इस वर्तमान सदी में देश के सामाजिक माहौल में बहुत तेजी से बदलाव आया है। पहले वृद्धों की सेवा को पुण्य का कार्य समझा जाता था, किंतु आज वृद्धों के प्रति पारंपरिक आदर का भाव लुप्त होता जा रहा है। संवेदनहीनता इस हद तक बढ़ गई है कि लोग अपने बूढ़े माता-पिता को भी घर से बाहर निकालने लगे हैं।
उन्हें मानसिक यातना देना तो आम बात हो गयी है। ऐसी स्थिति में भी बिहार का गयाधाम अपना पौराणिक महत्व बरकरार रखे हुए है। आज भी लाखों हिंदू सच्ची और श्रद्धावान पीढ़ी का कर्म निभाते अपने उन पूर्वजों की आत्मा को शांति व मुक्ति प्रदान कराने के लिए पहुंचते हैं, जो बरसों पूर्व उनसे जुदा हो गये थे।
बिहार की राजधानी पटना से लगभग 103 किलो मीटर दूर स्थित बौद्धों की नगरी गया हिंदुओं की मोक्ष-भूमि मानी जाती है। हिंदू धर्म ग्रंथों में ऐसी मान्यता है कि जब तक मृत आत्माओं के नाम पर उनके वंशजों के जरिए पिंड दान और तर्पण नहीं किए जाते तब तक उन आत्माओं को शांति व मुक्ति नहीं मिलती। आत्मा भटकती रहती हैं।
श्राद्ध एवं पिण्डदान के लिए प्रसिद्ध 'गया' वेदों के अनुसार भारत के सप्त प्रमुख पुरियों में भी अपना एक विशेष स्थान रखता है। पुराणों के अनुसार यह हिंदुओं का एक मुक्तिप्रद तीर्थ है। धर्म ग्रंथों के मुताबिक पिण्डदान और तर्पण कर्म किसी भी दिन हो सकता है, लेकिन आश्विन, पौष और चैत्र का कृष्णपक्ष उपयुक्त माना जाता है, इसमें भी आश्विन कृष्ण पक्ष का विशिष्ट महत्व है।
शास्त्रों की मान्यता है कि इस अवधि में समस्त पितृ (पितर) वहां आते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक वर्ष आश्विन माह के कृष्णपक्ष में गया में पितृ (पितर) शांति करने वालों की भीड़ अधिकाधिक जुटती है। इस अवधि में पिण्डदान करने वालों की संखया लगभग दस लाख तक पहुंच जाती है।
पिण्डदान करने वालों में नेपाल, श्रीलंका, बर्मा, तिब्बत, भूटान आदि देशों के हिंदू धर्मावलंबियों की संखया भी अच्छी-खासी रहती है। इसे पितृ पक्ष मेला या पितर पक्ष मेला भी कहते हैं। बाल्मीकि रामायण, महाभारत, गरुड़ पुराण, मत्स्य पुराण, भागवत पुराण, लिंग पुराण, कात्यायन स्मृति आदि में गया में पिंडदान की परंपरा की विशद चर्चा मिलती हैं।
पिंडदान की शुरुआत कब और किसने की, यह बताना उतना ही कठिन है जितना कि भारतीय धर्म-संस्कृति के उद्भव की कोई तिथि निश्चित करना। परंतु स्थानीय पंडों का कहना है कि सर्व प्रथम सतयुग में ब्रह्मा जी ने पिंडदान किया था। महाभारत के 'वन पर्व' में भीष्म पितामह और पांडवों की गया-यात्रा का उल्लेख मिलता है।
इसी तरह, मर्यादा पुरुषोत्तम् श्रीराम और युधिष्ठर के गया आगमन का वर्णन स्पष्ट प्राप्त है। श्रीराम ने महाराजा दशरथ का पिण्ड दान यहीं (गया) में किया था। गया के पंडों के पास साक्ष्यों से स्पष्ट है कि मौर्य और गुप्त राजाओं से लेकर कुमारिल भट्ट, चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस व चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों का भी गया में पिंडदान करने का प्रमाण मिलता है। गया में फल्गू नदी प्रायः सूखी रहती है।
