पितृ दोष से उत्पन्न ऊपरी बाधायें
पितृ दोष से उत्पन्न ऊपरी बाधायें

पितृ दोष से उत्पन्न ऊपरी बाधायें  

आर. के. शर्मा
व्यूस : 6469 | सितम्बर 2016

पितरों की संतुष्टि हेतु आश्विन मास में 16 दिन के श्राद्ध का प्रावधान किया गया है। वैसे प्रत्येक अमावस्या के दिन पितरों को संतुष्ट करने के लिये दान तथा ब्राह्मण-भोजन की व्यवस्था की गयी है। पितर के निधन वाले माह, पक्ष तथा तिथि के दिन भी किये जाने वाले श्राद्ध को ‘एकोदिष्ट श्राद्ध’ कहते हैं। श्राद्ध करने से पूर्व अपने पितर को श्राद्ध अर्पित करने के लिये संकल्प किया जाता है। पितरों के साथ पंचबलि निकाली जाती है, जो क्रमशः गाय, कौआ, कुत्ता, देवता और चींटियों को अर्पित किया जाता है। संकल्प में त्रिकुश और काले तिल प्रयोग में लिये जाते हैं। ‘एकोदिष्ट’ और ‘पार्वण, दोनों श्राद्धों में इसी प्रकार क्रिया होती है। इस परंपरा का कारण पितृलोक में स्थित अपने-अपने पितरों की संतुष्टि है, जिससे वे पितृदोष से आपकी हानि न करें। क्यों बनते हैं पितर? किसी व्यक्ति का मृत्यु के पश्चात् पितृलोक में गमन उसके मोह अथवा किसी विशेष प्रयोजन के कारण होता है। मृत्यु से पूर्व व्यक्ति के मन में जैसे भाव उत्पन्न होते हैं, मृत्यु के पश्चात् उसकी गति वैसी ही होती है यथा तीर्थों की मृत्यु शुभ और मोक्षदायिनी मानी जाती है, क्योंकि उस समय व्यक्ति का मन पूर्ण रूप से ईश्वर की भक्ति में डूबा रहता है।

इसी प्रकार सीमा पर लड़ते सैनिकों का वीरगति प्राप्त करना, आदि। यह तो निश्चित है कि पितृयोनि में किसी आत्मा का गमन उसके परिजनों के प्रति मोह से ही है। प्रश्न है कि क्या मोहग्रस्त व्यक्ति पितृयोनि को प्राप्त करेगा? किशोर अथवा युवावस्था में होने वाली मृत्यु को न तो परिजन पचा पाते हैं और न ही मृतक व्यक्ति। इसलिये वह अपने परिजनों के साथ रहना चाहता है और ‘पितृ योनि’ को प्राप्त होता है। कई विद्वानों के प्रमाणों से यह ज्ञात हुआ है कि अपना विशेष प्रयोजन सफल होने पर मृतक की आत्मा, पितृयोनि से मुक्त होकर अपने लोक में चली जाती है और दूसरा शरीर धारण करने की तैयारी करती है। परंतु जब कभी परिजनों द्वारा अपने पितरों को संतुष्ट नहीं किया जाता है, तब वे कई वर्षों तक अतृप्त होकर भोग योनि में पीड़ित होते रहते हैं और ‘पितृदोष’ उत्पन्न करते हैं। अक्सर अमावस्या के निकट जब कृष्ण पक्ष में उसका दिन (मृत्यु दिवस) होता है, तब वे पितृलोक से अपने परिजनों के समक्ष आ जाते हैं और अदृश्य रूप से उनके साथ रहने लगते हैं परंतु अपना बोध नहीं करा पाते हैं। लेकिन उनके आवाहन और रात्रि जागरण में आवाहन करने पर वे अपने विशिष्ट परिजन के शरीर में आ जाते हैं।

कई व्यक्ति उन्हें देवता के नाम से संबोधित करते हैं और अमावस्या के दिन उनका आवाहन करते हैं। इस हेतु वैशाख का माह उत्तम माना जाता है। पितरों की अप्रसन्नता का कारण? पितृ दोष से पीड़ित व्यक्ति, यह जानना चाहता है कि ऐसा कौन सा अपराध उसने किया है जिससे उसकी उन्नति नहीं हो पा रही है और जीवन में बार-बार रूकावटें आ रही हैं? वास्तव में पितरों की अप्रसन्नता के कई कारण होते हैं, जिनमें प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

