पितृ दोष निवारण का महनीय तीर्थ: गया
पितृ दोष निवारण का महनीय तीर्थ: गया

पितृ दोष निवारण का महनीय तीर्थ: गया  

राकेश कुमार सिन्हा ‘रवि’
व्यूस : 5847 | सितम्बर 2016

पुरातन प्रज्ञा के प्रदेश बिहार की राजधानी पटना से तकरीबन 100 कि. मी. दक्षिण की ओर फल्गु नदी के किनारे विराजमान गया भारत वर्ष के प्राचीनतम नगरों में से एक है। सदियों से श्राद्ध, पिंडदान व तर्पण की सर्वख्यात भूमि के रूप में चर्चित गया का वर्णन विवरण श्री वाल्मीकि रामायण, महाभारत, आनंद रामायण, वायु पुराण, अग्नि पुराण, गरुड़ पुराण, स्कंद पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण सहित कितने ही उपपुराण, स्मृति, उपनिषद्, ऐतिहासिक पुरातात्विक आख्यानों में द्रष्टव्य है। जन्म के साथ ही मनुष्य इस भू-धरा पर तीन प्रकार के ऋण से बंध जाता है- देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। इसमें पितृ ऋण से उऋण होना तभी संभव है जब आप गया में अपने पितरों के नाम श्राद्ध, पिंडदान जैसे धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करते हैं। इस तरह पितृ दोष निवारण का सबसे महान स्थल गया है जिसे ‘पितृ पक्ष का महातीर्थ’ भी कहा गया है। यह जानने की बात है कि चांद्र मास की आधी अवधि पक्ष (पख) कही जाती है और पूरे वर्ष (पुरूषोत्तम मास को छोड़कर) मंे 24 पक्ष की स्थिति बोध होती है। इसी में आश्विन माह का प्रथम पक्ष अर्थात् आश्विन प्रतिपदा से आश्विन अमावस्या की तिथि को पितृपक्ष के रूप में निरूपित किया जाता है जो पितरण कार्य के लिए सर्व उपयुक्त कार्यकाल स्वीकारा जाता है।

युगों-युगों से संपूर्ण भारतीय भूमि में पंचयज्ञ की प्रधानता रही है जिसमें ‘ब्रह्मयज्ञ’, ‘देवयज्ञ’, ‘भूतयज्ञ,’ ‘पितृयज्ञ’ और ‘नृयज्ञ’ का नाम आता है। इसी में पिंड क्रिया द्वारा जिस यज्ञ का संपादन किया जाता है वही पितृयज्ञ है और इसके अंतर्गत श्राद्ध, पिंडदान व तर्पण का विधान है। ऐसे तो संपूर्ण भारतीय परिक्षेत्र में कितने ही तीर्थों में श्राद्ध, पिंडदान जैसे अनुष्ठान किए जाते हैं पर इस कर्मकृत्य में गया की महिमा अक्षुण्ण और माहात्म्य अपरम्पार है। प्राचीन मगध क्षेत्र के हृदय भाग में अवस्थित गया तीर्थ का यह वार्षिक समागम पुरातन काल से ही देश विदेश में प्रसिद्ध रहा है जिसे ‘‘मगहिया महाकुंभ’ भी कहा जाता है। श्राद्ध पिंडदान की महत्ता के कारण ही गया को ‘‘मोक्ष तीर्थ’’, ‘‘सायुज्य मुक्ति तीर्थ’’, ‘‘पितृ तीर्थ’ व ‘‘पंचम् धाम’ की संज्ञा से अलंकृत किया गया है। सर्वप्रथम यह जानना परम आवश्यक हो जाता है कि श्राद्ध पिंडदान का सर्वोत्कृष्ट स्थल गया ही क्यों है? विषय से जुड़े तथ्य व साक्ष्यों के अध्ययन, अनुशीलन स्पष्ट करते हैं कि श्वेतवाराह कल्प में त्रिपुरासुर व प्रभावती देवी का ज्येष्ठ पुत्र ‘गय’ हुआ जो बाल्यकाल से ही देव श्री विष्णु का परम भक्त, पराक्रमी व साधक प्रवृत्ति का था। विवरण है कि इसने अपने दाहिने पैर के अंगूठे पर अवलम्बित होकर लगातार निराहार रहकर दस हजार वर्षों की तपस्या की।

