फलदीपिका ग्रंथ के अनुसार:- दुःस्थानभष्टमरिपु व्ययभावभाहुः सुस्थानमन्य भवन शुभदं प्रदिष्टम्। (अ. 1.17) अर्थात् ‘‘जन्मकुण्डली के 6,8,12 भावों को दुष्टस्थान और अन्य भावों को सुस्थान कहते हैं।’’ अन्य भावों में केन्द्र (1,4,7,10) तथा त्रिकोण (5,9) भाव विशेष षुभकारी माने गये हैं। इन भावों मे स्थित राषियों के स्वामी ग्रह जातक को जीवन में सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। इन षुभ भावों के स्वामियों की षुभ भावों में युति अथवा सम्बन्ध होने पर ‘राजयोग’ का निर्माण होता है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति अपने पुरूषार्थ द्वारा प्रगति और सुख-समृद्धि का उपभोग कर संतोष प्राप्त करता है। केन्द्र व त्रिकोण के स्वामियों की परस्पर दृष्टि, युति व स्थान परिवर्तन से उत्तम राजयोग का निर्माण होता है।
षष्टम भाव की अशुभता रोग, चोट, ऋण और शत्रु के कारण सुखों को कम करती है। अष्टम भाव की अशुभता जातक की क्षीण आयु/ स्वास्थ्य, वैवाहिक सुख की कमी तथा अन्य कठिनाइयों के कारण सुखों में कमी करती है। द्वादश भाव की अशुभता सभी प्रकार के सुख, वैभव, धन तथा शैय्या सुख का नाश करती है। षष्ठम्, अष्टम् व द्वादश भावों को ‘त्रिक’ भाव की संज्ञा दी गई है। इनमें से अष्टम भाव को सर्वाधिक अशुभ और द्वादश भाव सबसे कम अशुभ माना गया है। ‘भावात् भावम्’ के सिद्धान्त अनुसार षष्ठ से षष्ठ एकादश भाव, तथा अष्टम् भाव से अष्टम् तृतीय भाव को कुछ कम अशुभ माना गया है। परन्तु त्रिक भावों (6, 8 व 12) की एक विशेषता भी है।
इन भावों के स्वामी अपने ही भाव में, या इनमें से किसी भाव में, स्थित होकर बिना परिश्रम के (लॅटरी, सट्टा, जुआ, गड़े धन, वसीयत आदि द्वारा) राजयेाग से भी अधिक धन-समृद्धि व यश प्रदान करते हैं। इस स्थिति को ‘विपरीत राजयोग’ की संज्ञा दी गई है। कुण्डली में विपरीत राजयोग बनाने वाले ग्रहों की दशा-भुक्ति के समय राजयोग से कई गुना अधिक लाभ व समृद्धि व्यक्ति को मिलती है। आचार्य कालिदास ने अपने ग्रंथ ‘उत्तर कालामृत’ (अ.4.22) में विपरीत राजयोग के संदर्भ में कहा है: रन्ध्रेशो व्ययषष्ठगो रिपुपतौ रन्ध्रेव्यये व स्थिते रिःफेशोऽपि तथैव रन्ध्ररिपुभे यस्यास्ति तस्मिन्वदेत। अन्योन्यक्र्षगता निरीक्षण युताश्चान्यैर युक्तेक्षिता जातोऽसौ नृपतिः प्रशस्त विभवो राजाधिराजेश्वरः।। अर्थात् ‘‘ अष्टमेश यदि व्यय या षष्ठ में हो, षष्ठेश यदि अष्टम् अथवा व्यय में हो, व्ययेश यदि षष्ठ अथवा अष्टम् भाव में हो, और इन नेष्ट भावों के स्वामियों की युति, दृष्टि अथवा व्यत्यय द्वारा परस्पर सम्बन्ध भी हो, परन्तु अन्य किसी ग्रह से युति अथवा दृष्टि सम्बन्ध न हो, तो जातक वैभवशाली राजराजेश्वर समान होता है।
