वैदिक बर्फ में रहने वाले ऊंचे पहाड़ों के देवता ! चांदनी रात में जब तुम नीचे देखते हो, तो क्या तुम्हें नहीं लगता कि एक स्वर्ग का नजारा इधर भी है’ लद्दाख क्षेत्र की यह कहावत अपने आप में इस क्षेत्र के असीम सौंदर्य का वर्णन है।
यह एक रहस्यमय भौगोलिक क्षेत्र है। यहां की बौद्ध संस्कृति पर तिब्बत का गहरा प्रभाव है। इस संस्कृति को जीवित रखने में मठों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। लेकिन स्थानीय लद्दाखी नरेशों की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। आज लेह बौद्ध संस्कृति का तो कारगिल इस्लामी सूफी संतों का साधनास्थल है।
लद्दाख की संस्कृति में इंडस अर्थात सिंधु नदी का भारतीय संस्कृति एवं जनजीवन के लिए बहुत महत्व है। लद्दाख का लेह क्षेत्र सिंधु घाटी के नाम से ही जाना जाता है। सिंधु नदी भारतीय संस्कृति की आत्मा है। इस महान नदी का उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है। अंग्रेजी में इसे इंडस कहा जाता है। कहते हैं इसी इंडस से भारत के लिए प्रयुक्त इंडिया शब्द बना है। सिंधु को इरानी लोग अपभ्रंश के रूप में हिंदू भी पुकारते थे। कहते हैं इसी नदी के कारण भारत का एक नाम हिंदुस्तान भी है।
हिमालय, तिब्बत, भारत तथा वर्तमान पाकिस्तान को अपने प्रवाह क्षेत्र से प्रभावित करने वाली यह महान नदी लगभग 2900 किमी लंबी है। दक्षिण पश्चिम तिब्बत में 550 मीटर ऊंचाई वाले उद्गम स्थान से निकलकर यह नदी लद्दाख क्षेत्र से ही भारत में प्रवेश करती है। जिस भौगोलिक क्षेत्र से सिंधु का उद्गम है वहीं से भारत की प्रसिद्ध नदी ब्रह्मपुत्र भी निकलती है। यह नदी भारत की प्राचीन सिंधु सभ्यता की आधारशिला है।
हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, गनवेरीवल, राखी गढ़ी तथा ढोलवीरा जैसे प्राचीन नगरों की जीवन रेखा यह नदी भारतीय संस्कृति, आध्यात्मिक जीवन तथा सभ्यता का महान दीपक है। सिंधु भारत की सांस्कृतिक परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान रखती है और अपनी सहायक नदी घार के साथ तिब्बत से लद्दाख में प्रवेश करती है।
सिंधु दर्शन उत्सव या महापर्व का स्थल लद्दाख का प्रमुख शहर लेह है क्योंकि सिंधु नदी लेह मनाली राजमार्ग पर कारू नामक स्थान के पास मैदानी क्षेत्र में आती है। इसी तरह लेह जम्मू राजमार्ग पर निम्मू घाटी में यह नदी जान्सकार नदी से मिलती है। इस तरह कारू से निम्मू घाटी तक का क्षेत्र सिंधु दर्शन के अंतर्गत आता है।
सिंधु दर्शन पर्व मनाने का शुभारंभ भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया। इसके बाद सिंधु दर्शन को लद्दाखी त्योहारों में शामिल कर लिया गया। तीन दिवसीय यह त्योहार जहां एक ओर सिंधु के आध्यात्मिक महत्व से हमारा परिचय करवाता है वहीं लद्दाखी जनजीवन से रूबरू होने का भी मौका देता है।
तीन दिवसीय इस कार्यक्रम में सबसे पहले सिंधु का चुगलमसर नामक स्थान पर वैदिक विधान से पूजन होता है। फिर सम्मिलित होने वाले पर्यटक एवं यात्री सिंधु नदी के किनारे-किनारे कारू से निम्मू घाटी तक पैदल यात्रा करते हैं व आस-पास के स्थानों का आनंद लेते हैं। इस यात्रा में स्फथूक, माठो, थिक्से, शे, फियांग, हेमिस इत्यादि प्रसिद्ध बौद्ध मठ अत्यंत दर्शनीय हैं। सिंधु के किनारे की निम्मू घाटी में प्रसिद्ध गुरुद्वारा पत्थर साहब है।
