गीता सार
गीता सार

गीता सार  

कृष्णा कपूर
व्यूस : 5778 | फ़रवरी 2016

संसार वृक्ष की मुख्य शाखा ब्रह्मा हैं। ब्रह्मा से ही संपूर्ण देव, मनुष्य, तिर्यक आदि योनियों की उत्पत्ति व विस्तार हुआ है। इस संसार का कहां से आरंभ है कहां मध्य है और अंत का कुछ पता नहीं है। संसार से संबंध विच्छेद करने का सुगम उपाय है संसार से प्राप्त मन, बुद्धि, इन्द्रियां, शरीर, धन-संपत्ति आदि संपूर्ण सामग्री को अपनी और अपने लिये न मानते हुये उसको संसार की ही सेवा में लगा देना। भगवान आदि, मध्य व अंत तीनों में ही हैं अर्थात संसार कुछ है ही नहीं। भगवान ने मनुष्य को संसार से संबंध विच्छेद करने की सलाह दी है। अर्जुन पूरा उपदेश सुनने के बाद कहते हैं--- संसार की स्मृति व परमात्मा की स्मृति में बहुत अंतर है। संसार की स्मृति के बाद विस्मृति का होना संभव है लेकिन परमात्मा की स्मृति एक बार होने पर कभी विस्मृति नहीं होती। इसका कारण यह है कि संसार के साथ कभी संबंध होता नहीं और परमात्मा से संबंध कभी छूटता नहीं। भगवान कहते हैं अविनाशी पद मेरा ही धाम है जो मेरे से अभिन्न है और जीव भी मेरा अंश होने के कारण मेरे से अभिन्न है। अतः जीव की भी उस धाम से अभिन्नता है अर्थात वह इस धाम को नित्य प्राप्त है। उस धाम को प्राप्त हुए जीवन पुनः लौट कर संसार में नहीं आते।

भगवान इस धाम का वर्णन करते हुए कहते हैं: श्लोक: न तद् मोसयते सूर्यो न शशांड्केन पावकः यद् गत्वा न निर्वतन्तेतद्धाम परमं ममः । इस श्लोक का अर्थ है न वह सूर्य द्वारा प्रकाशित है और न चंद्रमा, अग्नि व बिजली के द्वारा जहां जाकर कोई वापिस नहीं आता वह मेरा धाम है। यह श्लोक का शाब्दिक अर्थ है। जैसा कि आप सब जानते हैं संपूर्ण गीता में श्री कृष्ण भगवान के उपदेश हैं जो उन्होंने अर्जुन को दिये हैं। वस्तुतः वह उपदेश समस्त जन कल्याण के लिये है। कुरूक्षेत्र में महाभारत में वर्णित कौरवों और पांडवों के महायुद्ध में युद्ध के मैदान में जब अर्जुन को अपने विपक्षी सेना में अपने सभी बड़े पितामह, चाचा, ताऊ, मामा, गुरु व भाई-भतीजे दिखाई दिये तो उसको सांसारिक मोह हो गया और वह युद्ध से विमुख होने लगा और उसने युद्ध न करने का निश्चय किया। तब भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि यह संसार मिथ्या है। इसका मोह मत कर, यह संसार नश्वर है अर्थात नष्ट हो जाने वाला है। माता, पिता, पितामह, दादा, चाचा, ताऊ, मामा सभी रिश्ते, नाते झूठे हैं, असत्य हैं। मृत्यु उपरांत ये कोई भी साथ नहीं देते। इस संसार में जो जीव अच्छे कर्म करता है, सत्य का पालन करता है, मर्यादा मंे रहता है, कर्तव्य परायण होता है अंततः मृत्यु के पश्चात मेरे परम धाम में पहुंचता है।

