पितृ मोक्ष प्राप्ति के लिए अमावस्या को पितृगणों के निमित्त यथाशक्ति पूजन, दान तथा श्राद्ध पक्ष में पितृगणों की मृत्यु तिथि पर शुद्ध सात्विक चित्त वाले ब्राह्मण को भोजन कराना, वस्त्र व दक्षिणा देना लाभदायक बताया गया है। गया जी (फल्गु नदी के किनारे, बिहार), नाभि गया (जाजपुर, उड़ीसा), पादगया (पीठापुर, आंध्रप्रदेश), मातृ गया (मेहसाना, गुजरात), तथा ब्रह्मकपाल (बद्रीनाथ) में पितृ पक्ष के समय श्राद्ध व तर्पण करना शास्त्रोक्त सर्वोत्तम विधि है। बहुत से लेखकों के अनुसार ‘पितृदोष’ जन्मकुंडली में निम्न ग्रह स्थिति होने पर बताया जाता है:-
1. सूर्य राहु से युत हो तथा उसपर शनि की दृष्टि या युति हो।
2. सूर्य पंचम भाव में राहु के साथ हो और शनि की युति या दृष्टि हो।
3. सूर्य शनि के साथ हो और उनपर राहु की दृष्टि या युति हो।
4. चंद्रमा के साथ भी उपरोक्त ग्रह स्थिति ‘पितृ दोष’ का निर्माण करती है।
5. अमावस्या तिथि में जन्मे जातक की कुंडली में सूर्य और चंद्रमा की युति के समय उनके राहु और शनि से ग्रस्त होने पर ‘महापितृदोष’ कहा जाता है।
अन्य लेखक निम्न ग्रह स्थिति को जोड़कर ‘पितृ दोष’ की परिधि का विस्तार करते हैं।
1. त्रिकेशों (6, 8, 12 भाव के स्वामी) का किसी प्रकार से लग्न व लग्नेश को प्रभावित करना ‘पितृदोष’ का सूचक होता है।
2. लग्नेश नीच राशि या नीच नवमांश में हो तो पितृदोष विशेष प्रभावशाली होता है।
3. लग्नेश कुंडली में शत्रु राशि मे स्थित हो और शनि, राहु, केतु व मंगल के ‘पापकत्र्तरी’ प्रभाव में हो, और सूर्य व चंद्र त्रिक भाव में या त्रिकेशों के साथ स्थित हों, तो ‘पितृदोष’ होता है।
4. कुंडली में यदि राहु व शनि संबंध बनायें और लग्न या लग्नेश में से किसी भी एक को प्रभावित करें तो जातक ‘पितृदोष’ से पीड़ित होता है।
5. कुंडली में शुक्र का राहु, शनि या मंगल द्वारा पीड़ित होना भी ‘पितृदोष’ का सूचक होता है।
6. पंचम भाव में सूर्य तुला (नीच) राशि एवं मकर या कुंभ नवांश में हो और पंचम भाव ‘पापकत्र्तरी’ प्रभाव में हो तो ‘पितृदोष’ से संतान नहीं होती।
7. पंचम भाव में सिंह राशि हो, पंचम या नवम भाव में पापी ग्रह हों व सूर्य भी पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो ‘पितृदोष’ के कारण संतान हानि होती है।
8. लग्नेश नीच राशि, नीच नवांश या शत्रु राशि में पंचमस्थ हो, पंचमेश व सूर्य की युति हो, लग्न व पंचम दोनों भावों पर पापी ग्रहों का प्रभाव हो तो जातक को ‘पितृदोष’ के कारण संतान नहीं होती।
9. व्ययेश लग्न में, अष्टमेश पंचम में व दशमेश अष्टम में हो तो ‘पितृ दोष’ के कारण संतान नहीं होती या संतान हानि होती है।
ज्योतिषीय तथ्य ज्योतिष शास्त्रानुसार सूर्य को पिता का, चंद्रमा को माता का, शुक्र को पत्नी का एवं बृहस्पति को पति, पुत्र तथा धन का कारक माना गया है। पापी ग्रह विशेषकर शनि व राहु (शनिवत राहु) अपने स्वभावानुसार विघ्न, दुःख, रोग तथा कष्टकारक होते हैं। उनकी शुभ ग्रहों पर दृष्टि या युति शुभ फलों में कमी लाती है। राहु की सूर्य और चंद्रमा से युति होने पर ग्रहण लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्य (पिता) व चंद्रमा (माता) के ग्रसित होने को कालान्तर में ‘पितृदोष’ व ‘पितृ ऋण’ की संज्ञा दे दी गई। आचार्य वाराहमिहिर ने ‘बृहत्संहिता’ ग्रंथ (अ. 5) में सूर्य और चंद्र ग्रहण का विस्तार से वर्णन करते समय उसके द्वारा ‘पितृ दोष’ निर्माण होने की बात नहीं कही है। ‘बृहत् जातक’ ग्रंथ में भी उन्होंने ‘पितृ दोष’ का उल्लेख नहीं किया है।
