2017 में सूर्य व चंद्र ग्रहण
2017 में सूर्य व चंद्र ग्रहण

2017 में सूर्य व चंद्र ग्रहण  

सीताराम सिंह
व्यूस : 5866 | जनवरी 2017

ब्रह्मांड में सभी ग्रह तथा पृथ्वी अपने निर्धारित पथ पर सूर्य की निरंतर परिक्रमा करते हैं। जब चंद्रमा गोचर करते हुए सूर्य और पृथ्वी के मध्य आकर अपनी छाया से सूर्य को ढंक लेता है तो सूर्य ग्रहण होता है और जब पृथ्वी चंद्र और सूर्य के मध्य आकर अपनी छाया से चंद्र को ढंकती है तो चंद्र ग्रहण होता है। सूर्य ग्रहण के पहले या बाद में चंद्र ग्रहण अवश्य होता है। जिन देशों में ग्रहण दिखाई देता है वहां प्राकृतिक आपदाएं आती हैं।

पूर्ण ग्रहण को ‘खग्रास’ तथा अपूर्ण ग्रहण को ‘खंडग्रास’ कहते हैं। सूर्य ‘खग्रास’ के अवसर पर जब चंद्रमा ठीक सूर्य के मध्य से गोचर करता है, उस समय सूर्य का परिमंडल (गोलाकार चमकदार किनारा) ‘कंकण’ रूप में दिखाई पड़ता है। ऐसा अद्भुत दृश्य कुछ क्षण के लिए वर्षों में कभी-कभी दिखाई देता है। पूर्ण सूर्य ग्रहण अधिकतम 7 मिनट 30 सेकंड ही रह सकता है, जबकि पूर्ण चंद्र ग्रहण अधिकतम एक घंटा 45 मिनट तक का हो सकता है।

ग्रहणों का एक चक्र 18 सौर वर्ष और 11 दिन में पूरा होता है। इस अवधि के बाद ग्रहणों के क्रम की पुनरावृत्ति होती है। एक वर्ष में कम से कम 2 और अधिकतम 7 ग्रहण हो सकते हैं। चंद्र ग्रहण सूर्य ग्रहण के बराबर या अपेक्षाकृत कम होते हैं।

जैसे - 7 ग्रहणों में 4 या 5 सूर्य ग्रहण तथा 3 या 2 चंद्र ग्रहण हो सकते हैं। सूर्य ग्रहण की अपेक्षा चंद्र ग्रहण पर पृथ्वी की छाया चंद्रमा को अधिक बार पूर्णरूपेण ढंक लेती है। सूर्य ग्रहण कभी भी पूरी पृथ्वी पर दृष्टिगोचर नहीं होता परंतु चंद्रग्रहण अधिकतर संपूर्ण पृथ्वी पर दिखाई देते हैं। वर्ष 2017 में 2 सूर्य ग्रहण तथा 2 चंद्र ग्रहण होंगे।


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10 फरवरी को रात्रि 28 बजकर 4 मिनट से 11 फरवरी प्रातः 8 बजकर 23 मिनट (कुल 4 घंटे 19 मिनट) तक चंद्र ग्रहण भारत में दृश्य होगा। 26 फरवरी का ‘कंकण’ सूर्य ग्रहण भारत में नहीं दिखेगा। 7 अगस्त को 21 बजकर 20 मिनट से 5 घंटे का आंशिक चंद्र ग्रहण भारत में दिखाई देगा। अगस्त 21, 2017 का पूर्ण (खग्रास) सूर्य ग्रहण भारत में अदृश्य रहेगा

इस प्रकार दोनों सूर्य ग्रहण भारत में नहीं दिखेंगे, जिससे इनका देश पर अशुभ प्रभाव नगण्य रहेगा। चंद्र ग्रहण पूर्णिमा को और सूर्य ग्रहण अमावस्या को घटित होता है, परंतु प्रत्येक पूर्णिमा या अमावस्या को ग्रहण नहीं होता, क्योंकि हर बार सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी एक धुरी में नहीं होते तथा कुछ ऊपर या नीचे रह जाते हैं। जिस पूर्णिमा को सूर्य तथा चंद्रमा के अंश, कला और विकला पृथ्वी के समान होते हैं उसी पूर्णिमा को चंद्र ग्रहण होता है।

इसी प्रकार जिस अमावस्या को सूर्य तथा चंद्रमा के अंश, कला और विकला पृथ्वी के समान होते हैं तो सूर्य ग्रहण होता है। भारतीय ग्रहण ज्ञान हजारों वर्ष पहले ‘सूर्य सिद्धांत’ ग्रंथ में बताया गया था कि चंद्र ग्रहण का कारण उस पर पृथ्वी की छाया पड़ना है, तथा सूर्य ग्रहण चंद्रमा की छाया पड़ने से होता है। दैवज्ञ भास्कराचार्य के अनुसार आकाश में प्रकाशमान पिंडों के सामने जब कोई अप्रकाशित और अपारदर्शक पिंड आ जाता है तब उस ज्योतिर्पिंड का प्रकाश छिप जाता है