कहते हैं यहां स्वयं गुरुनानक देव जी पधारे थे। अब सिंधु दर्शन का यह त्योहार 1 से 3 जून के मध्य मनाया जाता है। इसमें लद्दाखी लोगों के साथ भारत के कोने-कोने से आए लोग शामिल होते हैं। सिंधु दर्शन के लिए जाने वाले यात्री दिल्ली, चंडीगढ़, जम्मू एवं श्रीनगर से विमान द्वारा लेह पहुंच सकते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 1 जम्मू से लेह तक जाता है। जून से यह मार्ग भी यातायात के लिए खुला रहता है। इसी तरह मनाली से लेह तक का सड़क मार्ग भी उपयोग में लाया जा सकता है।
जून में यहां का तापमान 5 डिग्री से 20 डिग्री तक रहता है। सर्दी से बचाव के लिए पर्याप्त कपड़े होना आवश्यक है। रक्तचाप, हृदय रोग तथा दमा से ग्रस्त लोग यहां न जाएं तो उत्तम है। बौद्ध मठों में बौद्ध धर्म के नियमों का पालन करें। धूम्रपान व मद्यपान यहां मठों में सख्त मना है। मठों एवं महलों के चित्र लेते चहकृ44 क्यों करनी चाहिए तीर्थयात्रा ? नव जीवन में यात्रा का माविशेष महत्व है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर यदि मनुष्य विचरण न करे और एक-दूसरे से न मिले तो उसका जीवन बहुत ही बोझिल एवं नीरस हो जाएगा। तीर्थयात्रा का धार्मिक महत्व अनेक वेद पुराणों में वर्णित है।
तीर्थ का अर्थ है पवित्र स्थान। ती. र्थ स्थलों में अनेक महात्माओं और संतों ने तपस्या की और वहां निवास किया। वहां की नदियों में स्नान करके उन्हें पावन किया। उनके तप-बल एवं संयमित दिनचर्या से वहां का वातावरण एवं भूमि और भी अधिक पावन हो गई। तीर्थ यात्रा का धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व है लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि हमारे अधिसंख्य तीर्थ स्थल पर्वतीय क्षेत्रों अथवा प्राकृतिक संपदा से संपन्न क्षेत्रों में अवस्थित हैं।
यहां जाना प्रकृति के रहस्यों को निकटता से जानना है। भूमि से एक ही स्थल से बर्फीला और खौलता पानी निकलना, स्वाभाविक रूप से निरंतर जलती ज्वाला, गंगाजल में कीड़े नहीं पड़ना आदि कई चीजें किसी आश्चर्य से कम नहीं। ऐसे स्थलों की यात्रा केवल आध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं कई अन्य दृष्टियों से भी महत्वपूर्ण है। तीर्थयात्रा के प्रति प्रायः जनमानस की यह धारणा है कि तीर्थों में जाकर गंगा स्नान कर जीवन भर के जाने-अनजाने किए गए समस्त पाप कट जाते हैं और मृत्योपरांत स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
यही कारण है कि प्राचीन काल में लोग गृहस्थाश्रम की सारी जिम्मेदारियां पूरी कर वृद्ध ावस्था में तीर्थयात्रा पर निकल पड़ते थे। तब यात्रा का अभिप्राय सही संदर्भों में पैदल यात्रा से होता था। कई दिन की कठोर यात्रा और कई पड़ावों पर रुकते हुए तीर्थयात्री पूरे समूह में यात्रा पर निकल पड़ते थे। तब यह भी गारंटी नहीं होती थी कि यात्री सुरक्षित घर लौटकर आ भी पाएंगे या नहीं। इसलिए परिवार के सभी सदस्य तीर्थयात्री को बड़े उदास होकर विदा करते थे। यह एक प्रकार से अंतिम विदाई सी होती थी।
