पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण देश के चार दिशाओं में चार धामों की स्थापना कर उनकी यात्रा को अनिवार्य बनाने के पीछे एक वृहत उद्देश्य है। पूरे देश को एक सूत्र में बांधने और एक दूसरे की कला-संस्कृति से परिचित कराने का यह प्रयास आज भी उतना ही प्रासंगिक है। इन चार धामों की यात्रा के दौरान मार्ग में कई सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक पृष्ठभूमियों की जानकारी देश को जानने-समझने की बौद्धि क यात्रा भी बन सकती है। आइए जानें उनकी प्रसिद्धि का राज...
बदरीनाथ शिव अवतार आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की प्रतिष्ठा के लिए बदरीनाथ, द्वारकापुरी, जगन्नाथपुरी व रामेश्वरम चार धामों में चार पीठ स्थापित किए। इन चार धामों में बदरीनाथ उत्तर में स्थित है। ऐसी मान्यता है कि जब तक कोई तीर्थयात्री बदरीनाथ की यात्रा पूरी नहीं करता तब तक उसकी तीर्थयात्रा अधूरी ही रहती है।
बदरीनाथ का पुजारी केरल का नम्बूदरीपाद होता है जो बदरीनाथ का रावल कहलाता है। बताया जाता है कि शंकराचार्य ने धार्मिक एकता का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए उत्तर भारत के पंडितों को दक्षिण भारत स्थित मठों में भेजा और दक्षिण भारतीय पुजारियों को उत्तर भारत के मंदिरों में पूजा अर्चना की जिम्मेदारी सौंपी। कड़ाके की ठंड पड़ने के कारण बदरीनाथ के कपाट नवंबर के तीसरे सप्ताह में बंद कर दिए जाते हैं।
कपाट बंद करने से पहले होने वाली पूजा के समय वहां घी के जलते हुए दीप को छोड़ दिया जाता है। कहा जाता है कि छह माह बाद कपाट खुलने तक यह दीप जलता रहता है। बदरीनाथ धाम का विस्तृत वर्णन हिमालय के दिव्य तीर्थ स्थल में किया गया है। सौराष्ट्र के पांच रत्नों में से पश्चिम में स्थित द्वारका एक धाम है। भगवान श्री कृष्ण ने मथुरा व वृंदावन छोड़ यहां अपना धाम बसाया। द्वारका को मोक्षद्वार माना जाता है। कहते हैं यहां की भूमि के स्पर्श मात्र से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं।
द्वारकापुरी का माहात्म्य अवर्णनीय है। कहा जाता है कि द्वारका के प्रभाव से विभिन्न योनियों में पड़े हुए समस्त जीव मुक्त होकर श्रीकृष्ण के परमधाम को प्राप्त होते हैं। यहां तक कि द्वारका निवासियों के दर्शन और स्पर्श मात्र से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। द्वारका में जो होम, जप, दान, तपादि किए जाते हैं, उनका प्रभाव कोटिगुना और अक्षय होता है। वायु द्वारा उड़ कर आई द्व ारका की रज का स्पर्श भी पापियों को मुक्ति देने वाला कहा गया है।
द्वारका के उद्भव के विषय में कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने कंस का वध करने के बाद द्वारकापुरी की स्थापना का निर्देश विश्वकर्मा को दिया, विश्वकर्मा ने एक ही रात में इस आलीशान नगरी का निर्माण कर दिया। अपनी समस्त यादव मंडली को लेकर कृष्ण मथुरा से आकर यहां निवास करने लगे। द्वारका को कुशस्थली भी कहा जाता है।
ऐसी मान्यता है कि सत्ययुग में महाराज रैवत ने समुद्र के मध्य की भूमि पर कुश बिछाकर कई यज्ञ किए थे। द्वारकाधीश मंदिर: यह द्वारका का मुख्य मंदिर है। इसे श्री रणछोड़राय का मंदिर और जगत मंदिर भी कहते हैं। गोमती द्वारका भी यही कहलाती है।
ढाई हजार साल पुराना यह मंदिर गोमती के उŸारी किनारे पर बना है। यह सात मंजिला है और 157 फुट ऊंचा है। इसमें द्वारकाधीश की श्यामवर्ण की चतुर्भुज मूर्ति स्थापित है। गोमती से 56 सीढ़ियां चढ़ने पर यह मंदिर मिलता है। द्वारकाधीश मंदिर के दक्षिण में त्रिविक्रम भगवान का मंदिर है। इसमें त्रिविक्रम भगवान के अतिरिक्त राजा बलि तथा सनकादि चारों कुमारों की मूर्तियों के साथ-साथ गरुड़ की मूर्ति भी है।