अब भगवान अपने उस परम धाम का वर्णन करते हुए बताते हैं कि हे अर्जुन ध्यान से सुनो मेरा वह परम धाम कैसा है। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं मेरा धाम वह है जिसको सूर्य, चंद्रमा, अग्नि व बिजली प्रकाशित नहीं कर सकते। ये प्रकाश के वे स्रोत हैं जिनसे सांसारिक वस्तुएं तभी तक दिखाई देती हंै जब तक वह अपव्यय वस्तु नहीं दिखाई देती है। वह वस्तु स्वयं अदृश्य रह कर सारे विश्व को प्रकाशित करती है। जैसे - ज्यों-ज्यों रस्सी के भाव का ज्ञान मंद होता जाता है त्यों-त्यों उसके संबंध में होने वाला सांप का भ्रम दृढ़ होता जाता है। ठीक इसी प्रकार जिस वस्तु का प्रकाश पड़ने के कारण ही चंद्रमा और सूर्य आदि प्रचंड तेज से प्रकाशित होते हैं वह वस्तु केवल तेज की राशि है, वह समस्त प्राणियों में व्याप्त है और सूर्य और चंद्रमा को भी प्रकाश देती है। सूर्य और चंद्रमा अपना जो प्रकाश फैलाते हैं वह प्रकाश इसी ब्रह्म वस्तु का ही एक अंश है। सूर्योदय होने पर जिस प्रकार चंद्रमा के साथ-साथ सब नक्षत्रों का लोप हो जाता है उसी प्रकार इस ब्रह्म वस्तु के प्रकाश के उदित होते ही उस प्रकाश में सूर्य और चंद्रमा के साथ-साथ सारे जगत का लोप हो जाता है। जिस प्रकार जागृत होने पर स्वप्न की सारी धूम-धाम का अंत हो जाता है उसी प्रकार जिस वस्तु का प्रकाश होते ही और किसी वस्तु के आभास के लिये कोई स्थान नहीं रह जाता वही वस्तु मेरा मुख्य स्थान है।

जीव परमात्मा का एक अंश है। अतः इसका एक मात्र संबंध अपने अंश परमात्मा से है परंतु मूल से वह अपना संबंध प्रकृति के कार्य, शरीर, मन, बुद्धि आदि इन्द्रियों से मान लेता है, जिनसे उसका संबंध कभी था ही नहीं, न ही होगा और न ही हो सकता है। जीव का संबंध केवल मेरे परम धाम से है वह मेरा परमधाम न तो सूर्य या चंद्र के द्वारा प्रकाशित होता है और न अग्नि या बिजली से। जो लोग वहां पहुंच जाते हैं, वे इस भौतिक जगत में फिर लौट कर नहीं आते। परमात्मा से अपने वास्तविक संबंध को भूलकर शरीरादि विजातीय पदार्थों को मैं, मेरा और मेरे लिये मानना ही व्यभिचार दोष है। यह व्यभिचार दोष ही अनन्य भक्ति योग में खास बाधक है। भगवान कहते हैं अविनाशी पद मेरा ही धाम है जो मेरे से अभिन्न है अर्थात मेरे से अलग नहीं है और जीव भी मेरा ही अंश होने के कारण मेरे से अभिन्न है अतः जीव की भी उस धाम से अभिन्नता है अर्थात वह उस धाम को नित्य प्राप्त है। उस धाम को प्राप्त हुए जीव पुनः लौटकर नहीं आते। भगवान इस धाम का वर्णन करते हुए कहते हैं वह मेरा परम धाम न तो सूर्य या चंद्र द्वारा प्रकाशित होता है और न ही अग्नि व बिजली से, जो लोग वहां पहुंच जाते हैं वे इस भौतिक जगत में फिर से लौट कर नहीं आते।

