भगवान शिव सभी प्राणियों के मित्र हैं। नाग, बिच्छू, श्मशान की भस्म जैसी भयानक चीजें उनके आभूषण हैं तो भांग, धतूरे जैसी त्याज्य वस्तुएं उनके आहार। बेगवती गंगा को उन्होंने अपनी जटाओं में समेटा हुआ है। इस तरह वे सृष्टि में संतुलन बनाते हैं। शिवा उनकी शक्ति के रूप में हमेशा उनके साथ रहती हैं, इसीलिए वे अर्द्धनारीश्वर भी कहलाते हैं। यहां प्रस्तुत है शिव और शिवा का प्रतीक मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के उद्भव की रोचक गाथा...
दक्षिण भारत का कैलाश माने जाने वाले आंध्र प्रदेश में अवस्थित मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की छटा देखते ही बनती है। चारों ओर पहाड़ियां, केले और बिल्वपत्र के घने जंगल, साथ में बहती पाताल गंगा (कृष्णा नदी), ऐसा लगता है मानो भोले शंकर ने अपने स्वभाव के अनुकूल ही मस्तमौला वातावरण का चुनाव किया है। मल्लिका का अर्थ है पार्वती और अर्जुन स्वयं शिव हैं। इस प्रकार शिव और शक्ति दोनों यहां विद्यमान हैं।
कहा जाता है कि ब्रह्मादि देवताओं ने भी यहां कई वर्षों तक निवास किया। यह मंदिर बहुत प्राचीन है। द्रविड़ियन शैली में बनी ऊंची मीनारें और विस्तृत आंगन वाला यह मंदिर विजयनगर स्थापत्य कला का एक अप्रतिम नमूना है। पुराणों में भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य वर्णित है। कहा जाता है कि श्रीशैल पर जाकर शिव पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है।
इसके दर्शन मात्र से समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं और अनंत सुख की प्राप्ति होकर आवागमन के चक्र से मुक्ति मिलती है। कहा जाता है कि मंदिर में आयोजित होने वाली महाआरती के समय छत्रपति शिवाजी यहां आया करते थे। उन्होंने मंदिर के दायीं ओर एक मीनार और मुफ्त आहार केंद्र भी बनाया। महान शिव भक्त अहिल्याबाई होलकर ने पाताल गंगा के किनारे एक बड़ा स्नानघाट बनाया। इस मंदिर की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई है।
इस ज्योतिर्लिंग के उद्भव की अनेक कथाएं हैं। एक कथा श्री गणेश एवं स्वामी कार्तिकेय के विवाह के संदर्भ में है। गणेश चाहते थे कि उनका विवाह पहले हो और कार्तिकेय चाहते थे उनका। शिव-पार्वती ने इस विवाद को रोकने के लिए कहा कि जो सर्वप्रथम पृथ्वी की परिक्रमा कर लेगा उसी का विवाह पहले होगा। माता-पिता के वचन सुनते ही कार्तिकेय परिक्रमा के लिए दौड़ पड़े।
स्थूलकाय श्री गणेश स्वयं कहीं नहीं गए लेकिन उन्होंने अपनी बुद्धि को अवश्य दौड़ाया और झट से माता-पिता की सप्त परिक्रमाएं कर डालीं। जिनका महत्व पृथ्वी की परिक्रमा के समान ही है। इसी बुद्धि मŸाा के कारण वे प्रथम पूज्यनीय भी बने। जब तक कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा कर वापस आते श्री गणेश का विवाह विश्वरूप प्रजापति की सिद्धि-बुद्धि नाम की दो कन्याओं से हो गया और सिद्धि से ‘क्षेम’ और बुद्धि से ‘लाभ’ दो पुत्र भी उत्पन्न हो गए।
देवर्षि नारद ने जब यह समाचार कार्तिकेय को सुनाया तो वे माता-पिता के चरण स्पर्श कर रूठकर क्रौंच पर्वत पर चले गए। माता पार्वती ने उन्हें मनाने के लिए नारद जी को भेजा, मगर वे नहीं आए। रूठे कार्तिकेय को मनाने माता पार्वती स्वयं भगवान शंकर के साथ क्रौंच पर्वत पर गईं, लेकिन उनके आगमन की सूचना पाकर कार्तिकेय वहां से कहीं अन्यत्र चले गए। इस क्रम में शिव पार्वती कई दिन क्रौंच पर्वत पर रहे और ज्योतिर्लिंग के रूप में वहीं स्थ ापित हो गए। दूसरी कथा के अनुसार एक बार राजकुमारी चंद्रावती इस वन में तपस्या करने आयी।
एक दिन उसने देखा कि बेल के वृक्ष के नीचे एक कपिला गाय खड़ी है और उसके चारों थनों से दूध बह रहा है। उसने देखा कि यह गाय प्रतिदिन वहां खड़ी होकर अपने दूध की धार जमीन पर गिराती है। चंद्रावती ने उत्सुकतावश उस स्थान को खोदा तो आश्चर्यचकित रह गई। वहां से चमकता हुआ स्वयंभू ज्योतिर्लिंग प्रकट हो गया। इसमें से सूर्य के समान किरणें निकल रही थीं।
चंद्रावती ने शिव की पूजा की और यहां पर एक बड़े मंदिर का निर्माण कराया। भगवान शंकर उस पर बहुत प्रसन्न हुए और उसे मुक्ति प्रदान की। एक अन्य कथा के अनुसार शैल पर्वत के निकट चंद्रगुप्त राजा की राजधानी थी। उसकी कन्या किसी विशेष विपŸिा से बचने के लिए अपने पिता के महल से भाग निकली और इस पर्वत पर शरण ली। वहां वह ग्वालों के साथ रह कंदमूल और दूध से अपना जीवन निर्वाह करने लगी। उसके पास एक श्यामा गाय थी।
कहते हैं कि कोई चुपचाप उस गाय का दूध दुह लेता था। एक दिन इस कन्या ने संयोगवश उस चोर को देख लिया, मगर जब वह उसे मारने के लिए दौड़ी तो वहां शिवलिंग के अतिरिक्त कोई नहीं मिला। सब लोग शिवलिंग की पूजा अर्चना करने लगे। बाद में इस स्थान पर एक भव्य मंदिर बना दिया गया।
इस मंदिर के पास ही पार्वती जी का मंदिर है जो ‘भ्रमराम्बा’ के नाम से प्रसिद्ध है। कहते हैं पार्वती यहां से मधुमक्खी के रूप में शिव की पूजा करने आती हैं। यह पावन भूमि एक प्रकार से पूर्ण रूप से शिव स्थली है। यहां जगह- जगह पर शिवलिंग स्थापित हैं। शिवरात्रि के अवसर पर यहां बहुत बड़ा मेला लगता है और यहां पूरा गांव सा बस जाता है।
मेले के दिनों में यहां मार्ग में पुलिस आदि सुरक्षा का विशेष प्रबंध रहता है। तीर्थ यात्री यहां मल्लिकार्जुन से नीचे पांच मील की उतराई पर कृष्णा नदी में स्नान करते हैं। इसमें स्नान करने का बड़ा महत्व है। इतनी गहराई पर होने के कारण ही कृष्णा नदी यहां पातालगंगा के नाम से जानी कहां ठहरें यहां श्रीशैलम देवस्थानम के यात्री निवासगृह बने हैं जिनमें यात्रियों के ठहरने की पर्याप्त व्यवस्था है।
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