हिमालय के दिव्य तीर्थ स्थल
हिमालय के दिव्य तीर्थ स्थल

हिमालय के दिव्य तीर्थ स्थल  

फ्यूचर समाचार
व्यूस : 32367 | अप्रैल 2007

सपूर्ण हिमालय क्षेत्र अनेकानेक तीर्थों का प्रमुख स्थल है, बदरी - नाथ, केदारनाथ, गंगोŸारी, यमुनोŸारी, कैलाश, मानसरोवर आदि पावन स्थलों की छटा देखते ही बनती है।

केदारनाथ एवं बदरीनाथ: ऋषिकेश से जोशीमठ तक मोटर, बस की राष्ट्रीय सड़क बन गई है। जोशीमठ तक केवल वे यात्री जाते हैं, जिन्हें केवल बदरीनाथ जाना होता है। केदारनाथ जाने वाले यात्री रुद्रप्रयाग जाते हैं। बायीं ओर कमलेश्वर महादेव का मंदिर है। यह स्थान श्रीक्षेत्र कहलाता है। सोमप्रयाग से गौरीकुंड होते हुए केदारनाथ जाने का रास्ता है।

गौरीकुंड: यहां दो कुंड हैं- एक गरम पानी का और दूसरा ठंडे पानी का। शीतल जल का कुंड अमृतकुंड कहलाता है। कहते हैं कि भगवती पार्वती ने इसी कुंड में प्रथम स्नान किया था। गौरी कुंड का जल पर्याप्त उष्ण है। माता पार्वती का जन्म यहीं हुआ था। यहां पार्वती के अतिरिक्त श्री राधाकृष्ण मंदिर भी है। समीप ही केदारनाथ है, जहां की चढ़ाई कठिन है। यहां अत्यधिक ठंड पड़ती है। पर्वतीय मक्खियों का उपद्रव बहुत रहता है। श्री केदारनाथ जी द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक है। यह केदार क्षेत्र अनादि है। इस क्षेत्र में महिषरूपधारी भगवान शंकर के विभिन्न अंग पांच स्थानों में प्रतिष्ठित हुए, इसलिए इस क्षेत्र का पंच केदार कहा जाता है।

इनमें द्वि तीय मदमहेश्वर में नाभि, तृतीय केदार तुंगनाथ में बाहु, चतुर्थ रुद्रनाथ में इस प्रथम केदारनाथ में पृष्ठ भाग प्रतिष्ठित हुआ। केदारनाथ में भगवान शंकर का नित्य सान्निध्य बताया गया है। केदारनाथ में कोई मूर्ति नहीं है, बहुत बड़ा त्रिकोण पर्वत खंड सा है जिसकी पूजा यात्री स्वयं जाकर करते हैं। मंदिर प्राचीन और साधारण है।

भृगुपंथ गंगा, क्षीरगंगा चोरा बाड़ीताल, वासुकी ताल एवं भैरव शिला यहां के दर्शनीय स्थल हैं। यहां पांचों पांडवों की मूर्तियां हंै। इसके अतिरिक्त भीम गुफा और भीम शिला है। कहते हैं कि इस मंदिर का जीर्णोद्ध ार आदि शंकराचार्य ने करवाया था और यहीं उन्होंने देहत्याग भी किया था। मंदिर के पास कई कुंड हैं। पर्वत शिखर पर कमल मिलते हैं। श्री केदारनाथ मंदिर में उषा, अनिरुद्ध, पंचपांडव, श्रीकृष्ण तथा शिव-पार्वती की मूर्तियां हैं। मंदिर के बाहर परिक्रमा के पास अमृतकुंड, ईशानकुंड, हंसकुंड, रेतकुंड आदि तीर्थ मुख्य हैं। केदारनाथ जी से लौटने का मार्ग गौरीकुंड से मंदाकिनी पार करके उखीमठ है।