’’ ऐसा शुद्ध ‘विपरीत राजयोग’ बहुत कम कुण्डलियों में मिलता है, अतः लाभ भी उसी अनुपात मे ंजातक को मिलता है। आचार्य मंत्रेश्वर ने अपने ग्रंथ ‘फल दीपिका’ में ‘षष्ठेश’ की 6,8,12 भाव में स्थिति को ‘हर्ष योग’ (अ.6.62) का नाम दिया है। ऐसा व्यक्ति सुखी, भाग्यशाली, स्वस्थ, शत्रुहन्ता, यशस्वी, उच्च मित्रों वाला और पुत्रवान होता है। अष्टमेश की ऐसी स्थिति से ‘सरल योग’ (अ.6.65) बनता है। ऐसा व्यक्ति दृढ़ बुद्धि, दीर्घायु, निर्भय, वि़द्वान, पुत्र व धन से युक्त, शत्रु विजेता, सफल और विख्यात होता है। द्वादशेश की ऐसी स्थिति होने पर ‘विमलयोग’ (अ.6.69) बनता है। ऐसा व्यक्ति धनी, कम खर्च करने वाला, स्वतंत्र, श्रेष्ठ, गुणी और प्रसिद्व होता है। जन्म लग्न के साथ-साथ चन्द्र राशि से भी ‘विपरीत राजयोग’ का आकलन करना चाहिए। दोनो लग्नों से बने विपरीत राजयोग के फल पूर्ण रूप से मिलते हैं। ‘विपरीत राजयोग’ बनाने वाले ग्रह कम अंशो पर , दुर्बल होने, तथा उन पर दुष्प्रभाव के अनुपात में अधिकाधिक शुभ फल देते हैं। परन्तु शक्तिशाली पापी ग्रह के अशुभ भाव में स्थित होने पर जातक की हानि करते हैं।
ज्योतिषीय तथ्यों के गूढ़ अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि जातक की जन्म कुण्डली में स्थित ‘राजयोग’ उसके पूर्वजन्म के अच्छे कर्मों का फल होता है, जबकि ‘विपरीत राजयोग’ पूर्व जन्म में अच्छे कार्य, परिश्रम एवं तात्कालिक सामाजिक आचार संहिता के पालन के बावजूद पीड़ित रहने वाले जातक की इस जन्म की कुण्डली में पाये जाते हैं। वह पूर्व जन्म में जिन लोगों द्वारा सताया गया था उन्हीं लोगों की ओर से इस जन्म में उसके वर्तमान कर्मों का कई गुना अधिक फल देने का कार्य ‘विपरीत राजयोग’ करते हैं। इस जन्म में विपरीत राजयोग के कारण जातक को अत्यधिक लाभ होता है। परन्तु पूर्व संस्कार-वश उसकी नियति परमार्थिक हो जाती है जिससे मृत्योपरान्त उसकी ख्याति काफी समय तक रहती है। स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि षष्ठ और अष्टम् दुष्ट भावों के स्वामी किस प्रकार ‘विपरीत राजयोग’ बनाकर जातक को लाभ पहुंचाते हैं।
यह कार्य प्रणाली इस प्रकार है लग्न भाव जातक को दर्शाता है और सप्तम भाव उस व्यक्ति को जिससे वह सम्बन्ध रखता है। षष्ठ भाव सप्तम से द्वादश (व्यय) भाव है, तथा अष्टम भाव सप्तम से द्वितीय (धन) भाव है। सम्बन्धी व्यक्ति के 2 व 12 भावों का विनिमय उसकी हानि करता है। और उसका लाभ जातक को मिलता है। उदाहरणार्थ, जब जातक की षष्ठ व अष्टम भावेशों की दशा-भुक्ति चलती है उस समय पर कोई व्यक्ति किसी मजबूरी से अपनी प्रोपर्टी कम मूल्य में जातक को बेच देता है। कुछ समय बाद उसकी कीमत अत्यधिक ऊँची हो जाती है और जातक उसे बेच कर बहुत अधिक लाभ कमा लेता है।
छठे और आठवें भाव के स्वामी पापी ग्रह हों, और उन पर जितना पाप प्रभाव हेागा, उतना ही अधिक शुभ फल प्राप्त होगा। जन्म कुण्डली में ‘विपरीत राजयोग’ का उत्कृष्ट उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री श्री चन्द्रश्खर की कुण्डली में मिलता है। मेष लग्न की इस कुण्डली में अन्य शुभ योग के अतिरिक्त, तृतीय व षष्ठ भावों का स्वामी बुध द्वादश भाव में स्थित है। अष्टम् भाव का स्वामी मंगल तृतीय (अष्टम से अष्टम) भाव में राहु के साथ स्थित है। एकादश (षष्टम् से षष्टम् ) भाव का स्वामी शनि अष्टम भाव में है। द्वादश भाव का स्वामी एकादश भाव में है। इस प्रकार 6,8,12 भाव के स्वामी अन्य अशुभ स्थानों में हैं। किसी बड़ी पार्टी का नेता न होने पर भी उन्हें धन, मान, सम्मान, सफलता एवं भौतिक सुख साधन प्राप्त हुए, और थोड़े समय के लिए वे प्रधानमंत्री के पद पर भी आसीन रहे।