और दूसरी ओर वालों को केवल छाया दिखाई देती है। इस स्थिति को ‘ग्रहण’ कहते हैं। ‘ग्रहण’ का उल्लेख आदिकाव्य ‘वाल्मीकि रामायण’ (सुंदरकांड) में तथा आचार्य कालिदास रचित ‘रघुवंश’ में भी मिलता है। आचार्य वराहमिहिर ने भी ‘बृहत् संहिता’ ग्रंथ (560 ई.) में ग्रहणों के बारे में विस्तृत विवरण दिया है। आधुनिक खगोलशास्त्री और वैज्ञानिक भास्कराचार्य और वराहमिहिर के विचारों का अनुमोदन करते हैं। यह मानते हैं कि सूर्य किरणों के पृथ्वी पर नहीं पहुंचने का प्रभाव मनुष्यों के शरीर पर पड़ता है।

पाचन क्रिया मंद पड़ती है तथा वातावरण में कई प्रकार के विषाणुओं में वृद्धि होती है। शरीर का तापमान गिरता है तथा रक्त प्रवाह में शिथिलता आती है। ‘सूर्य ग्रहण’ को बिना उचित आवरण के देखने पर आंखों की दृष्टि हानि होती है। परंतु वे ग्रहण के धार्मिक पक्ष को स्वीकार नहीं करते और ग्रहण को केवल ग्रहों के परिक्रमण की एक खगोलीय घटना मानते हैं। वैदिक ज्योतिष शास्त्र में ग्रहण का महत्व ‘ग्रहण’ का प्रभाव पूरी सृष्टि के मनुष्यों व जीव-जंतुओं पर पड़ता है। ‘ग्रहण’ आने वाली विपदा के सूचक होते हैं।

ग्रहण के मुख्य प्रभाव इस प्रकार होते हैं:

1. सूर्य ग्रहण के 15 दिन बाद चंद्र ग्रहण हो तो शुभ फलदायक होता है।

2. चंद्रग्रहण के 15 दिन बाद सूर्य ग्रहण अशुभ प्रभावी होता है।

3. यदि एक पक्ष में ही 2 ग्रहण पड़े तो विश्व में उपद्रव, युद्ध तथा प्राकृतिक प्रकोपों से जन, धन और अन्न की हानि होती है। महाभारत का युद्ध इसका प्रमुख प्रमाण है।


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4. विनाशकारी भूकंप अधिकतर ग्रहण के निकट स्थान पर अर्धरात्रि या प्रातःकाल में आते हैं।

5. कुंडली के जिस भाव में ग्रहण लगता है उस भाव के फल प्रभावित होते हैं।

6. जन्मकुंडली में जिस अंश पर ग्रहण लगता है इस अंश के पास यदि कोई ग्रह हो तो ग्रहण का उस पर प्रभाव पड़ता है। वह ग्रह जिसका स्वामी व कारक होगा उसका अशुभ फल मिलेगा।

7. ग्रहण के समय जन्मे शिशु के माता-पिता को दुःख और विपत्ति का सामना करना पड़ता है। अतः ग्रहण दोष की शांति करवानी चाहिए।

8. अग्नि तत्व राशि में ग्रहण शासक वर्ग के लिए अनिष्टकारक होता है तथा इसके कारण आगजनी व युद्ध की संभावना होती है।

9. पृथ्वी तत्व राशि में ग्रहण आंधी तूफान से हानि दर्शाता है। 16-9-2016 के वायु तत्व राशि में लंबे चंद्र ग्रहण से सामुद्रिक तूफान द्वारा चीन, ताईवान व फिलीपीन्स में भारी तबाही हुई थी।

11. जल तत्व राशि में ग्रहण बाढ़ एवं वर्षा से कष्ट तथा जन व जीवन की हानि दर्शाता है।

12. ग्रहण पर शुभ बृहस्पति की दृष्टि अशुभ प्रभाव को कम करती है तथा अशुभ शनि की दृष्टि अशुभ प्रभाव की वृद्धि करती है। ग्रहण फल प्राप्ति काल