कालीमठ में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के मंदिर हैं। यह सिद्धपीठ माना जाता है। यहां एक कुंड है, जो एक शिला से ढका रहता है। यह केवल दोनों नवरात्रों में खोला जाता है। तुंगनाथ: यहां स्थित मंदिर में शिवलिंग तथा कई और मूर्तियां हैं। यहां पाताल गंगा नामक एक अत्यंत शीतल जल की धारा बहती है। तुंगना. थ शिखर से पूर्व की ओर नंदा-देवी और द्रोण् ाागिरिचल शिखर दिखाई देते हैं। उŸार की ओर गंगोŸारी, यमुनोŸारी, केदारनाथ, बदरीनाथ तथा रुद्रनाथ दिखाई पड़ते हैं। दक्षिण में पैड़ी, चंद्र वदनी पर्वत तथा सुरखंडा देवी शिखर दिखाई देते हैं।

जंगलचट्टी: यदि तुंगनाथ की चढ़ाई न करनी हो तो चोपता से सीधे जंगलचट्टी पहुंच सकते हैं। यहां 12 मील पर श्री महादेव जी का मंदिर है, परशुराम जी का फरसा तथा अष्टधातु का त्रिशूल दर्शनीय है। यहां वैतरणी नदी बहती है। यहां ऋषिकेश से सीधे बदरीनाथ जाने वाली सड़क मिलती है, जो जोशीमठ तक जाती है। मंडलचट्टी से एक मार्ग अमृतकुंड जाता है।

इस मार्ग में अनुसूयामठ, अत्रि- आश्रम, दŸाात्रेय- आश्रम तथा अमृतकुंड मिलते हैं। मंडलचट्टी से एक मार्ग रुद्रनाथ को भी जाता है। रुद्रनाथ चतुर्थ केदार माने जाते हैं। पीपलकोटी से एक मार्ग गोहनताल जाता है। यह स्थान मनोरम है। हेलंग से अलकनंदा का पुल पार करके एक मार्ग कल्पेश्वर शिव मंदिर आता है।

जोशीमठ: शीतकाल में 6 महीने श्री बदरीनाथ जी की चलमूर्ति यहीं रहती है। उस दौरान पूजा यहीं होती है। इसके पास एक अत्यंत प्राचीन कल्पवृक्ष और ज्योतिषपीठ शंकराचार्य मठ है यहां नभगंगा, दंडधारा का स्नान होता है। शालिग्राम शिला में भगवान नृसिंह की अद्भुत मूर्ति है जिनकी एक भुजा बहुत पतली है और लगता है कि पूजा करते समय वह मूर्ति से कभी भी अलग हो सकती है। कहा जाता है कि जिस दिन यह हाथ अलग होगा, उसी दिन विष्णुप्रयाग से आगे नर-नारायण पर्वत, जो बिल्कुल पास आ गए हैं, मिल जाएंगे और बदरीनाथ मार्ग बंद हो जाएगा। उसके बाद यात्री भविष्यबदरी जाया करेंगे।

जोशीमठ से आगे विष्ण् ाुप्रयाग विष्णु गंगा और अलकनंदा का संगम है। यहां भगवान विष्ण् ाु का मंदिर है। देवर्षि नारद ने यहां भगवान की आराधना की थी। पांडुकेश्वर योग बदरी (ध्यान बदरी) का मंदिर है, जिन्हें पाडं कु श्े वर भी कहत े ह।ंै पाडं कु श्े वर से एक मार्ग लोकपाल, पुष्पघाटी, हेमकुंड तथा काकभुशुंडी आश्रम तक जाता है। बदरीनाथ से 4 मील पर हनुमान चट्टी है, उसके ऊपर ही लोकपाल तीर्थ है। मार्ग पांडुकेश्वर से ही है। रास्ते में झूला पुल से होकर गंगा को पार करना पड़ता है। पुल के पार लक्ष्मण गंगा है, जो लोकपाल सरोवर से निकली है। बदरीनाथ धाम म ंे पहचुं कर अलकनदं ा में स्नान करना अत्यंत कठिन है।

