धरती पर कुछ ऐसे विशिष्ट तीर्थ स्थल भी हैं, जहां परमपिता परमात्मा ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर लोककल्याणार्थ न सिर्फ अपनी लीलाओं का संचालन किया वरन् अपने भक्तों को दर्शन-उपदेश से चमत्कृत भी किया। ऐसा ही एक अति प्राचीन जाग्रत तीर्थ स्थल बिहार राज्य की राजधानी पटना से तकरीबन 105 कि. मी. दूरी पर स्थित है इसे पुण्यमय मोक्षतीर्थ गया कहा गया है। ज हां तक नामकरण का सवाल है कि इस तीर्थ का नाम गया क्यों पड़ा? इस पर मुख्य रूप से तीन मत मिलते हैं। प्राच्य भारतीय वांङ्गमय में ऋग्वैदिक कालीन चक्रवर्ती सम्राट गय का उल्लेख है।
कुछ लोग उसे अमूत्र्तरयस के पुत्र राजर्षि गया बताते हैं, जिसपर इस नगर का नामकरण हुआ। गया तीर्थ का संबंध देवश्री सूर्य नारायण के ज्येष्ठ पुत्र सुघुन्न के पुत्र ‘गय’ से भी जोड़ा जाता है, जिन्होनें इस क्षेत्र में 900 अश्वमेध यज्ञ किए थे। पर सर्वमान्य तर्क यह है कि गया का नामकरण विष्णु भक्त धर्मनिष्ठ असुर गया पर हुआ जिसके शरीर पर पंचकोशी गया तीर्थ आसीन है। भारतीय धर्मशास्त्र में प्रायः प्रत्येक तीर्थ को किसी न किसी संज्ञा से अभिहित किया जाता है। इसी क्रम में यह अक्षरशः सत्य है कि गया समस्त ‘भारतीय तीर्थों का प्राण है। मानव जीवन के तरण तारण हेतु जगत् पिता ब्रह्मा जी द्वारा जिन-जिन तीर्थों का स्थापन और विकास किया गया उसमें गया पांक्तेय है। वैदिक काल से आबाद गया मध्यकाल में चार फाटक व तेरह खिड़की से युक्त सुदीर्घ चार दीवारियों के बीच फलता-फूलता रहा, इस क्षेत्र को आज अंदर गया कहा जाता है।
अंग्रेजों के जमाने में भी गया विकास-पथ पर अग्रसर रहा और नगर ‘साहेबगंज’ के नाम से एक ओर प्रसिद्ध हुआ। इसी काल में गया नगरस्थ पिंडवेदियों की सुधि ली गई। आज भी नगर में यत्र-तत्र-सर्वत्र पिंड वेदियों की उपस्थिति कायम है जो मंदिर, नदी, पहाड़, वृक्ष व तालाब के रूप में उपस्थित हैं। ऐसे तो भारत देश में श्राद्ध, पिंडदान व तर्पण के कितने ही स्थल हैं पर इन सब में गया की महत्ता सर्वाधिक है। यहां के धार्मिक अनुष्ठान से पितरों को सायुज्य मुक्ति व अक्षय तृप्ति होती है। पुरा काल में यहां 365 पिंडवेदी उपस्थित थीं जहां एक-एक दिन करके पूरे वर्ष तक श्राद्धादि का कार्य निरंतर चलता रहता था, पर अब इसकी संख्या 45 के करीब ही शेष बची है जिसमें ‘श्री विष्णुपद’, ‘‘फाल्गुजी’ ‘व’ ‘अक्षयवट’ को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भ्रमणशील संस्कृति का मूर्धन्य केंद्र गया युगों-युगों से श्राद्ध पिंडदान का सर्वमान्य केंद्र रहा है जहां वैदिक काल से आज तक प्रत्येक ऐतिहासिक युग में किसी न किसी महानात्मा का पर्दापण होता रहा है।
यहां वैदिक काल के बाद रामायण काल में श्री राम, लक्ष्मण, जानकी व भरत लला का आगमन हुआ। महाभारत काल में पांचों पांडवों ने गया के धर्मारण्य में चतुर्मास समपन्न किए थे। तथागत के दादा अयोधन ने यहां पिंडदान किया और स्वयं इसी भूमि पर सिद्धार्थ बुद्धत्व की प्राप्ति की। बाद के समय में राजा अशोक, पुण्यमित्र युंग, समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, राजा अनुनयकर्मा, आदित्य वर्मन, आदि शंकराचार्य, फारहान, ह्येनसांग, इत्सिंग, (धर्म स्वामी), लामा तारानाथ, राजा मान सिंह, गुरुनानक , चैतन्य महाप्रभु, कबीर, गुरु तेग बहादुर, महाराजा तथा राजा राम मोहन राय, कबीर, रविंद्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद, मां शारदा, साईं बाबा, श्री श्री विजय कृष्ण गोस्वामी, महात्मा गांधी, विनोबा भावे, डाॅ. राजेंद्र बाबू सरीखे महानात्माओं ने समय-समय पर गया में उपस्थित होकर गया के इस धार्मिक अनुष्ठान को पुष्पित-पल्लवित किया है।
आज भी पितृपक्ष के दौरान यहां देश-विदेश से लाखों हिन्दुओं का आगमन होता है। गया में ‘स्वपिंडदान केंद्र’ भी है जो अन्यत्र दुर्लभ है। ध्यान देने की बात है कि गया को वेद-पुराणों में ‘‘पितृतीर्थ’’ कहा गया है। गया की भूमि पितरेक्षरों की भूमि है तो पितरों का तीर्थ व पूर्वजों का धाम है जहां आदि अनादि काल से श्रद्धा पिंडदान का कार्य होता चला आ रहा है और आज भी इसकी परंपरा अक्षुण बनी है। इसलिए प्राचीन काल से ही गया की प्रकृति धर्ममय है। गया की भूमि पुण्यमय तीर्थ की भूमि है, योग व साधना की दिव्य स्थली है। ताल-तलैया, शैल शिखरो व मंदिरों से युक्त गया प्राकृतिक सौंदर्य का सुंदर दृश्यमान उपस्थित करता है।
कहते हैं पितृपक्ष के समय यहां समस्त पितरों का आगमन होता है जो अपने परिजनों से तृप्त होने के लिए आशान्वित रहा करते हैं। यही कारण है कि पितृपक्ष के दिनों में समस्त देश-दुनिया के हिंदुओं का यहां जमावड़ा लग जाता है।