त्रि पिंडी श्राद्ध करने का अधिकार विवाहित पति-पत्नी के जोड़े को होता है। जिसकी पत्नी जीवित नहीं है, उसे भी यह अधिकार है। अविवाहित व्यक्ति भी यह कार्य कर सकता है हिंदू धर्म में स्त्री को विवाह के पश्चात दूसरे घराने में जाना पड़ता है। इसलिए माता-पिता की मृत्यु के बाद पिंडदान तर्पण श्राद्ध करने का अधिकार उसे नहीं है। किंतु स्त्री भी पिंडदान, त्रिपिंडी श्राद्ध में सहयोग कर सकती है। सफेद वस्त्र पहनकर यह कार्य विधि-विधान के अनुसार करें। श्राद्ध एवं सविधि त्रिपिंडी त्रिपिंडी एक ही उद्देश्य के लिए किया जाने वाला प्रेत श्राद्ध है। इसलिए यह कर्म जानकार सुयोग्य विद्वानों से ही एक तंत्रेण करवा लेना चाहिए। श्रद्धा-विश्वास के साथ शास्त्रानुसार सविधि यह त्रिपिंडी श्राद्ध अवश्य करवाना चाहिए। इस विषय में एक पौराणिक कथा हमें बहुत कुछ बताती है। भीष्म पितामह अपने पिता शांतनु जी का श्राद्ध करवा रहे थे। पिंडदान के लिए जमीन पर कुशा का आसन बिछाया हुआ था। अचानक उस कुशा के आसन के नीचे जमीन से उनके पिता का सोने का कड़ा पहना हुआ हाथ ऊपर आया।
उस हाथ को पहचान कर भीष्म इस संशय में पड़ गए कि अब पिंडदान उस हाथ पर करें या जमीन पर बिछे कुशा के आसन पर। किंतु शास्त्र व्यवस्था के अनुसार एवं अनुरूप हाथ पर पिंड न रखते हुये उन्होंने पिंडदान जमीन पर बिछी कुशा पर किया। श्लोक: श्राद्धं, श्रद्धान्वितं कुर्याध्यास्त्रोक्तर्नेकर्मना। भूमि पिंड ददौ विद्वान भीष्मः पार्वोन् शान्तुनोः।। फिर शान्तनु जी का हाथ अदृश्य हो गया और वे बोले, ‘‘भीष्माचार्य, मैं तुम्हारी शास्त्र विधि के प्रति श्रद्धा की परीक्षा ले रहा था। तुमने शास्त्र पद्धति के अनुसार श्रद्धा विश्वास से मेरे हाथ पर पिंडदान न करते हुए जमीन पर किया और धर्म की मर्यादा का पालन किया, इससे मैं पूर्ण रूप से संतुष्ट हूं।’’ इसका तात्पर्य यही है कि देखा-देखी व अपनी तरफ से कुछ भी न करें और यह कर्म विधिपूर्वक सुयोग्य विद्वान द्वारा ही करवायें, तभी कार्य की सफलता होती है और उसका फल प्राप्त होता है। सितंबर मास के प्रमुख व्रत त्योहार कुशोत्पाटिनी अमावस्या (8 सितंबर) यह भाद्रपद कृष्ण अमावस्या के दिन होती है।
शास्त्र में दस प्रकार के कुश बतलाए गए हैं। कुशाः काशा यवा दूर्वा उशीराश्च सकुन्दकाः, गोधूमा ब्राह्मयो मौज्जा दश दर्भाः सबल्वजाः।। देशकाल के अनुसार इनमें जो प्राप्य हो उसी को ग्रहण कर सकते हैं। जिस कुश का अग्र भाग कटा न हो और वह हरित वर्ण का हो उसे देव तथा पितृ कार्यों में उपयोग योग्य माना गया है। अमावस्या के दिन पवित्र अवस्था में पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके ऊँ हुं फट् इस मंत्र का उच्चारण करके दाएं हाथ से कुश उखाड़ें। और घी में पवित्र स्थान पर रखें। इस कुश का एक वर्ष पर्यंत तक देव तथा पितृ कार्यों में उपयोग कर सकते हैं।
अनन्त चतुर्दशी व्रत (22 सितंबर): यह व्रत भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी को किया जाता है। इस दिन अनंत स्वरूप भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। गोदान, शय्यादान, अन्नदान एवं युग्म ब्राह्मणों को भोजन करवाकर फिर भोजन करें। इस व्रत को करने से अनंत पुण्यफल की प्राप्ति होती है। पितृ पक्ष प्रारंभ (24 सितंबर) धर्म शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के लिए तीन प्रकार के ऋणों का उल्लेख किया गया है- देव-ऋण, ऋषि-ऋण और पितृ-ऋण। जिन माता-पिता ने हमारी आयु, आरोग्य, सुख, सौभाग्य के लिए अनेक यत्न तथा प्रयास किए, कष्ट सहन किया, उनके इस ऋण को उतारने के लिए वर्ष भर में उनकी मरण तिथि को पितृ पक्ष में उनके निमित्त श्राद्ध करना चाहिए। श्राद्ध के दिन गोग्रास एवं ब्राह्मण भोजन कराने से विष्णु पुण्य फल की प्राप्ति होती है। जिन स्त्रियों की कोई संतान न हो वे स्वयं अपने पति का श्राद्ध उनकी मृत्यु तिथि पर कर सकती हैं।