अलकनंदा के तो यहां दर्शन ही किए जाते हैं, स्नान तो यात्री तप्तकुंड में करते हैं। वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गरी-गोला, मिश्री आदि प्रसाद चढ़ाने के लिए यात्री ले जाते हैं। श्री बदरीनाथ जी की मूर्ति शालिग्राम शिला में बनी ध्यानमग्न चतुर्भुज मूर्ति है। कहा जाता है कि पहली बार यह मूर्ति देवताओं ने अलकनंदा में नारदकुंड में से निकालकर स्थापित की। उसके बाद जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ, तब इस मंदिर पर उनका अधिकार हो गया। उन्होंने बदरीनाथ की मूर्ति को बुद्धमूर्ति मानकर पूजा करना जारी रखा। जब शंकराचार्य जी बौद्धों को पराजित करने लगे, तब इधर के बौद्ध तिब्बत भाग गए। भागते समय वे मूर्ति को अलकनंदा में फेंक गए।

शंकराचार्य जी ने जब मंदिर खाली देखा, तब ध्यान करके अपने योग बल से मूर्ति की स्थिति जानी और अलकनंदा से उसे निकलवाकर मंदिर में प्रतिष्ठित कराया। आगे चलकर मंदिर के पुजारी ने ही मूर्ति को तप्तकुंड में फेंक दिया और वहां से चला गया क्योंकि आने-जाने वालों के अभाव में उसे सूखे चावल भी भोजन को नहीं मिलते थे फिर रामानुजाचार्य ने मूर्ति को इस तप्तकुंड से निकालकर प्रतिष्ठित कराया। बदरीनाथ जी के दाहिने में कुबेर की पीतल की मूर्ति है, उनके सामने उद्धव जी हैं तथा बदरीनाथ जी की उत्सव मूर्ति है। यह उत्सवमूर्ति शीतलकाल में जोशीमठ रहती है।

उद्धव जी के पास ही चरण पादुकाएं हैं और बायीं ओर नर नारायण की मूर्तियां हैं। इनके समीप ही श्री देवी और भूदेवी हंै। मुख्य मंदिर से बाहर मंदिर के घेरे में ही शंकराचार्य की गद्दी और मंदिर का कार्यालय है। वहां बिना धड़की घंटाकर्ण की मूर्ति है और परिक्रमा में लक्ष्मी जी का मंदिर है। बदरीनाथ धाम के अन्य तीर्थ श्री बदरीनाथ जी क े सिहं द्वार स े 4-5 सीढ़ियां उतरकर शंकराचार्य मंदिर है। जो इसमें लिंगमूर्ति स्थापित है। उससे 3-4 सीढ़ियां नीचे आदि केदार का मंदिर है। पहले आदि केदार के दर्शन और तब बदरीनाथ जी के दर्शन करने चाहिए। केदारनाथ से नीचे तप्तकुंड है जिसे अग्नितीर्थ कहा जाता है।

तप्तकुंड के नीचे निम्नलिखित पांच शिलाएं हंै:

गरुड़ शिला: यह शिला केदारनाथ मंदिर को अलकनंदा की ओर से रोके खड़ी है। इसी के नीचे होकर उष्ण जल तप्तकुंड में आता है।

नारद शिला: तप्तकुंड से अलकनंदा तक एक बड़ी शिला है। इसके नीचे अलकनंदा में नारद कुंड है। इस पर नारद जी ने दीर्घकाल तक तप किया था।

मार्कंडेय शिला: नारदकुंड के पास अलकनंदा की धारा में स्थित शिला इस पर मार्कंडेय जी ने भगवान की आराधना की थी।

नृसिंह शिला: नारदकुंड के ऊपर जल में एक सिंहाकार शिला है। हिरण्यकशिपु वध के पश्चात नृसिंह भगवान यहां पधारे थे।