‘मुहूर्त गणपति’ व ‘मुहूर्त चिंतामणि में ग्रहण फलादेश के समय पितृदोष की बात नहीं की है। ‘सारावली’, जातक पारिजात’, तथा ‘सर्वार्थ चिंतामणि’ नामक ग्रंथों में भी पितृ दोष का वर्णन नहीं मिलता। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘प्रश्न मार्ग’ (अ. 15) में ‘पितृ शाप’ का उल्लेख है परंतु वह (1) सूर्य व चंद्र के 6, 8, 12 भाव में मंगल की राशि व नवांश में होने पर, तथा (2) पापी ग्रह के सिंह व कर्क राशि में त्रिक (6, 8, 12) भाव में होने पर बताया गया है। इसके निवारण हेतु ग्रंथानुसार अपने जीवित माता-पिता की सेवा तथा मृत्योपरांत उनका वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए।
‘फलदीपिका’ ग्रंथ के संताप भाव अध्याय (श्लोक 19) में बताया गया है कि पंचमेश शत्रु राशि, नीचस्थ, अस्त हो, या 6, 8, 12 भाव में स्थित हो, अथवा 6, 8, 12 भावेश या कोई नीचस्थ या अस्त ग्रह पंचम भाव में हों तो संतान प्राप्ति में बाधा होती है। ऐसी स्थिति में दोषकारक ग्रह व उसके देवता की पूजा करने, ग्रह की समिधा (लकड़ी) से हवन करने तथा ग्रह संबंधी वस्तुओं व पशु का दान आदि शुभ कार्यों से दोष-शांति होकर संतान सुख प्राप्त होता है।
उदाहरणार्थ
1. यदि राहु पंचम भाव या पंचमेश को दूषित करे तो ‘सर्पशाप’ से संतान बाधा होती है जिसके लिए, सर्प पूजा व शिव पूजन करनी चाहिए। दूर्वा या कुश की समिधा से हवन करें तथा कंबल या काले पशु का दान करें। केतु से ब्राह्मण शाप प्रतीत होता है, अतः ब्राह्मणों की सेवा कर आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए।
2. शनि संतान बाधक होने पर भगवान रूद्र की पूजा करें, पीपल को जल चढ़ायें व पूजा करें, शम्मी की समिधा से हवन करें तथा बकरी व शनि-प्रीतकारी वस्तुओं का दान दें।
3. सूर्य बाधक होने पर गायत्री जप, सूर्योपासना, आदित्यहृदय स्तोत्र’ का पाठ, आक की समिधा से हवन व गाय को गुड़-गेहूं खिलायें।
4. चंद्रमा दोषकारक होने पर दुर्गा, शिव या पार्थिवेश्वर महादेव का पूजन करें। ढाक की समिधा व जड़ी-बूटियों से हवन करें तथा गौदान करें।
अन्य ग्रहों के बारे में पाठकगण फलदीपिका (संतान भाव-12वें अध्याय) ग्रंथ से अपनी जिज्ञासा पूर्ण कर सकते हैं। महर्षि पराशर अपने ग्रंथ ‘बृहत पराशर होरा शास्त्र’ में मैत्रेय मुनि से कहते हैं: यस्य यश्च दुःस्थः स तं यत्नेस पूजयेत्। एषां धात्रा वरोदत्तः ‘पूजिताः पूजभिष्यथ’।। अर्थात्, ‘जिस समय कोई ग्रह प्रतिकूल (अशुभफलदाई) हो तो उस ग्रह की यत्नपूर्वक पूजा करें क्योंकि ब्रह्मा ने ग्रहों को वर दिया है कि ‘जो तुम्हारी पूजा करे उसका तुम कल्याण करो।’ अतः संतान, संपत्ति, आयु या समृद्धि की कामना करने वालों को भक्ति पूर्वक संबंधित ग्रह का यज्ञ (जप, हवन, दानादि) करना चाहिए। मैत्रेय मुनि के अन्य प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि पराशर कहते हैं कि ‘लग्न और ग्रह स्थिति उत्तम होने पर भी अमावस्या, कृष्ण पक्ष चतुर्दशी, भद्रा करण, सहोदर व माता या पिता के जन्म नक्षत्र में जन्म, सूर्य की संक्रांति में जन्म, व्यतिपात आदि दुष्ट योग में जन्म होने, तथा तीतर जन्म (तीन पुत्रियों के बाद पुत्र या तीन पुत्रों के बाद पुत्री) अशुभ प्रद होता है।