100 योजन लंबा और 60 योजन चैड़ा गयासुर ने कोलाहल पर्वत पर तपस्या की और इससे प्रसन्न होकर श्री विष्णु ने न सिर्फ अपने दिव्य दर्शन दिए वरन् वरदान भी दिया कि जो तुम्हें स्पर्श कर ले स्वर्गलोक का साक्षात अधिकारी बन जाएगा। अब इस गयासुर के प्रभाव से सत्य असत्य भाव के सभी जीव स्वर्ग को जाने लगे। देव लोक में हलचल मच गई। अंत में युगपिता ब्रह्मा की मंत्रणा से सृष्टि के सफल संचालनार्थ एक यज्ञ होना सुनिश्चित हुआ और विप्र रूप में स्वयं ब्रह्मा ने ‘गय’ से याचना की कि इस भू-लोक में तेरे शरीर जैसा परम पवित्र कुछ भी नहीं अतः भगवान विष्णु का यह महायज्ञ तेरी काया पर ही संपन्न होगा। गय सहज में मान गया। कोटि-कोटि तीर्थ व देववृन्द की उपस्थिति में यज्ञ होते समय ‘गय’ का शरीर पुनः कंपयमान हो गया। अब क्या था संपूर्ण देवताओं के अनुनय विनय से देव श्री विष्णु गदा धारण कर यहां आए और अपने दाहिने पैर से ‘गय’ की छाती पर ऐसा भार बनाया कि गय सदा सर्वदा के लिए भावशून्य हो गया। इस तरह यह गयासुर की काया की माया है कि आज भी गया में इनके नाम की आभा सदैव जीवन्त है। गयासुर के मांग के अनुरूप इस नगर को ‘गया’ कहा जाता है जिसका विस्तार प्राच्य काल में कुल छः कोश (पांच कोश का शरीर और एक कोश का सिर) का था। गया में श्राद्ध पिंडदान की प्रथम शुरूआत युग पिता ब्रह्मा द्वारा किया गया। उल्लेख है कि इसी क्रम में ब्रह्मा जी ने चैदह गोत्रीय ब्राह्मण को उत्पन्न किया जो गयापाल (गयावाल) ब्राह्मण कहे जाते हैं।

ब्रह्मकल्पित इन्हीं विद्वान ब्राह्मण या गयापाल पंडा जी के निर्देशन में गया श्राद्ध किए जाने की निर्बाध परंपरा है। श्री विष्णु पद मंदिर पूजा और श्राद्ध पिंडदान के जानकार पंडा और गुर्दा घराने के वंशज महाकाल बाबू बताते हैं कि बगैर गयापाल के आशीर्वाद व सुफल के गया श्राद्ध की पूर्णता नहीं हो सकती। यही कारण है कि गया आने वाले हरेक भक्त अपनी शक्ति व सामथ्र्य के अनुरूप गयापालों की सेवा अवश्य करते हैं। इनके सभी परिजन भी विष्णुपद और उससे सटे अंदर गया मुहल्ले में निवास करते हैं। श्राद्ध पिंडदान के विशेष अधिकारी होने के कारण इन्हें ‘श्री विष्णु का पार्षद’ भी कहा जाता है। श्राद्ध पिंडदान के मिश्रित अति प्राचीन काल से गया में न सिर्फ देवी देवता वरन् महात्माओं के साथ राजे महाराजे व आम भक्तों का आगमन बना हुआ है। इसी कारण गया को भ्रमणकालीन संस्कृति का मूर्धन्य केंद्र कहा जाता है जहां रामायण काल में श्री राम, माता सीता, भ्राता लक्ष्मण व भरत का आगमन हुआ तो महाभारत काल में ऋषि-मुनियों के अलावे पांचों पांडवों का पदार्पण हुआ है। ऐतिहासिक युग में तथागत भगवान बुद्ध के बाद तो यहां देशी ही नहीं विदेशी लोगों का आगमन भी बना और इसकी परिपाटी वर्तमान में भी जीवन्त है। गया में श्राद्ध पिंडदान के कार्य जहां संपन्न किए जाते हैं उन्हें पिंडवेदी अथवा तीर्थ वेदी कहा जाता है।