आज के प्रगतिशील युग में समृद्ध यातायात संसाधनों ने तीर्थयात्रा के मायने ही बदल दिए हैं और साथ ही तीर्थ यात्रा को शेष कार्य मान बुढ़ापे के लिए छोड़ने की प्रवृŸिा भी बदल रही है। प्रवृŸिा में बदलाव जरूरी भी है। वृद्धावस्था में किसी का सहारा लेकर इन स्थलों में जाने और युवावस्था या सक्रिय अवस्था में जाने में बहुत अंतर है। यूरोप आदि देशों में नवयुवकों की शिक्षा तब तक अपूर्ण रहती है जब तक वे पूरे यूरोप आदि में भ्रमण कर दूसरों की सभ्यता संस्कृति के बारे में जान न जाएं। यात्रा नए-नए स्थलों को जानने वहां की कला-संस्कृति को समझने का एक माध्यम है।
जिन स्थलों के विषय म ंे पाठय् पस्ु तका ंे म ंे पढा़ या जाता ह ै या जिनके दृश्य कलेंडर एवं टेलीविजन में दिखाए जाते हैं, वहां व्यक्तिगत रूप से पहुंच कर देखने समझने का अपना आनंद है। आज के तनाव भरे वातावरण में लोग स्वास्थ्य के प्रति बेहद सजग हो रहे हैं, इसी बहाने वे तीर्थ यात्रा का लाभ भी उठा लेते हैं क्योंकि सैर-सपाटे की अधिकतर जगहें प्रकृति के उन्मुक्त प्रांगण में बसी हैं और इनमें से 95 प्रतिशत स्थानों में प्रायः किसी न किसी देवी-देवता का मंदिर है। हमारे देवता भी स्वास्थ्य के प्रति सचते रह े हागंे े तभी ता े कृष्ण का े कजंु गलियां पसंद आईं, राम वन-वन में जहां गए वहीं पूज्य तीर्थ बन गए, भोलेशंकर ने तो कैलाश पर्वत पर ही अपना बसेरा कर लिया, विष्णु क्षीरसागर निवासी हुए।
जितने भी मंदिर हैं उनमें से अधिकतर पर्वतीय पहाड़ियों, घाटियों, समुद्र या नदी तट पर दिखाई देते हैं। आज बढ़ते मोटापे से परेशान लोग यदि पर्वतीय क्षेत्रों में जाकर पैदल यात्रा करें तो उन्हें न तो जिम जाने की जरूरत पड़ेगी और न ही किसी चिकित्सक के पास। आज के मशीनी युग में मानव भी यंत्रवत होता जा रहा है। शहरों में दिन और रात का अंतर ही नहीं रहता, रात को जागना दिन में सोना प्रकृति के विरुद्ध उनकी दिनचर्या है।
रोजमर्रा की अस्तव्यस्तता से परेशान लोग वर्ष में कम से कम एक बार लंबी यात्रा का कार्यक्रम बना कर ऐसे स्थलों में जाते हैं और नई ऊर्जा लेकर लौटते हैं। हमारे देश में लोग प्रायः धर्म के नाम पर कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। उनकी इस धर्म भीरुता को देखकर ही कदाचित तीर्थ यात्रा पर धर्म का आवरण चढ़ाया गया होगा अन्यथा कोई भी व्यक्ति घूमने-फिरने के नाम से घर से बाहर न निकले।
यात्रा ज्ञानार्जन एवं व्यक्तित्व के विकास के लिए भी जरूरी है। पावन स्थलों में जाकर सात्विक विचार एवं सदाचरण की भावना मन में आना भी तीर्थ यात्रा का एक अप्रत्यक्ष हेतु है। स्कंदपुराण में सत्य, क्षमा, इंद्रिय संयम, दया, प्रिय वचन, ज्ञान और तप सात तीर्थ बताए गए हैं। जिस प्रकार व्यक्ति नियमित रूप से स्नान कर अपनी देह के मैल को साफ करता है उसी प्रकार यदि इन सातों बातों को अपने आचरण में ढाल ले तो उसका अंतःकरण भी शुद्ध हो जाएगा। उसके बाद वह जो भी कार्य करेगा वह अपने आप में एक पुण्य कार्य होगा और वह जहां भी जाएगा वह भूमि पावन होगी।
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