इस संदर्भ में एक कथा प्रचलित है। भगवान राम अपनी पत्नी सीता के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गयाधाम पहुंचे। श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामान लाने वे बाजार चले गये। तब तक राजा दशरथ की आत्मा ने पिंड की मांग कर दी। फल्गू नदी तट पर अकेली बैठी सीता जी अत्यंत असमंजस में पड़ गई।
अंततोगत्वा फल्गू नदी, वटवृक्ष और गौ को साक्षी मानकर उन्होंने बालू का पिंड बनाकर दे दिया। किंतु भगवान श्रीराम के लौटने पर फल्गू नदी और गौ दोनों मुकर गई, पर वटवृक्ष ने सही बात कही। इससे क्रोधित होकर सीताजी ने फल्गू नदी को श्राप दे दिया कि तुम सदा सूखी रहोगी जबकि गाय को मैला खाने का श्राप दिया।
वटवृक्ष पर प्रसन्न होकर सीता जी ने उसे सदा दूसरों को छाया प्रदान करने व लंबी आयु का वरदान दिया। तब से ही फल्गू नदी हमेशा सूखी रहती हैं, जबकि वटवृक्ष अभी भी तीर्थयात्रियों को छाया प्रदान करता है। आज भी फल्गू तट पर स्थित सीता कुंड में बालू का पिंड दान करने की क्रिया (परंपरा) संपन्न होती है। तर्पण और पिंड दान के लिए गया में 55 बेदियां है, लेकिन 43 बेदियों का महत्त्व अधिक है।
इनमें भी विष्णु-पद प्रेतशिला, वैतरणी, सीताकुंड और फल्गू धारा सर्वोपरि हैं। ये बेदियां बिखरी हुई हैं, मगर अधिकांश बेदियां फल्गू नदी के किनारे हैं। इनमें 16 बेदियां एक ही स्थान पर हैं और वे खंभे के रूप में हैं। इन खंभ्भों पर खड़ा एक चौकोर सा हॉल है। श्रद्धालुगण वहीं बैठकर पिंडदान करते हैं।
जल तर्पण व पिंडदान से पूर्व सिर का मुंडन अनिवार्य होता है। श्राद्ध की सारी प्रक्रिया गया में रहने वाले पंडे ही कराते हैं। श्राद्ध कार्य में जल तर्पण व पिंडदान पूजा के दो आवश्यक विशिष्ट अंग हैं। श्राद्ध में प्रायः तीन विधियां अपनाई जाती हैं। एक विधि के अनुसार श्राद्ध फल्गू नदी के तट पर विष्णु पद मंदिर में व अक्षयवट के नीचे किया जाता है। दूसरी विधि के अनुसार 55 बेदियों पर पिंडदान होता है। जबकि तीसरी विधि के अनुसार 43 बेदियों पर पिंडदान होता है।
वैसे जल तर्पण के लिए फल्गू, गोदावरी, रामसागर व ब्रह्मकुंड सहित कई अन्य तालाब हैं, पर वैतरणी में जल तर्पण अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। वैतरणी तालाब के संदर्भ में कहा जाता है कि यही वह भयानक नदी है, जो धरती से स्वर्ग की ओर बहती है और इसमें स्नान मात्र से पूर्वजों को नरक से और यातना से मुक्ति मिलती है।
श्रद्धालुगण वहां गाय अथवा बछड़ों का दान भी करते हैं। आम धारणा है कि पूर्वज इनकी पूंछ के सहारे वैतरणी नदी पार कर लेते हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार हर श्राद्ध के बाद 'कागबलि' अनिवार्य हैं। जल तर्पण करते समय पूर्वजों के लिए चावल और जौ के आटे व खोवा इत्यादि से पिंड दान किया जाता है।
सीता कुंड में बालू का पिंड दिया जाता है। ऐसी मान्यता हैं कि जल तर्पण और पिंड दान से पूर्वजों की आत्मा को पूर्ण शांति व भटकती आत्मा को प्रेतत्व से मुक्ति मिलती है। धर्म ग्रंथों के मुताबिक पिण्डदान और तर्पण कर्म किसी भी दिन हो सकता है, लेकिन आश्विन, पौष और चैत्र का कृष्णपक्ष उपयुक्त माना जाता है, इसमें भी आश्विन कृष्ण पक्ष का विशिष्ट महत्व है। शास्त्रों की मान्यता है कि इस अवधि में समस्त पितृ (पितर) वहां आते हैं।
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