प्राचीन काल में इनकी संख्या 365 थी जहां एक-एक करके पूरे वर्ष तक धार्मिक कर्म कृत्य होता रहता था पर घटते-घटते काल के गाल में समाहित होने के बाद इनकी संख्या अब पचास के करीब है जिनमें श्रीफल्गुजी, विष्णुपद व अक्षयवट का बड़ा ही मान है और इन तीनों को मिलाकर ‘त्रिस्तम्भ वेदी’ भी कहा गया है। गया में इन पिंड वेदियों में मंदिर, कुंड, तालाब, पर्वत, वृक्ष, कूप, नदी आदि की पूजा होती है जिनके अलग-अलग नाम हैं। यहां के कुछ वेदी वैदिक कालीन हैं तो कुछ की प्रतिष्ठा प्रभाविष्णु रामायण काल अथवा महाभारत काल में स्थापित हुई है। गया तीर्थ के पिंडवेदियों में गोदावरी वेदी को पहला व अक्षयवट को अंतिम बताया गया है। यह जानने की बात है कि पुराणों में ‘पुनपुन नदी’ तीर्थ को गया का प्रवेश द्वार कहा गया है इसीलिए प्रथम वेदी का काज पुनपुन में ही करके गया श्राद्ध के श्री गणेश का शास्त्रोक्त विधान है पर जो यह नहीं कर पाते वह गोदावरी से ही गया श्राद्ध का शुभारंभ करते हैं। आज समय के साथ यहां काफी कुछ बदलाव आया है और ऐसी स्थिति में यहां श्राद्ध कत्र्ता एक दिवसीय, तीन दिवसीय, पंचदिवसीय, सप्तदिवसीय और पंद्रह दिनों में गया श्राद्ध संपन्न कर लेते हैं। जो एक दिवसीय पिंडदान करते हैं वे फल्गु तीर्थ, श्री विष्णुपद और अक्षयवट में श्राद्ध संपन्न कर लेते हैं। तीन दिवसीय पिंडदान करने वाले सर्वप्रथम पहले दिन फल्गु में स्नान तर्पण के उपरांत फल्गु तट पर पार्वण श्राद्ध संपन्न करके देव श्री गदाधर को पंचामृत स्नान कराते हैं।

दूसरे दिन पंच वेदी (उत्तर) में ब्रह्मकुंड में श्राद्ध करने के उपरांत प्रेतशिला, रामशिला और फिर रामकुंड पर श्राद्ध करके काकबलि तथा स्थानबलि पिंडवेदी पर श्राद्ध करते हैं। तीसरे दिन फल्गु जी में स्नान तर्पण के बाद श्री विष्णुपद और उसके दक्षिणी ढलान में अवस्थित सोलह वेदी पर श्राद्ध करके अक्षयवट वेदी पर श्राद्ध संपन्न करते हैं। शैयादान के बाद गयापाल पंडा से सुफल प्राप्त कर तीर्थ अनुष्ठान संपन्न करते हैं। जो तीर्थयात्री पांच दिनी श्राद्ध करते हैं वे प्रथम दिवस में फल्गु, ब्रह्मकुंड, प्रेतशिला, रामशिला, काकबलि वेदी पर पिंड अर्पित करते हैं। दूसरे दिन उत्तर मानस, दक्षिण मानस, मातंगवाणी तथा धर्मारण्य पर पिंडदान का विधान है। तीसरे दिन गो प्रचार, आम्रसिंचन, काकबलि तथा तारक वेदी पर पिंड दिया जाता है। चैथा दिन गयासिर वेदी, विष्णुपद, सोलह वेदी पर पिंड अर्पण के बाद नृसिंह देवता व वामन देवता दर्शन व पूजन करते हैं और अंत में पांचवां दिन गदालोल, वृद्धपरपिता वेदी व अक्षयवट वेदी पर गया श्राद्ध की पूर्णाहुति होती है। सप्तदिवसीय पिंडदान में सबसे पहले फल्गु स्नान किया जाता है। तत्पश्चात् ब्रह्मकुंड, प्रेतशिला रामशिला व रामकुंड के साथ काकबलि तीर्थ में पिंडदान का विधान है। दूसरे दिन उत्तर मानस, उदीचि तीर्थ, कनखल तीर्थ, दक्षिण मानस, जिह्नालोल तीर्थादि पर गया श्राद्ध के कार्य किए जाते हैं।

तीसरे दिन बोध गया स्थित मातंगवापी, धर्मारण्य एवं बोधिद्रुम पर पिंडदान होता है। चैथे दिन ब्रह्म सरोवर, ताटक ब्रह्म, आम्रसिंचन, काकबलि आदि तीर्थों में पिंडार्पित होता है। पांचवें दिन श्री विष्णुपद, सोलहवेदी, गयासिर वेदी तथा फल्गु के उस पार सीता कुंड में पिंडदान का विधान है। छठे दिन मुण्डपृष्ठा वेदी, भीम गया वेदी, गो प्रचार, मंगलागौरी तथा श्री मार्कण्डेय महादेव जी का दर्शन किया जाता है। अंत में सातवंे दिन वैतरणी, गदालोल तथा अक्षयवट पर पिंडदान व शैयादान के साथ सुफल लेने की पुरानी परंपरा है। पंद्रह दिवसीय पितृपक्ष में गया श्राद्ध कत्र्ता श्री अनंत चतुर्दशी को पुनपुन श्राद्ध कर गया श्राद्ध का श्री गणेश करते हैं। पूर्णिमा के दिन फल्गु स्नान और खीर भात के पिंड के साथ श्राद्ध संपन्न किया जाता है। आश्विन कृष्णपक्ष प्रतिपदा को ब्रह्मकुंड में जौ चूर्ण का पिंड, प्रेतशिला, रामशिला व रामकुंड श्राद्ध करने के बाद काक, श्वान और यम के नाम पर तीन पिंड काकबलि तीर्थ में अर्पित करते हैं। दूसरे दिन पंचतीर्थी श्राद्ध के अंतर्गत् उत्तर मानस, उदीची, कनखल, दक्षिण मानस व मिध्वालोल में श्राद्ध के बाद गदाधर देवता को पंचरत्न दान किया जाता है। तृतीया तिथि को सरस्वती तीर्थ में स्नान (पंचामृत स्नान) के उपरांत मातंगवापी, धर्मारण्य व बोधितरू के सन्निकट श्राद्ध किया जाता है। चतुर्थी दिवस में ब्रह्म सरोवर, काकबलि के बाद ताटक ब्रह्म का दर्शन और आम्रसिंचन में धर्मानुष्ठान संपन्न किया जाता है।