यहां पर आध्यात्मिक जगत अर्थात भगवान कृष्ण के धाम का वर्णन हुआ है जिसे कृष्ण लोक या गो लोक वृंदावन कहा जाता है। चेन्मय आकाश में न तो सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता है न चंद्र प्रकाश अथवा अग्नि या बिजली की, क्योंकि सारे लोक स्वयं प्रकाशित हैं। इस ब्रह्मांड में केवल एक लोक सूर्य ऐसा है जो स्वयं प्रकाशित है लेकिन आध्यात्मिक आकाश में सभी लोक स्वयं प्रकाशित हैं। उन समस्त लोकों (जिन्हें वैकुंठ कहा जाता है) के चमचमाते तेज से चमकीला आकाश बनता है। वस्तुतः वह तेज कृष्ण लोक, गोलोक वृंदावन लोक से निकलता है। इसका एक अंश महंत तत्व अर्थात भौतिक जगत से आच्छादित रहता है। इसके अतिरिक्त ज्योतिर्मय आकाश का अधिकांश भाग जो आध्यात्मिक लोकों से पूर्ण है, जिन्हें वैकंुठ कहा जाता है और जिनमें से गोलोक वृंदावन प्रमुख है। जब तक जीव इस अंधकारमय जगत में रहता है तब तक वह बद्ध अवस्था में रहता है (बद्ध अर्थात माया से बंधा हुआ) लेकिन ज्योंहि वह इस भौतिक जगत रूपी मिथ्या माया रूपी विकृत वृक्ष को काट कर आध्यात्मिक आकाश में पहुंचता है, त्योंहि वह मुक्त हो जाता है तथा वह यहां वापिस नहीं आता। इस बद्ध जीवन में जीव अपने को इस भौतिक जगत का स्वामी मानता है लेकिन अपनी मुक्त अवस्था में वह आध्यात्मिक राज्य में प्रवेश करता है और परमेश्वर का पार्षद बन जाता है।

वहां पर वह सच्चिदानंदमय जीवन बिताता है। यह जानकर मनुष्य को प्रसन्नता का अनुभव करना चाहिये उसे उस शाश्वत जगत में ले जाये जाने की इच्छा करनी चाहिये और सच्चाई के इस मिथ्या प्रतिबिंब से अपने आपको अलग कर लेना चाहिए यानि यह संसार जो मिथ्या है लेकिन इसको वह सच समझता है, इससे अपने आप को विरक्त कर लेना चाहिये। जो जीव इस संसार से आसक्त हैं (जुड़े हुए हैं), उनके लिये इस आसक्ति का छेदन करना दुश्कर होता है। वे सांसारिक मोह में अत्यधिक लिप्त होते हैं लेकिन अगर वह कृष्ण भावनामृत यानि कि कृष्ण भगवान के नाम का अमृत ग्रहण कर लें, उनकी सांसारिक आसक्ति से छूट जाने की संभावना है। वह कृष्ण भावनामृत जितने मन से, जितनी गहराई से ग्रहण करेगा उसकी सांसारिक आसक्ति, मोह से छूटने की संभावना उतनी ही अधिक बढ़ जायेगी। उसे ऐसे भक्तों की संगति करनी चाहिये जो कृष्ण भावना भक्ति करते हैं। उसे ऐसा समाज खोजना चाहिये जो कृष्ण भावनामृत के प्रति समर्पित हो और उसे भक्ति करना सीखना चाहिये। इस प्रकार वह संसार के प्रति अपनी आसक्ति विच्छेद (अर्थात संसार से विरक्ति) कर सकता है। यदि कोई चाहे कि केसरिया वस्त्र पहनने से भौतिक जगत के आकर्षण से विच्छेद हो जायेगा तो ऐसा संभव नहीं है।

भौतिक जगत से विरक्ति वस्त्रों से नहीं वासनाएं छोड़ने से होगी। उसे भगवत् भक्ति के प्रति आसक्त होना पड़ेगा। अतएव मनुष्य को चाहिये कि गंभीरता पूर्वक समझें कि केवल भक्ति ही शुद्ध रूप से दिखती है। अगर किसी को लगता है कि मुझे भक्ति करनी नहीं आती, अतः मुझे तो भगवान अपनी शरण में लेंगे नहीं लेकिन ऐसा सोचना गलत है, उसे चाहिये वह शुद्ध भाव से, सच्चे मन से ईश्वर से प्रार्थना करें, मन में भगवान का स्मरण करें, अपनी सांसारिक वासनाओं को त्यागें व प्रभु चरणों में मन लगायें और सच्चे मन से प्रभु से क्षमा याचना करें। इस प्रकार- हे भगवान ! मैं दीन, हीन अज्ञानी हूं। मंत्र हीनं, क्रिया हीनं भक्ति हीनं जनार्दन। यत्कृत तु भया देव परिपूर्ण तदुस्तु में अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं ममः तस्मात कारूण्य भावेन रक्ष मां परमेश्वरः ।। इस श्लोक का अर्थ है कि जो मनुष्य दीन बन कर प्रभु से इस प्रकार से प्रार्थना करता है कि भगवान मुझे मंत्रों का ज्ञान नहीं है, मैं विधिवत् पूजा करना नहीं जानता, मुझे नहीं पता कि विधि विधान से कैसे पूजा की जाती है, मैं आपकी शरण में आया हूं, आप मुझे अपनी शरण में ले लीजिये और मेरी रक्षा कीजिये। इस प्रकार से सच्चे मन से की गई प्रार्थना भगवान अवश्य सुनते हैं तो अपने भक्त को अपनी शरण में ले लेते हैं अपने परम धाम में ले लेते हैं।