मंदिर के उŸार में प्रद्युम्न जी की श्यामवर्ण प्रतिमा और उसके पास ही अनिरुद्ध व बलदेव जी की मूर्तियां भी हैं। मुख्य मंदिर के पूर्व में दुर्वासा ऋषि का छोटा सा मंदिर है। द्वारकाधीश मंदिर के उŸारी मोक्षद्वार के निकट कुशेश्वर शिव मंदिर स्थित है। कुशेश्वर के दर्शन किए बिना द्व ारका यात्रा अधूरी मानी जाती है। निष्पाप सरोवर: सरकारी घाट के पास एक छोटा सा सरोवर है, जो गोमती के खारे जल से भरा रहता है। यहां पिण्डदान भी किया जाता है। यहां स्नान के लिए सरकारी शुल्क देना होता है।
इस निष्पाप सरोवर के पास एक छोटा सा कुंड है। उसके आगे मीठे जल के पांच कूप हैं। यात्री इन कूपों के जल से मार्जन तथा आचमन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस सरोवर में स्नान करने से समस्त पाप कट जाते हैं। इसीलिए इसमें स्नान करने के बाद यात्री गोमती में स्नान करते हैं। जगन्नाथ चार धामों में से पूर्व में स्थित धाम भगवान श्रीकृष्ण की नगरी जगन्नाथ पुरी अपनी महिमा और सौंदर्य दोनों के लिए जगत विख्यात है।
श्रीकृष्ण यहां जगन्नाथ के रूप में अपने भाई बलराम एवं बहन सुभद्रा के साथ विद्यमान हैं। हर साल जून एवं जुलाई माह में आयोजित की जाने वाली रथयात्रा पूरे विश्व में प्रसिद्ध है जिसका आयोजन आषाढ़ शुक्ल की द्वितीया को किया जाता है। रथ यात्रा के लिए तीन विशाल रथ सजाए जाते हैं। पहले रथ पर श्री बलराम जी, दूसरे पर सुभद्रा एवं सुदर्शन चक्र तथा तीसरे रथ पर श्री जगन्नाथ जी विराजमान रहते हैं।
इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को ‘आड़पदर्शन’ कहते हैं। जगन्नाथ जी के इस रूप का विशेष माहात्म्य है। पुरी के अनेक नाम हैं। इसे पुरुषोत्तमपुरी तथा शंखक्षेत्र भी कहा जाता है, क्योंकि इस क्षेत्र की आकृति शंख के समान है। शाक्त इसे उड्डियान पीठ कहते हैं। यह 51 शक्तिपीठों में से एक पीठ स्थल है, यहां सती की नाभि गिरी थी।
पुरी के जगन्नाथ मंदिर का निर्माण 12 वीं शताब्दी में हुआ। मंदिर के चार द्वार हैं- सिंह, अश्व, व्याघ्र एवं हस्ति। मंदिर के चारों ओर 20 फुट ऊंची चहारदीवारी की गई है। विश्व की सबसे बड़ी रसोई भी यहीं है, जहां रथ यात्रा उत्सव के दिनों में प्रतिदिन एक लाख लोगों के लिए भोजन बनता है और सामान्य दिनों में 25 हजार लोगों की रसोई तैयार होती है। कहा जाता है कि पहले यहां नीलाचल नामक पर्वत था
जिस पर नील माधव भगवान की मूर्ति थी जिसकी आराधना देवता किया करते थे। बाद में यह पर्वत भूमि में चला गया और भगवान की उस मूर्ति को देवता अपने लोक में ले गए। इसी की स्मृति में इस क्षेत्र को नीलाचल कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के मंदिर के शिखर पर लगे चक्र को ‘नीलच्छत्र’ कहा जाता है। इस नीलच्छत्र के दर्शन जहां तक होते हैं वह पूरा क्षेत्र जगन्नाथपुरी कहलाता है। पुरी के उद्भव के विषय में कथा आती है कि एक बार द्वारिका में श्रीकृष्ण जी की पटरानियों ने माता रोहिणी जी के भवन में जाकर कृष्ण की ब्रज लीला के प्रेम-प्रसंग को सुनाने का आग्रह किया।