पंचमी तिथि को श्री विष्णुपद श्राद्ध, तीर्थ दर्शन व ब्रह्मपद श्राद्ध का विधान है। षष्ठी तिथि को कार्तिक पद, दक्षिणाग्नि पद, गाहपत्याग्नि श्राद्ध व आहवनीयाग्नि श्राद्ध किया जाता है। सातवें दिन सूर्यपद वेदी, चंद्रपद वेदी, गणेशपद वेदी, संध्याग्नि वेदी आवसंध्याग्नि पद व दधीचि पद पर श्राद्ध किया जाता है। अष्टम् दिवस में कण्व पद, मातंगपद, कौंचपद, अगस्त्य पद, इंद्रपद, कश्यप पद के श्राद्धोपरांत अधिकर्णपद में द्रव्य तर्पण व अन्नदान का विधान है। नवम् दिवस में फल्गु के उस पार राम गया श्राद्ध, सीता कुंड में बालूका राशि का पिंडादि अर्पण के बाद सौभाग्यवादन दान का विधान है। दसवें दिन गया सिर, गया कूप व मुण्डपृष्ठ वेदी पर श्राद्ध किया जाता है। एकादशी के दिन आदि गदाधर तीर्थ व धौतपद वेदी में श्राद्ध कर चांदी दान की पुरानी पंरपरा है। बारहवें दिन मंगलागौरी तीर्थ के रास्ते भीम गया, गौ प्रचार, गदालोल श्राद्धादि का कार्य किया जाता है। तेरहवें दिन वैतरणी श्राद्ध, गोदान व दूध तर्पण किया जाता है। चतुर्दशी तिथि को श्री विष्णु जी का पंचामृत पूजन व तीर्थ दर्शन तो अमावस्या के दिन अक्षयवट श्राद्ध, खीर का पिंड व षोडशदान व सुफल का विधान है।

सबसे अंतिम दिन अर्थात् गया से प्रस्थान के पूर्व गायत्री घाट का पिंड व आचार्य को दक्षिणा व अंगवस्त्र दान का विधान है। यह जानने की बात है कि गया जी में साल के सभी दिन श्राद्ध-पिंडदान होते हैं पर पितृपक्ष में इसका महत्व अत्यधिक बताया जाता है। पुराणों की स्पष्ट स्वीकारोक्ति है कि पितृपक्ष के दौरान पितर फल्गुतट पर अदृश्य रूप में उपस्थित होकर अपने परिजनों से अन्न जल की अभिलाषा करते हैं और जो हिंदू यह नहीं करता उसके पितर श्राप देकर पुनः चंद्रलोक के पृष्ठतल में अवस्थित पितरण लोक वापस चले जाते हैं। गया में स्वपिंडदान केंद्र में स्वयं का पिंडार्पण होता है। अस्तु ! युगों-युगों से गया तीर्थ में संपादित होने वाले श्राद्ध, पिंडदान व पितर पूजा भारतीय संस्कृति के मेरूदंड हैं। यही हमारी सनातन संस्कृति का आधार है जहां माता को धरती से बड़ी और पिता को स्वर्ग से बड़ा बताया जाता है। मगध की सांस्कृतिक सरोकार में यह कहा जाता है ‘‘बढ़े पुत्र पिता के धर्मे’’ अर्थात् पुत्र पिता के धर्म से ही विकास पथ पर अग्रसर होता है। ऐसे में हरेक पुत्र का यह अति आवश्यक सनातन कर्म है कि वह गया श्राद्ध करे। विवरण है कि गया श्राद्ध कत्र्ता को अश्वमेध यज्ञ आयोजित करने का फल सहज प्राप्त हो जाता है।



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