वाराही शिला: यह उच्च शिला अलकनंदा के जल में है। पाताल से पृथ्वी का उद्धार करके हिरण्याक्ष वध के पश्चात वराह भगवान यहां शिलारूप में स्थित हुए। यहां गंगा जी में लक्ष्मी धारा तीर्थ है। तप्तकुंड से कुछ दूर ब्रह्मकपाली तीर्थ है जहां श्रद्धालु पिंडदान करते हैं। इसके नीचे ही ब्रह्मकुंड है जहां ब्रह्माजी ने तप किया था।

ब्रह्मकंुड से मातामूर्ति: ब्रह्मकुंड से गंगाजी के किनारे किनारे ऊपर जाने पर जहां अलकनंदा मुड़ती है, वहां अत्रि अनुसूया तीर्थ है। उस स्थान से माणा की सड़क से आगे चलने पर इंद्रधारा नामक श्वेत झरना मिलता है यहां इंद्र ने तप किया था इसलिए इसे इंद्रपद तीर्थ भी कहते हैं। यहां से थोड़ी दूर आगे भारत का अंतिम सीमा वाला माणा गांव है।

यह गांव अलकनंदा के उस पार है, किंतु इसी पार नर नारायण की माता मूर्ति देवी का छोटा-सा मंदिर है। भाद्रशुक्ला द्वादशी को यहां मेला लगता है। कहते हैं, भगवान नर नारायण उस दिन माता के दर्शन करने आते हैं। यह स्थान बदरीनाथ से लगभग 3 मील है।

सत्पथ तीर्थ: अलकनंदा के इसी किनारे आगे चलकर अनेक तीर्थ हैं जिनमें सत्पथ प्रमुख है।

सत्पथ से स्वर्गारोहण: सत्पथ के आगे मार्ग दुर्गम ही है आगे बढ़ने पर चढ़ाई पार करने के बाद पर्याप्त नीचे एक गोल कुंड दिखाई देता है। यह सोमतीर्थ है, जिसमें प्रायः जल नहीं रहता। यहां चंद्रमा ने दीर्घ काल तक तपस्या की थी। आगे मार्ग नहीं है। मार्गदर्शक बर्फ पर अनुमान से ले जाता है।

कुछ दूर आगे सूर्यकुंड नामक छोटा सा कुंड है जहां नर नारायण पर्वत मिल गए हैं। यहीं विष्णुकुंड भी है और उसके आगे लिंगाकार त्रिकोण पर्वत है। भागीरथी और अलकनंदा के स्रोतों का यह संगम है। इसके आगे अलकापुरी नामक शिखर है, जो कुबेर जी की नगरी है। सत्पथ के आगे विष्णुकुंड से होकर अलकनंदा की मूलधारा आती है। इसका उद्गम भी नारायण पर्वत के नीचे ही है।

सत्पथतीर्थ से स्वर्गारोहण शिखर दिखाई देता है। वहां हिम पर सात सीढ़ियों का आकार स्पष्ट दिखाई देता है। यहीं से युधिष्ठर सीधा स्वर्ग गए थे। परंतु यह बर्फ का कठिन मार्ग है। सत्पथ से बदरीनाथ: अलकापुरी शिखर के पास से अलकनंदा के दूसरे किनारे होकर लौटने पर वसुधारा मिलती है। बदरीनाथ से बहुत यात्री यहां तक आते हैं। वसुधारा तक अच्छा मार्ग है।

यहां बहुत ऊंचाई से जलधारा गिरती है और वायु के झोंके से बिखर जाती है। इसका एक बूंद जल भी परम दुर्लभ कहा गया है। यहां वसुधारा से ढाई मील नीचे आने पर माणा के पास अलकनंदा में सरस्वती की धारा मिलती है जिसे केशव प्रयाग कहते हैं। केशव प्रयाग में जहां सरस्वती का संगम है, वही सरस्वती के तट पर शम्याप्रास तीर्थ है। यहीं भगवान व्यास का आश्रम था। माणा ग्राम में व्यास गुफा है।