यहां पर परमं मम शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। परंतु दिव्य जगत परम है और छः ऐश्वर्य से पूर्ण है। दिव्य जगत में सूर्य प्रकाश, चंद्र प्रकाश या नारायण की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि समस्त आकाश भगवान की आंतरिक शक्ति से प्रकाशमान है। उस परम धाम तक केवल शरणागति से ही पहुंचा जा सकता है अन्य किसी साधन से नहीं। यहां धाम का तात्पर्य किसी स्थान से नहीं है बल्कि स्वरूप से है (ईश्वर का स्वरूप)। साधक ध्यानाभ्यास के द्वारा मन और बुद्धि के विक्षेपों से परे परमात्मा के धाम में पहुंच कर सत्य से साक्षात्कार का समय निश्चित कर अनन्त स्वरूप ब्रह्म से भेंट कर सकता है। हम सब उपयोगितावादी हैं अतः हम पहले ही यह जानना चाहते हैं कि क्या सत्य का अनुभव इतने अधिक परिश्रम के योग्य है अर्थात इतना कठोर परिश्रम करने के बाद हमें जिस सत्य का अनुभव होगा अर्थात (परम धाम का अनुभव) उसके बाद पुनः इस दुःखपूर्ण संसार में लौटने की संभावना या आशंका बिल्कुल नहीं है? भगवान श्री कृष्ण हमें आश्वासन देते हैं कि मेरा परम धाम वह है जहां पहुंचने पर साधक पुनः लौटता नहीं है। अतः भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य लौट कर संसार में नहीं आते वह परम पद स्वयं प्रकाशमान है उसमें किसी प्रकार के अंधकार की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

यहां भौतिक प्रकाश से तात्पर्य नहीं है वरण चेतना के अत्यंत प्रकाशमान हो जाने का ही वर्णन है इसलिये भगवान कहते हैं कि इस परम पद को सूर्य, चंद्रमा अथवा अग्नि, बिजली भी प्रकाशित करने में असमर्थ हैं क्योंकि वास्तव में इनका प्रकाश भी उस परम पद के प्रकाश का ही एक छोटा सा प्रतिबिंब है। उस परमपद को प्राप्त करने के बाद फिर वहां से लौटना संभव नहीं होता अर्थात फिर संसार में पुनर्जन्म नहीं होता, वहां पहुंचकर मनुष्य परम आनंद को प्राप्त कर लेता है। 15वें अध्याय के श्लोक नं. 4 में बताया गया है कि इस संसार रूपी वृक्ष के बंधन से छूटने के लिये परमात्मा की ही शरण ग्रहण करने से जीव संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है। किसी वस्तु के देखने का अर्थ उसे जानना है और किसी वस्तु को देखने समझने के लिये वस्तु का नेत्रों के समक्ष होना तथा उसका प्रकाशित होना भी आवश्यक है। प्रकाश के माध्यम से ही नेत्र रूप और रंग को देख सकते हैं। इसी प्रकार हम अन्य इन्द्रियों द्वारा शब्द, स्पर्श, रस और गंध का जिह्ना, नासिका, कान, हाथ तथा मन और बुद्धि के द्वारा क्रमशः भावनाओं और विचारों को भी जानते हैं। लेकिन जिस प्रकाश से हमें इन सबका भाव होता है वह ‘‘चैतन्य प्रकाश’’ है, जो भगवान श्री कृष्ण के परम धाम में है।



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