‘‘ओंकारश्चार्थ शब्दश्च, द्ववेतौ ब्रह्मणः पुरा। कण्ठं भित्वा विनिर्यार्तो, तस्मा मांगलिका वुर्भो ।।’’ गणपति-पूजन की विशिष्टता यह है कि उनके पूजन में उनकी प्रतिमा का होना आवश्यक नहीं है। मिट्टी के टुकड़े या सुपाड़ी पर कच्चे रंगीन धागे (कलावे) लपेट कर रख देने से भी गणपति की मूर्ति का बोध होता है और उसे गणेश जी का प्रतीक मान लिया जाता है । गणेश-पूजन की परम्परा प्रतीक-पूरक है। मंगल-कलश पर ‘स्वास्तिक’ चिह्न भी इसी परम्परा के अन्तर्गत बनाया जाता है। स्वास्तिक भी गणेश जी का ही प्रतीक है। इसकी चार भुजाएं गणेश जी की भुजाओं के सदृश मानी गई हैं। इसे चतुर्भुज भी कहते हैं। गणेश जी की सर्वप्रथम चर्चा हमें ऋग्वेद के मन्त्र (2-31-1) से प्राप्त होती है। आज भी गणेश-पूजन प्रायः इसी मन्त्र से प्रारम्भ होता है - ‘‘ऊँ गणानांत्वा गणपति हवामहे, कवि कविता मुप श्रवस्तम् । ज्येष्ठ राजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत्, आ नः श्रृव्वन्नूतिथिः सीद साध्वम् ।।’’
इस मन्त्र में गणेश जी के लिए गणपति शब्द का प्रयोग हुआ है। वेद-मन्त्रों में गणेश जी को ‘गणपति’ या ‘ब्रह्मणस्पति’ नामों से ही सम्बोधन मिला है। ‘ब्रह्मणस्पति’ का एक लक्ष्यार्थ बृहस्पति से भी है- जो देव-गुरु तथा विवेक और ज्ञान के देवता हैं। संभवतः गणेश जी के लिए ‘ब्रह्मणस्पति’ शब्द का प्रयोग मन्त्रसृष्टा ऋषि ने उनके विवेक और उनकी मनीषा के सन्दर्भ में किया हो, किन्तु गणपति शब्द गणों के पति (नायक) अर्थ में ही प्रयोग है। ‘गण’ धातु व्याकरण में समूह-वाचक है जिससे लोक प्रचलित ‘गण’ शब्द बना है। अतः गण का सामान्य अर्थ समूह या समुदाय ही होता है। गणेश जी के विषय में ‘गण’ देवसमूह का द्योतक है, जिसके वे अधिपति अर्थात् स्वामी हैं। गणेश जी का स्वरूप भी अन्य सभी देवी-देवताओं से भिन्न और विशिष्ट है। बाह्य-आकृति में उनका मुख तो गज (हाथी) का है, किन्तु कण्ठ के नीचे का भाग मनुष्य-योनि का है। इसीलिए उनको गजानन, गजमुख आदि नामों से भी अभिहित किया गया है।
उनकी आकृति गजनर की अनूठी समन्वित सृष्टि है। ‘गज’ शब्द ब्रह्म वाचक है क्योंकि ‘ग’ वर्ण की व्युत्पत्ति-समाधिनो योगिनो यत्र गच्छन्तीति ग,’’ अर्थात् समाधि के द्वारा योगी-जन जिसे प्राप्त करते हैं- वह ‘ग’ है तथा यह जगत जिससे उत्पन्न होता है वह ‘ज’ है - ‘‘यस्माद् बिम्ब प्रतिबिम्ब तथा प्रणवात्मक जगज्जायते इति जः।’’ विश्व कारण होने से वह ब्रह्म ‘गज’ कहलाता है। श्री गणेश शब्द का शाब्दिक-अर्थ भी विचित्र है- ‘ग’ अर्थात् ज्ञानी, इसमें अग्नितत्व भी आसात् मौजूद है जो विश्व शक्ति रूप है। ‘ण’ से अभिप्राय वाणी से है। ईश्वर (ईश) के ये दोनों ‘ग’ और ‘ण’ इष्ट हैं। इसीलिए उनके साथ सदैव मातृ-स्वरूपा धन और समृद्धि की अधिष्ठात्री ‘श्री’ (लक्ष्मी जी) विराजती हैं। शक्ति वरेण्य है, किन्तु शक्ति के उपयोग की दिशा ही शक्ति के महत्व को रूपायित करती है। यही कारण है, कि गणेश जी का पूजन संसार की दोनों महत्वपूर्ण शक्तियों ‘‘सरस्वती’’ और ‘‘लक्ष्मी’’ दोनों के साथ किया जाता है।