कहते हैं, इसी में बैठकर व्यास जी ने अठारह पुराण लिखे थे। पास में ही गणेश और व्यास गुफाएं हैं। समीप ही पर्वत की चोटी पर मुचुकुंद गुफा है। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से मुचुकुंद राजा ने यहां आकर तप किया था। माणा ग्राम इस ओर भारतीय सीमा का अंतिम ग्राम है यहां से अलकनंदा को पुल से पार करके बदरीनाथ तक सीधा मार्ग जाता है।

यमुनोŸारी: यह स्थान समुद्र स्तर से दस हजार फुट ऊंचाई पर है। यहां यात्रियों के ठहरने के लिए कालीकमली वाले क्षेत्र की धर्मशाला है। यहां गरम पानी के कई कुंड हैं। यात्री कपड़े में बांधकर चावल, आलू आदि इन कुंडों में डुबा देते हैं और वे पदार्थ पक जाते हैं। इस प्रकार यहां भोजन बनाने के लिए चूल्हा नहीं जलाना पड़ता।

इन कुंडों में स्नान करना संभव नहीं और यमुना का जल इतना शीतल है कि उसमें स्नान करना भी असंभव है। इसलिए गरम तथा शीतल जल मिलाकर स्नान करने के कुंड बने हुए हैं। बहुत ऊंचाई पर कलिंदगिरि से हिम पिघलकर कई धाराओं में गिरता है। कलिंद पर्वत से निकलने के कारण यमुना कालिंदी कही जाती हैं। वहां शीत इतना है कि बार-बार झरनों का पानी जमता- पिघलता है यमुनोŸारी का स्थान संकीर्ण है। छोटी-सी धर्मशाला है, छोटा या यमुना का मंदिर है। कहा जाता है कि महर्षि असित का यहां आश्रम था।

वे नित्य स्नान करने गंगा जी आते और निवास यहां करते। यहां यमुनोŸारी में वृद्धावस्था में दुर्गम पर्वतीय मार्ग नित्य पार करना उनके लिए कठिन हो गया, तब गंगाजी ने अपना एक छोटा झरना यमुना किनारे ऋषि के आश्रम पर प्रकट कर दिया। वह उज्ज्वल पानी का झरना आज भी वहां है। हिमालय में गंगा और यमुना की धाराएं एक हो गई होतीं यदि दोनों के मध्य दंड पर्वत न होता।

देहरादून के समीप भी दोनों धाराएं बहुत पास आ जाती हैं। सूर्यपुत्री यमराज सहोदर कृष्णप्रिया कालिंदी का यह उद्गम स्थान अत्यंत भव्य है। यहां से एक मार्ग मेलंगघाटी से कैलाश मानसरोवर जाता है। मार्ग कठिन है। श्रीकंठ से आई दूध गंगा यहां भागीरथी में मिलती है। इस संगम पर शिव मंदिर है और सामने श्रीकंठ पर्वत है। यह महाराज भगीरथ का तप स्थान है। यहां गंगापार मुखबा मठ है, जाड़ों में गंगोŸारी के पंडे मुखबा में रहते हैं। यहां से कुछ दूर मार्कंडेय स्थान है शीतकाल में गंगाजी की (गंगोŸारी की मूर्ति की) पूजा यहीं होती है।

जांडगंगा संगम: भैरवघाटी पहुंचने के थोड़ा पहले यह स्थान आता है। यहां जांडगंगा या जाह्नवी की धारा वेग पूर्वक आकर भागीरथी में मिलती है। कहा जाता है कि इस संगम पर ही जहु ऋषि का आश्रम था।

भैरवघाटी: यहां गंधक का पर्वत होने के कारण भूमि गरम रहती है। भैरव का मंदिर है।

गंगोŸारी: वैसे तो गंगा जी का उद्गम गोमुख से हुआ है और वहां की यात्रा बहुत कठिन होने के कारण बहुत कम यात्री वहां जाते हैं। गंगोŸारी में स्नान और गंगाजी का पूजन करके, यात्री गंगाजल लेकर यहीं से नीचे लौटते हैं। यह स्थान समुद्र तल से 20,000 फुट की ऊंचाई पर गंगाजी के दक्षिण तट पर है।