1. खग्रास (पूर्ण) ग्रहण का फल 20 दिनों में घटित होता है।

2. त्रिपाद (3/4) ग्रहण का फल एक मास में होता है।

3. अर्द्ध (1/2) ग्रहण का फल दो मास में होता है।

ग्रहण काल में धार्मिक कृत्य ग्रहण के तीन दिन पहले और तीन दिन बाद तक शुभ कार्य वर्जित होते हैं। ग्रहण जनित दोष को दूर करने के लिये पवित्र नदियों व जलाशयों में स्नान व इष्ट देव का मंत्र जाप तथा पूजन करना चाहिए। ग्रहण मोक्ष (समाप्ति) के बाद पुनः स्नान कर दान करना शुभ फलदायी होता है।

‘धर्म सिंधु’ ग्रंथ के अनुसार ग्रहण लगने पर समयानुसार पवित्र नदियों में स्नान, ग्रहण के मध्यकाल में पूजन, हवन और श्राद्ध तथा जब ग्रहण समाप्त होने वाला हो तब पुनः स्नान कर दान करना चाहिए। यदि सूर्य ग्रहण रविवार को हो और चंद्र ग्रहण सोमवार को हो तो उस समय स्नान, पूजा, जप, हवन तथा दान का कई गुना शुभ फल मिलता है।

पुराणों में चंद्र ग्रहण काल स्नान का महत्व वाराणसी में और सूर्य ग्रहण काल में स्नान का महत्व पुष्कर व कुरूक्षेत्र में बताया गया है। श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध (उत्तरार्द्ध) के अनुसार श्रीकृष्ण के पिता श्री वासुदेवजी ने सूर्य ग्रहण के अवसर पर कुरूक्षेत्र में स्नान तथा यज्ञ किया था। ‘अगस्त संहिता’ के अनुसार सूर्य ग्रहण ‘मंत्र साधना’ के लिये श्रेष्ठ समय होता है। ‘चंद्र ग्रहण’ की अपेक्षा ‘सूर्य ग्रहण’ काल मंत्र-तंत्र साधना तथा सिद्धि के लिए विशेष शुभफलदायी माना गया है। सूर्य ग्रहण से चार पहर (12 घंटे) और चंद्र ग्रहण से तीन पहर (9 घंटे) पहले सूतक लगता है और मंदिरों के पट बंद रहते हैं।


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सूतक में वैष्णवों, विधवाओं और विरक्तों को भोजन कराना निषेध है। केवल बालक, वृद्ध और रोगी को छूट दी गई है। ग्रहण काल में हास्य विनोद और सोना निषेध है। ग्रहण काल में दूध, दही, पका हुआ अन्न और जल में कुश अथवा तुलसी-पत्र डालकर रखने का शास्त्रोक्त विधान है। इससे उन वस्तुओं पर हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता। गर्भवती महिला को न तो ग्रहण देखना चाहिए और न घर से बाहर जाना चाहिए। इससे गर्भस्थ शिशु को हानि नहीं होती। ग्रहण काल की विशिष्ट साधनाएं

1) ग्रहण काल में ‘गायत्री मंत्र’ जाप रोजगार में सफलता देता है।

2. ‘महामृत्युंजय मंत्र के जाप से रोग मुक्ति होती है।

3. धन प्राप्ति के लिए ‘श्री यंत्र’ की पूजा कर ‘कनकधारा स्तोत्र, ‘श्री सूक्त’ या ‘लक्ष्मी सूक्त’ का यथाशक्ति जप करना चाहिए।

4. राहु जनित कष्ट निवारण के लिए ‘शिव आराधना’ करनी चाहिए।

5. साढ़ेसाती होने पर ‘शनि मंत्र’ का जप तथा ‘राजा दशरथ कृत शनि स्तोत्र’ का यथाशक्ति पाठ करना चाहिए।

6. ‘चंद्र ग्रहण’ के समय रात्रि में विद्याकारक मंत्रों के जप से बुद्धि प्रखर होती। चंद्र राशि से ग्रहण का प्रभाव ः ग्रहण का व्यक्ति की जन्मकुंडली में चंद्र राशि से विभिन्न भावों में प्रभाव राहु के गोचर फल के समान होता है।

1. मेष - रोग, स्वास्थ्य हानि व घात की संभावना।

2. वृष - धन हानि

3. मिथुन - धनागमन तथा सुख की प्राप्ति

4. कर्क - दुःख, हानि और माता को कष्ट

5. सिंह - पुत्र चिंता तथा धन हानि।

6. कन्या - सुख में वृद्धि

7. तुला - स्त्री वियोग, व्यर्थ भ्रमण तथा व्यापार में हानि होती है।

8. वृश्चिक - कष्ट, रोग, व मृत्यु का भय होता है।

9. धनु - मानहानि तथा पिता को कष्ट होता है।

10. मकर - कार्य सिद्धि व लाभ प्राप्त होता है।

11. कुंभ - लाभ, और भाग्य वृद्धि होती है।

12. मीन - हानि और व्यय की अधिकता होती है।



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