वाणी की शक्ति जनसामान्य के मंगलार्थ की सृष्टि करें- अन्यथा वह विध्वंसक होगी, इसीलिए वाणी के साथ विनायक (विवेक) की वन्दना अनिवार्य है। गोस्वामी जी ने अपने अमर ग्रन्थ रामचरितमानस की रचना प्रारम्भ करते समय वाणी के विनायक-युत रूप की वन्दना की थी- ‘‘मंगलानाम् च कत्र्तारों, वन्दे वाणी विनायको’’। दूसरी ओर लक्ष्मी जी की शक्ति मानव-कल्याण रूप को आदर्श मानकर भारतीय परम्परा में ‘गणेश-लक्ष्मी’ के पूजन-रूप में लोक-प्रचलित है। विवेकहीन मस्तिष्क से लक्ष्मी का प्रयोग मंगल की सृष्टि नहीं कर सकता। इस प्रकार गणेश जी शक्तियों के संचालक भी हैं और नियन्त्रक भी। आदि देव रूप में उनके पूजन की परम्परा अपने विराट-अर्थ में जन-चेतना से अविभाज्य रूप से सम्पृक्त है। गणेश जी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई प्रकार की कथाएं लोक-मानस में विख्यात हैं। ‘ब्रह्मवैवर्तपुराण’ के अनुसार गणेश जी के जन्म के समय ही शनि की वक्रदृष्टि पड़ने से उनका सिर कट गया।
इस पर विष्णु ने एक हाथी का सिर काट कर उनके धड़ पर जोड़ दिया और तभी से उनका नाम ‘गजानन’ पड़ा। ‘गणेश पुराण’ के अनुसार माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं- उन्होंने अपने कक्ष तक किसी को भी न आने देने के लिए एक मिट्टी के बालक की रचना की और उसे जीवन देकर पहरेदार बना दिया। पार्वती-पति भगवान शिव आये, अन्तःपुर की ओर जाने लगे- पहरेदार बालक ने टोका-शिव को क्रोध आया और उन्होंने उसका मस्तक काट डाला। मां पार्वती को जब ज्ञात हुआ कि उनके पुत्र का शिव जी के द्वारा वध हुआ है- तो उन्होंने दुःखी होकर भगवान शंकर से प्रार्थना की कि वे उसे पुनः जीवन दान दें- शिव जी ने प्रायश्चित करते हुए एक गजमुख को उस बालक के शरीर पर जोड़ दिया।
शिव परिवार में गणेश जी का विशिष्ट स्थान है, उनके अग्रज कार्तिकेय देवसेना के सेनापति हैं और वे स्वयं देवों के अधिष्ठाता अर्थात् ‘नीतिनिर्धारक’ हैं। गणेश जी विवेक के देवता हैं- शौर्य के संवाहक हैं। उनका कला-प्रेमी स्वभाव उनके व्यक्तित्व के विशिष्ट आयाम का द्योतक है, सर्जक रूप प्रेरणास्पद है। गणपति मंगल के विधायक हैं। वे विवेक के प्रतीक हैं- विवेक अर्थात् करणीय और अकरणीय की भेदक दृष्टि। बुद्धि तो पशु में भी है, पर विवेक जो बुद्धि का परिष्कृत रूप है, मनुष्य की अपनी थाती है। विवेक ही कर्म को अधोमुखी होने से बचाकर ऊध्र्वमुखी गति देता है। कर्म को मंगल के हेतु समर्पित करने का श्रेय विवेक को ही है। अतः विवेक के अधिष्ठाता गणेश जी को पूजन में तथा जीवन में भी सदैव सर्वप्रथम स्मरण करना ही अभीष्ट और वरेण्य है।