माता ने इस बात को टालने का बहुत प्रयत्न किया मगर पटरानियों के आग्रह को वह टाल न सकीं। प्रेम प्रसंग सुनाते समय कृष्ण की बहन सुभद्रा का वहां रहना उचित नहीं था। इसलिए माता रोहिणी ने उन्हें द्वार के बाहर खड़े रहने का आदेश दिया ताकि कोई अंदर न आने पाए। सुभद्रा बाहर खड़ी ही थी कि इसी बीच श्रीकृष्ण और बलराम पधार गए। वह दोनों भाइयों के बीच में खड़े होकर दोनों हाथ फैलाकर उनको भीतर जाने से रोकने लगी। इस उपक्रम में बंद द्वार के भीतर से ब्रज प्रेम वार्ता बाहर भी सुनाई दे रही थी।
उसे सुनकर तीनों के ही शरीर द्रवित होने लगे। उसी समय देवर्षि नारद वहां आ गए और तीनों के प्रेम द्रवित रूप देखकर उनसे इसी रूप में यहां विराजमान होने की प्रार्थना की। श्रीकृष्ण ने अपनी सहमति दे दी।
स्नान माहात्म्य: पुरी में महोदधि, रोहिणी कुंड, इंद्ऱद्युम्न सरोवर, मार्कण् डेय सरोवर, श्वेत गंगा, चंदन तालाब, लोकनाथ सरोवर तथा चक्रतीर्थ इन पवित्र आठ जल तीर्थों में स्नान का बहुत माहात्म्य माना जाता है।
प्रसाद माहात्म्य: श्री जगन्नाथ जी के महाप्रसाद की महिमा चारों ओर प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इस महाप्रसाद को बिना किसी संदेह एवं हिचकिचाहट के उपवास, पर्व आदि के दिन भी ग्रहण कर लेना चाहिए। रामेश्वरम चार धामों में दक्षिण दिशा का प्रमुख धाम रामेश्वरम भक्ति, रहस्य एवं स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। यह समुद्री द्वीप में स्थित है।
भगवान श्रीराम द्वारा बांधे गए सेतु एवं उनके द्वारा भगवान शिव की अर्चना के कारण रामेश्वर तीर्थ का माहात्म्य कोटि गुना बढ़ जाता है। कहते हैं इस सेतु के दर्शन मात्र से संसार-सागर से मुक्ति हो जाती है और भगवान विष्णु एवं शिव की भक्ति का लाभ मिलता है। सेतुबंध रामेश्वरम को समस्त देवताओं का प्रतीक माना गया है।
यहां के दर्शन का पुण्य आसमान में विद्यमान अनगिनत तारागणों से भी अधिक है। यहां के रेत कणों पर शयन भी समस्त पापों का नाशक और कोटि पुण्यदायी है। सेतु बंध रामेश्वरम की स्थापना को लेकर दो कथाएं प्रचलित हैं। एक तो यह कि लंका पर चढ़ाई करने के लिए समुद्र की अनुनय विनय करने के बाद भी जब उसने सागर पार जाने का रास्ता नहीं दिया तो लक्ष्मण को क्रोध आ गया और वे समुद्र को सुखा देने वाला बाण छोड़ने ही वाले थे कि सम ुद्र ब्राह्मण वेश में उपस्थित हुआ और उसने श्रीराम को समुद्र पर सेतु निर्माण का सुझाव दिया।
इसके बाद विश्वकर्मा के महान शिल्पी पुत्रों नल-नील ने पानी पर लकड़ी और पत्थर तैरा कर सौ योजन लंबा और दस योजन चैड़ा सेतु तैयार कर दिया। लंका पर चढ़ाई से पहले श्री राम ने यहां शंकर भगवान की आराधना कर मंदिर की स्थापना की। दूसरी कथा यह है कि राम ने रावण वध का प्रायश्चित करने के लिए शिवलिंग की स्थापना करने का निश्चय किया और इस कार्य के लिए हनुमान जी को कैलाश से शिवशंकर की दिव्य लिंग मूर्ति लाने को भेजा।
हनुमान जी को शिव के दर्शन नहीं हुए तो वे तप करते हुए शिव की स्तुति करने लगे। अंत में भगवान शंकर प्रकट हुए और उन्हें अपनी दिव्य लिंग मूर्ति प्रदान की। इधर सागर तट पर हनुमान जी की प्रतीक्षा करते लिंग स्थापना का मुहूर्त निकला जा रहा था, इसलिए सीता जी द्वारा बनाए गए बालू के शिवलिंग की ही प्राण प्रतिष्ठा कर दी गई। इसे स्थानीय लोग रामनाथलिंगम् भी कहते हैं।
भक्त की भावना को सम्मान देते हुए श्री राम ने उसी लिंग की बगल में कैलाश से लाए शिवलिंग की स्थापना कर उसका पूजन किया और साथ ही यह घोषणा की कि जो व्यक्ति भक्त हनुमान द्वारा लाए शिवलिंग की पूजा नहीं करेगा उसे रामेश्वरम दर्शन का फल नहीं मिलेगा। यही मूर्ति काशी- विश्वनाथ (हनुमदीश्वर) कही जाती है।
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