यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। इस दिन ही राधा का भूलोक में अवतरण हुआ था। शास्त्रों में वर्णित है कि मृगपुत्र राजा सुचंद्र का एवं पितरों की मानसी कन्या सुचंद्र पत्नी कलावती का पुनर्जन्म हुआ। सुचंद्र तो वृषभानु गोप के रूप में उत्पन्न हुए एवं कलावती कीर्तिदा गोपी के रूप में। यथासमय दोनों का विवाह हो कर पुनर्मिलन हुआ। एक तो राजा सुचंद्र हरि के अंश से ही उत्पन्न हुए थे; उसपर उन्होंने पत्नी सहित दिव्य द्वादश वर्षों तक तप कर के ब्रह्मा को संतुष्ट किया था। इसलिए काल योनि ने ही यह वर दिया था। द्वापर के अंत में स्वयं श्री राधा तुम दोनों की पुत्री बनेंगी। उस वर की सिद्धि के लिए ही सुचंद्र वृषभानु गोप बने हैं।
इन्हीं वृषभानु में, इनके जन्म के समय, सूर्य का भी आवेश हो गया; क्योंकि सूर्य ने तपस्या कर श्री कृष्ण चंद्र से एक कन्या रत्न की याचना की थी तथा श्री कृष्ण चंद्र ने संतुष्ट हो कर तथास्तु कहा था। इसके अतिरिक्त नित्य लीला के वृषभानु एवं कीर्तिदा ये दोनों भी इन्हीं वृषभानु गोप एंव कीर्तिदा में समाविष्ट हो गये; क्योंकि स्वयं गोलोक विहारिणी श्री राधा का अवतरण होने जा रहा है। अस्तु, इस प्रकार योगमाया ने द्वापर के अंत में रासेश्वरी के लिए उपयुक्त क्षेत्र की रचना कर दी। धीरे-धीरे वह निर्दिष्ट समय भी आ पहुंचा। भाद्रपद की शुक्ला अष्टमी है; चंद्रवासर है, मध्याह्न है। कीर्तिदा रानी रत्नजटित शैय्या पर विराजित हैं।
एक घड़ी पूर्व से प्रसव का आभास सा मिलने लगा है। वृद्धा गोपिकाएं उन्हें घेरे बैठी हैं। इस समय आकाश मेघाच्छन्न हो रहा है। सहसा प्रसूति ग्रह में एक ज्योति फैल जाती है; इतनी तीव्र ज्योति कि सबके नेत्र निमीलित हो गये। इसी समय कीर्तिदा रानी का प्रसव हुआ। प्रसव में केवल वायु निकला। इतने दिन उदर तो वायु से ही पूर्ण था। किंतु इससे पूर्व कि कीर्तिदा रानी एवं अन्य गोपिकाएं नेत्र खोल कर रखें, उसी वायु कंपन के स्थान पर एक बालिका प्रकट हो गयी। सूतिकागार उस बालिका के अनंत सौंदर्य और रूप लावण्य से प्लावित होने लगा। यही वह देवी थी, जो जगत में ‘राधा’ नाम से विख्यात हुई। वृषभानु गोप, गोपियों यहां तक कि प्रकृति भी, इस बालिका के जन्म से अपने आपको धन्य मानती हुई, सदगुणों से पूर्ण हो गयी।
आनंदोत्सव होने लगा। राधा श्री का पैतृक गांव है ‘बरसाना’। अखिल ब्रह्मांड में राधा के नाम की ध्वनि फैल गयी। आकाश में दुंदुभियां बजने लगीं, अप्सराएं नृत्य करने लगीं। देवता फूल बरसाने लगे। ब्रज मंडल के गांवों से गोप-गोपिकाएं आ कर वृषभानु को बधाई देने लगे, क्योंकि आज श्री कृष्ण की प्राण प्रिया अचिंत्य शक्ति श्री राधा का जन्मोत्सव है। इस दिन कलश के ऊपर स्वर्णमयी श्री राधा की प्रतिमा स्थापित कर मध्याह्न काल में षोडषोपचार पूजन (जैसे पंचामृत स्नान, गंधोदक, शुद्धोदक स्नान, श्रृंगार पुष्प, धूप, दीप, नैवद्य) कर श्री राधा जी के प्रसन्नार्थ उपवास रखें एवं श्री राधा जी की आरती उतारें। दूसरे दिन, भक्तिपूर्वक सुवासिनी स्त्रियों को भोजन करा कर, आचार्य को सुवर्णमयी श्री राधा की प्रतिमा का दान करें और नाना प्रकार के भेंट चढ़ाएं।
आभूषण तथा दक्षिणा दे कर, प्रणाम कर, उन्हें विदा करें। तत्पश्चात स्वयं भी भोजन करें। इस प्रकार व्रत को पूर्ण करना चाहिए। व्रती पुरुष इस राधाष्टमी व्रत के करने से ब्रज का रहस्य जान लेता है तथा संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। लोक और परलोक में वह सुख भोगता है। आज भी प्रतिवर्ष ब्रज मंडल क्षेत्र में मथुरा जिले के अंतर्गत बरसाना ग्राम में श्री राधा का जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है, जहां भारतवर्ष के विभिन्न प्रांतों, शहरों, गांवों से संकीर्तन मंडल एवं भक्त पधार कर राधा दरबार में, अपनी वाणी को शुद्ध कर, राधा नाम में सराबोर होते हैं और मंगलमयी, कृपामयी श्री राधा का आशीर्वाद प्राप्त कर अपने को कृत-कृत्य मानते हैं।
आरती आरती राधा जी की कीजै। कृष्ण संग जो करै निवास, कृष्ण करें जिन पर विश्वास।। आरती वृषभानु लली की कीजै। कृष्ण चंद्र की करी सहाई, मंुह में अनि रूप दिखलाई। उस शक्ति की आरती कीजै। नंद पुत्र से प्रीति बढ़ायी जमुना तट पर रास रचायी। आरती रास रचायी की कीजै। पे्रम राह जिसने बतलायी, निर्गुण भक्ति नहीं अपनायी। आरती श्री जी की कीजै। दुनियां की जो रक्षा करती, भक्तजनों के दुःख सब हरती। आरती दुःख हरणी की कीजै। कृष्ण चंद्र से प्रेम बढ़ाया, विपिन बीच में रास रचाया। आरती कृष्ण प्रिया की कीजै। दुनिया की जो जननि कहावैं, निज पुत्रों को धीर बधावैं। आरती जगत माता की कीजै।। निज पुत्रों के काज संवारे, रनवीरा के कष्ट निवारे। आरती विश्व माता की कीजै।