भी यहां 1992 में बनाया गया है। यहीं पर कोने में शिवशंकर का गुफा मंदिर दर्शनीय है।
पहले भले ही गंगा जी मंदिर से सटे बहती थीं पर आज इनकी दूरी दो किलोमीटर के करीब है। इस खाली स्थान में कृषि, व्यापार व निवास से जुड़े कितने ही कार्य होने से मंदिर का पृष्ठ भाग सौंदर्यविहीन होता जा रहा है। मंदिर के पीछे का कूप व घाट पर गंदगी का साम्राज्य कायम है और लोग तमाम तरह की गंदगी इधर ही फेंक कर रही सही कसर पूरा कर दे रहे हैं। मंदिर के विकास में श्री वैकठपुर गौरी-शंकर न्यास समिति के कार्य सराहनीय हैं। यहां शादी-विवाह, मुंडन, गाड़ी पूजा, विशेष पूजा, रूद्राभिषेक व कितने तरह के धर्मानुष्ठान कार्य नित्य होते रहते हैं जिसके लिए कुछ निर्धारित शुल्क भी अदा करना होता है। मंदिर से जुड़े शिवनंदन पंडा बताते हैं कि बाबा तमाम तरह के विघ्नों का शमन-दमन कर भक्तों को आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यही कारण है कि दिनांे-दिन यहां भक्तों की संख्या बढ़ती जा रही है और श्रावण में कांवर से भी जलार्पण किया जाता है। मध्यकाल में पाटलिपुत्र से जुड़े जलमार्ग का प्रथम पड़ाव ‘वैकठपुर’ ही था जहां लोग बाबा के दर्शन-पूजन के बाद आगे की यात्रा किया करते थे।
मंदिर के बाहरी बरामदे के ऊपरी कक्षा के गुम्बद के अंदर शिव कथा व शिव परिवार से जुड़े चित्रांकन भक्तों को अति आनंद प्रदान करते हैं। भ्रमण-दर्शन में साथ में गए जानकार अमित कुमार बताते हैं कि बाबा का महालिंग और मंदिर दोनों ऐतिहासिक है और यही इसकी विशिष्टता का आधार है जो जिस भाव से आता है बाबा अवश्य पूरित करते हैं। मुख्यद्वार पर बना सिंह द्वार हरेक जाने -आने वालों को मंदिर दर्शन का निमंत्रण देता है तो अंदर के द्वार पर बैठे शिव-पार्वती मंदिर दर्शन के मार्ग को प्रशस्त कर भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। श्रावण के पूर्व मंदिर का नवशृंगार कराया जा रहा है ताकि श्रावण में आने वाले भक्तों को कोई परेशानी न हो। यह जानकारी की बात है कि राजा मानसिंह ने अपने गया प्रवास काल (1587 से 1594 ई.) के मध्य गया में पांच व फतुहा क्षेत्र में एक शिवालय बनवाए। उनमें मानपुर (गया) का नीलकंठेश्वर और फतुहा खुशरूपुर का गौरी शंकर इतिहास प्रसिद्ध है। सचमुच धर्म व प्रकृति का संगम स्थल है गौरी शंकर महादेव, जहां की साधना कभी निष्फल नहीं होती।