गंगा यहां केवल 44 फुट चैड़ी है और गहराई लगभग तीन फुट है। आस पास देवदारु तथा चीड़ के वन हैं। यहां का मुख्य दर्शनीय स्थल श्री गंगा जी का मंदिर है जिसमें आदि शंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठित गंगा जी की मूर्ति के अतिरिक्त राजा भगीरथ, यमुना, सरस्वती एवं शंकराचार्य की मूर्तियां भी हैं। गंगा जी के मंदिर के पास एक भैरवनाथ मंदिर है। गंगोŸारी में सूर्यकुंड, विष्णु कुंड, ब्रह्माकुंड आदि तीर्थ हैं। यहीं विशाल भगीरथ शिला है, जिस पर राजा भगीरथ ने तप किया था।

इस शिला पर पिंडदान किया जाता है। यहां गंगा को विष्णु तुलसी चढ़ाई जाती है। शीतकाल में यह स्थान बर्फ हो जाता है, इसलिए पंडे चलमूर्तियों को मुखबा ग्राम के पास मार्कंडेय क्षेत्र में ले आते हैं। कहा जाता है कि यह मार्कंडेय ऋषि की तप स्थली है। गंगोŸारी से नीचे केदार व गंगा का संगम है। गोमुख: गंगोŸारी से आगे का मार्ग अत्यंत कठिन है। मार्ग में वन्य जीव रीछ और चीते जैसे वन्य जीव भी मिल सकते हैं।

तीव्र वेगी पर्वतीय नालों को पार करना तथा कच्चे पर्वतों पर चढ़ना-उतरना बहुत साहस तथा सावधानी की अपेक्षा रखता है। आगे न कोई बना मार्ग है, न पड़ाव और न कोई दुकान। गोमुख में ही हिमधारा (ग्लेसियर) के नीचे से गंगा जी की धारा प्रकट होती है। इस स्थान की शोभा अतुलनीय है। गंगा के इस उद्गम में स्नान कर पाना मनुष्य का अहोभाग्य है। गोमुख में इतना शीत है कि जल में हाथ डालते ही वह सूना हो जाता है।

अग्नि जलाकर यात्री स्नान करते हैं। गोमुख से लौटने में शीघ्रता करनी चाहिए क्योंकि धूप निकलते ही हिमशिखरों से भारी हिमचट्टानें टूट-टूटकर गिरने लगती हैं। श्री बदरीनाथ से आगे नर नारायण पर्वत है। नारायण पर्वत के निचले चरण से ही अलकनंदा निकलती है और सत्पथ होकर बदरीनाथ धाम आती है। यहीं नारायण पर्वत के चरणों से भागीरथी गंगोत्तरी का हिमप्रवाह भी प्रारंभ होता है। यह प्रवाह सुमेरु (स्वर्ण पर्वत) से शिवलिंग शिखर पर आता है। यह शिखर गोमुख से दक्षिण में है। उससे नीचे उतर कर हिमप्रवाह से गोमुख गंगा की धारा पृथ्वी पर उतरती है।

मानसरोवर कैलाश यात्रा: हिमालय की पर्वतीय यात्राओं में मानसरोवर कैलाश की यात्रा सबसे कठिन है। यात्रा में यात्रियों को लगभग तीन सप्ताह तिब्बत में ही रहना पड़ता है। केवल यही एक यात्रा है जिसमें यात्री हिमालय को पूरा पार करते हैं। मानसरोवर कैलाश, अमरनाथ, सत्पथतीर्थ, गोमुख, स्वर्गारोहण जमससे क्षेत्रों की यात्रा में यात्री आॅक्सीजन मास्क साथ ले जाएं तो हवा में आॅक्सीजन की कमी से होने वाले श्वास कष्ट से बच जाएंगे। इस स्थल पर पहुंचने के अनेक मार्ग हैं। इनमें तीन मार्ग अपेक्षाकृत अधिक सुगम हैं।