प्रारब्ध का प्रभुत्व विष्णु पुराण में आख्यान है:- कर्मणा जायते सर्वं कर्मेव गति साधनम्। तस्मात्सर्वं प्रयत्नेन साधुकर्म समाचरेत।। अर्थात् ‘‘स्वयं के कर्म अनुरूप ही सब जन्म पाते हैं और कर्म ही उनकी शुभाशुभ गति के कारक होते हैं। इसलिए यत्नपूर्वक शुभ कार्यों को करना चाहिए। उपरोक्त विवरण दर्शाता है कि जीवन में आने वाली कठिनाइयां जातक के अपने पिछले जन्मों के कर्मों का फल है, न कि ‘पितृदोष अथवा ‘पितृऋण’ के कारण हैं। आचार्य वाराहमिहिर रचित ‘बृहत्जातक’ ज्योतिष ग्रंथ के अनुसार (1.3): कर्माजितं पूर्वभवे सदादि यत्रस्य पक्तिं समभिव्यनकित।
अर्थात् ‘ज्योतिष शास्त्र’ पूर्व जन्म में किए शुभ-अशुभ कर्मों के फल को प्रकट करता है।’ आचार्य कालिदास रचित ‘उत्तरकालामृत’ ग्रंथ के अनुसार पुण्यं वाव्यथ पापरूपमिपि वा कमीर्जितं प्रागभवे। तत्पाकोऽत्र तु खेचरस्य हि दशाभुक्त्यादिभिज्ञयिते।। अर्थात् पुण्य और पाप जो पूर्व जन्म के कर्मों द्वारा अर्जित किये गये हैं, उन्हीं का फल इस जन्म में ग्रहों की दशा भुक्ति द्वारा जाना जाता है।’’ उदाहरणार्थ निम्न कुंडलियां प्रस्तुत हैं: सचिन की कुंडली में नीच के राहु के साथ चंद्रमा होने से पितृ दोष बनता है।
लग्नेश उच्चस्थ नवम भाव में राहु से दृष्ट है। ये सम्मानित धनी व्यक्ति हैं और इनकी दो संतानें हैं। इनके जीवन में भी उतार-चढ़ाव आये परंतु उच्च लग्नेश, चतुर्थ-पंचमेश योग, लग्नेश व दशमेश की नवम भाव में युति से ये विश्वविख्यात और अतुल धनवान हैं तथा पितृदोष निष्प्रभावी रहा। अनिल कपूर की कुंडली में चंद्रमा अष्टम भाव में राहु के साथ है तथा इन पर शनि की दशम दृष्टि से पितृदोष बन रहा है। परंतु योगकारक शुक्र नवम भाव में अपनी मूलत्रिकोण राशि में है।
दशम भाव में स्वक्षेत्री मंगल ‘रूचक’ योग बना रहा है। लग्नेश शनि एकादश भाव में है। ये सफल एक्टर बने और अब प्रोड्यूसर हैं। स्वास्थ्य भी ठीक है। इनकी दो संतानें भी अपने क्षेत्र में सफल हैं। अच्छे ग्रह योग के कारण पितृ दोष निष्प्रभावी रहा। उपरोक्त कुंडलियों में शुभ योगों ने इन्हें सफल, धनवान और सुखी बनाया तथा ‘पितृ दोष’ निष्प्रभावी रहा। किसी भी व्यक्ति का जीवन सदा एक सा नहीं रहता। जीवन की विभिन्न कठिनाइयों को ‘पितृ दोष’ या ‘पितृऋण’ पर आरोपित करना न्यायसंगत नहीं है। पितृ हमारे परम हितैषी हैं। जीवित रहते जो बच्चों के सुख के लिए अनेक कष्ट उठाते रहे, वह मृत्योपरांत उनका अहित कैसे करेंगे? पितृ-अनुकंपा सुलभ और कल्याणकारी है।
जनसाधारण को शास्त्रोक्त धर्माचरण द्वारा पितरों की पूर्ण कृपा प्राप्त करनी चाहिए। पितृ पूजा ईश्वर की ही पूजा है। भगवान श्री कृष्ण ने इस सत्य का उल्लेख अर्जुन के माध्यम से इस प्रकार किया है:- अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्। अर्थात्, मैं ही कर्मकांड हूं, मैं ही यज्ञ तथा पितरों को किया जाने वाला तर्पण हूं।’’ तथा: अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। (गीता, 9.24) अर्थात्,’’ संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूं। अतः प्रत्येक व्यक्ति को भ्रमित न होकर सामथ्र्यानुसार ‘पितृ श्राद्ध’ अवश्य करना चाहिए जो सर्वकल्याणकारी है तथा देवों, ऋषि तथा पितरों के ऋण चुकाने का सुलभ साधन है।
गरुड़ पुराण में श्राद्ध कर्म को यज्ञ कर्म से भी ऊंचा माना गया है। (देवकायदिपि सदा पितृ कार्य विशिष्यते। 10.58) पितरों के प्रसन्न होने पर सारे देवता प्रसन्न हो जाते हैं (पितरं प्रीतिमापन्ने प्रियन्ते सर्व देवता।) और जातक सुखी जीवन व्यतीत करता है।