1. परिजनों द्वारा स्मरण नहीं करना परिजनों द्वारा लोभवश या त्रुटिपूर्ण अंतिम क्रिया कर्म आदि पूर्ण न कराया जाना या मात्र औपचारिकता भर निभा देना। किसी भी कारण श्राद्ध कर्म न कराया जाय, उसकी प्रिय वस्तु या भोजन खिलाया या दान न कराया जाय, घर में होने वाले मांगलिक कार्य में पितरों को स्मरण न किया जाय, तो वे अप्रसन्न होकर विघ्न उत्पन्न करते हैं।

2. परिजनों द्वारा अनुचित व्यवहार कई बार परिजनों के अनुचित व्यवहार अर्थात् शराब सेवन, मांस भक्षण, विजाति में रिश्ता जोड़ना आदि कारणों से पितर, क्षुब्ध हो जाते हैं और तरह-तरह के विघ्न उत्पन्न करते हैं। जब इनका आह्नान किया जाता है तो ये किसी परिजन के शरीर में आकर उस अनुचित व्यवहार की शिकायत करने लगते हैं।

3. पितृ का पीड़ित होना पितृ लोक में रह रहे पितरों को अपने प्रियजनों द्वारा उनकी प्रिय सामग्री आदि प्राप्त न होने से वे निर्बल हो जाते हैं और पितृ योनि में दूसरे पितरों की आत्माओं द्वारा प्रताड़ित किये जाते हैं तो वह निर्बल पितर अपने परिवारी-जनों से ही आशा रखता है कि वे उसे इस भारी संकट से बचायें। यदि ऐसा नहीं होता तो वह पीड़ित होकर दुखी रहते हैं और अपने परिजनों को कोसते हैं। उक्त तीन कारणांे के अतिरिक्त अनेक और भी कारण होते हैं, जिनसे पितर अप्रसन्न होकर ‘पितृ-दोष’ उत्पन्न करते हैं। पितृ दोष आसान पहचान ‘पितृ दोष’ एक अदृश्य-बाधा है, जो आपको अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है, परंतु आप आसानी से नहीं पहचान पाते हैं और न जाने किन-किन व्यक्ति, रोगों, कारणों और व्यवहारों को दोष देते रहते हैं। फलस्वरूप रोग, कष्ट तथा विपत्तियां बढ़ती जाती हैं।

आइये हम ‘पितृ दोष’ की पहचान, आसानी से करने का प्रयास करें-

- पितृ अपने परिजनों से संपर्क करने का जब प्रयास करते हैं तो वे सपनों में बार-बार दिखाई देते हैं और ऐसा आभास कराते हैं कि वे लौटकर दुबारा आ गये हैं।

- कभी-कभी ये किसी परिजन के शरीर में आकर अपनी पीड़ा बताते हैं।

- जन्म पत्रिका में अनुकूल योग और दशायें होने पर भी किसी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती। विभिन्न उपायों से भी लाभ नहीं होता, देवी-देवताओं की पूजा से भी कोई लाभ नहीं होता, आमदनी कम होती है या कोई बरकत नहीं होती।

- घर में तनाव, व्यर्थ ही लड़ाई-झगड़े, विवाह नहीं हो पाते- रूकावटें आती हैं, वैवाहिक जीवन में समस्याएं आती रहती हैं, संतान नहीं होती।

- घर में मवेशी (पशु) की बिना कारण मृत्यु हो जाये या उनका दूध सूख जाये। पालतू पशु जीवित न रह पायें या उनके पालने से कुछ न कुछ समस्या होने लगे या वे बीमार रहते हैं और मर जाते हैं।

- घर में होने वाले मांगलिक कार्यों में अवरोध, समस्याएं उत्पन्न हो जाते हैं या ऐसे समय अचानक किसी का स्वास्थ्य प्रतिकूल हो जाता है।

- कई बार घर के किसी कमरे में जहां कोई बाहरी या घर का व्यक्ति आता-जाता नहीं, वहां ऐसी वस्तुएं प्राप्त होती हैं, जो टोने-टोटके होने का आभास कराती हैं या मानो उन रखी गयी वस्तुओं के माध्यम से कुछ कहना चाहते हांे।