(1) पूर्वोŸार रेलवे के टनकपुर स्टेशन से मोटर-बस द्वारा पिथौरागढ़ (अल्मोड़ा) जाकर फिर वहां से पैदल ‘लिपू’ नामक दर्रा पार करके जाने वाला मार्ग।

(2) उसी रेलवे के काठगोदाम स्टेशन से मोटर-बस द्वारा कपकोट (अल्मोड़ा) जाकर फिर पैदल यात्रा करते हुए ‘कुंगरी’ ‘बिंगरी’ घाटियों को पार करके जाने वाला मार्ग।

(3) उŸार रेलवे के ऋषिकेश स्टेशन से मोटर-बस द्वारा जोशीमठ जाकर वहां से पैदल यात्रा करते हुए तपोवन नीती घाटी को पार करके पैदल जाने का सीधा मार्ग।

मानसरोवर: पूरे हिमालय पार करके, तिब्बती पठार में लगभग 30 मील जाने पर पर्वतों से घिरे दो महान सरोवर मिलते हैं। मनुष्य के दोनों नेत्रों के समान वे स्थित हैं और उनके मध्य में नासिका के समान ऊपर उठी पर्वतीय भूमि है, जो दोनों को पृथक करती है। इनमें एक है राक्षसताल और दूसरा मानसरोवर।

राक्षसताल विस्तार में बहुत बड़ा है, वह गोल या चैकोर नहीं है। उसकी कई भुजाएं मीलों दूर तक टेढ़ी-मेढ़ी होकर पर्वतों में चली गई हैं। कहा जाता है कि किसी समय राक्षसराज रावण ने यहीं खड़े होकर देवाधिदेव भगवान श्ंाकर की आराधना की थी। मानसरोवर का जल अत्यंत स्वच्छ और नीला है। इसका आकार लगभग अंडे जैसा है। मानसरोवर 51 शक्ति पीठों में से एक है। सती की दाहिनी हथेली इसी में गिरी थी।

मानसरोवर में हंस बहुत हैं, राजहंस भी हैं। सामान्य हंसों की दो जातियां हैं, मटमैले सफेद और बादामी। मानसरोवर में सीप के मोती मिल जाते हैं कमल उसमें सर्वथा नहीं है। प्रत्यक्ष में मानसरोवर से कोई नदी या छोटा झरना भी नहीं निकलता है। किंतु कुछ अन्वेषक अंग्रेज विद्वानों का मत है कि सरयू और ब्रह्मपुत्र नदियों में मानसरोवर का जल भूमि के भीतर के मार्गों से आकर मिलता है। मानसरोवर के आस-पास कैलाश पर कहीं कोई वृक्ष नहीं, कोई पुष्प नहीं है। सरोवर जल सामान्य शीतल है।

कैलाश: मानसरोवर से कैलाश लगभग 20 मील दूर है। वैसे उसके दर्शन मानसरोवर पहुंचने से बहुत पहले से ही होने लगते हैं। जौहर मार्ग में कुंगरी बिंगरी की चोटी पर पहुंचते ही, यदि आकाश में बादल न हों, तो यात्री को कैलाश के दर्शन हो जाते हैं। तिब्बत के लोगों में कैलाश के प्रति अपार श्रद्धा है।

अनेक तिब्बती श्रद्धालु पूरे कैलाश की 32 मील की परिक्रमा दंडवत प्रणाम करते हुए पूरी करते हैं। वह कैलाश तो दिव्यधाम है, अपार्थिव लोक है, जैसे गोलोक। कैलाश का यह क्षेत्र शिवलिंग के आकार का है- षोडशदल कमल के मध्य स्थित आस पास क े सभी शिखरां े से ऊंचा है। यह कसौटी के ठोस काले पत्थर का है और ऊपर से नीचे तक सदा दुग्धोज्ज्वल बर्फ से ढका रहता है। किंतु उससे लगे हुए पर्वत, जिनके शिखर कमलाकार हैं, कच्चे लाल मटमैले पत्थर के हैं।

If you are facing any type of problems in your life you can Consult with Astrologer In Delhi



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.