उपर्युक्त में से कोई एक या दो मामले दृष्टिगोचर हो सकते हैं। अतः आपको उसके उपचार के लिए उपाय करना आवश्यक है। पितृ आशीर्वाद देते हैं ! पितृ हमेशा ‘पितृदोष’ का कारण बनते हैं, ऐसा नहीं है। पितृ निरंतर अपने परिजनों का ध्यान रखते हैं, विभिन्न प्रकार से सहायता करते हैं तथा आशीर्वाद भी देते हैं। ऐसा तभी होता है जबकि हम उनका आदर करते हों, उनके निमित्त श्राद्ध, दान करें, अपने आचरण में शुद्धता रखें, कोई गलत कार्य न करें, पर्व और मांगलिक अवसर पर उनका विशेष ध्यान रखें। उनके आशीर्वाद तथा सहायता स्वरूप अग्रलिखित सुकार्य किये जाते हैं, यथा-घर के दुखी-पीड़ित-बीमार व्यक्ति की पीड़ा दूर करते हैं। गलत जगह रिश्ता नहीं होने देते हैं। परिजनों को व्यापार आदि क्षेत्रों में सफलता, सभी समस्याओं से बचाते हैं, परिजनों को अनिष्ट से बचाते, प्रगति-उन्न्ति के मार्ग पर उन्मुख करते हैं। पितरों की पूजा-अर्चना-श्राद्ध से ही हम जीवन में सफल हो पाते हैं। पितृ दोष निवारण के उपाय पितृदोष अदृश्य बाधा है, इसके कारण का ज्ञान होने में बहुत समय लग जाता है। पितृ दोष निवारण का मुख्य उद्देश्य यही होता है कि आपके पितर आपसे रूष्ट हैं, वे आपसे प्रसन्न हो जायें और आपकी उन्नति में बाधक नहीं बनें।

यहां विभिन्न प्रकार के उपायों का उल्लेख किया जा रहा है, जिनका प्रयोग करने पर पितृ दोष संबंधी समस्या से मुक्ति मिलेगी।

- सामान्य पितृ दोष होने पर अथवा पितरों के प्रसन्नार्थ प्रत्येक अमावस्या के दिन दोपहर या दोपहर के बाद के समय गुग्गुल, लोबान और कपूर की धूप अपने पितरों का स्मरण करते हुये देनी चाहिए और उसे घर के सभी कमरों-बरामदों में घूमाना चाहिये। इससे पितर प्रसन्न होते हैं और घर से नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है।

- सामान्य पितृ दोष होने पर ‘पितृ कार्य अमावस्या’ (अर्थात् प्रत्येक अमावस्या का मध्याह्न काल होता है) पर किसी पवित्र ब्राह्मण को अपने पितर का रूप मानते हुए भोजन कराना चाहिये और सामथ्र्य के अनुसार दान-दक्षिणा प्रदान करनी चाहिये।

- अपने पितरों की पुण्य तिथि पर प्रत्येक वर्ष श्राद्ध करना चाहिये, तर्पण फिर ब्राह्मण भोजन कराना चाहिये। तत्पश्चात उचित दक्षिणा, वस्त्र, चप्पल या जूते तथा नित्य प्रयोग आने वाली वस्तुएं दान में देनी चाहिए।

- श्राद्ध पक्ष (अश्विन मास) में ब्राह्मण भोजन करायें। श्राद्ध में तर्पण, पंचबलि और दान-दक्षिणा करनी चाहिये। - काफी प्रयासों के बाद भी पितृदोष समाप्त नहीं हो रहा है तो उपर्युक्त उपायों के साथ ‘श्रीमद्भगवदगीता’ का पाठ शुभ मुहूर्त से प्रारंभ करते हुए नित्य पाठ करें या करायें।

- यदि सभी उपाय करने के बाद भी पितृ दोष शांत नहीं हो पा रहा है तो अंतिम रामबाण उपाय है ‘‘श्रीमद्भागवत पुराण सप्ताह’ का आयोजन किसी मंदिर में करवायें। यही श्रेष्ठतम उपाय है।

- वैशाख मास की अमावस्या के दिन पितरों को प्रसन्न करने हेतु ‘रात्रि जागरण’ करके भजन और गीतों द्वारा पितर या पितरों का आवाहन करें, उन्हें नैवैद्य अर्पित करें। पितरों का स्मरण कर उनसे आशीर्वाद मांगंे। यदि वे किसी के शरीर में आ जायें तो भी अच्छा है। फिर उनसे क्षमा और आशीर्वाद मांगना आसान हो जाता है।

- किसी परिजन की मृत्यु होने पर ‘गयाजी’ जाकर पितृशांति अवश्य करवानी चाहिये। यदि एक ही बार जायें तो सर्व पितृशांति के लिये तर्पण एवं पूजा करवानी चाहिये।

- जब किसी परिजन की मृत्यु हो जाये तो सभी क्रिया-कर्म विधि-विधान से करवाना चाहिये। ऐसे समय में की गयी लापरवाही पितृ दोष का कारण बनती है।

- पितृदोष होने पर पीड़ित व्यक्ति अथवा परिवार के किसी सदस्य के द्वारा नित्य ‘पितृ सूक्त’ का पाठ करना चाहिये। ‘पितृ-सूक्त’ के पाठ से उसके पितर सदैव प्रसन्न रहते हैं। यदि संस्कृत में पाठ कठिन लगे तो हिंदी भावार्थ का पाठ करें।



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