गीता सार
गीता सार

गीता सार  

कृष्णा कपूर
व्यूस : 5495 | मार्च 2016

ममैंवाशो जीव लोके, जीव भूतः सनातनः मनः षष्टानि इन्द्रियानी, प्रकृति स्थानि कर्षिति अर्थात् तीन लोकों व चैदह भुवनों में विभिन्न योनियों में यह जीव शरीर धारण करता रहता है। इसलिये इसे जीव लोक कहा गया है। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - यह सारा जगत जीव लोक ही है, आत्मा परमात्मा का ही अंश है, परंतु प्रकृति के कार्य, शरीर, मन इन्द्रियों आदि के साथ अपनी एकता मानकर यह जीवात्मा हो गया है। यह जीव मेरा ही अंश है और आदि काल से ही है। यह जीवात्मा प्रकृति से स्थित होकर अर्थात प्रकृति से प्रभावित होकर अपने आपको मन एवं ज्ञानेन्द्रियों से संयुक्त कर लेता है अर्थात अपनी ओर आकर्षित करता है।

हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं कर्ण, चक्षु, घ्राण, जिह्वा एवं त्वचा जिनसे हम क्रमशः सुनते हैं, देखते हैं, सूंघते हैं, स्वाद ग्रहण करते एवं स्पर्श अनुभव कर सकते हैं। इन ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही मन में समस्त अनुभव होते हैं। जीव ही इन ज्ञानेन्द्रियों व मन को अनुभव करने की चेतना शक्ति प्रदान करता है। भगवान कहते हैं कि प्रकृति में स्थित यह जीवात्मा मेरा ही अंश है जो सनातन काल से है। यह भी कहा गया है कि ब्रह्म अविभाज्य है, अर्थात उसको विभाजित नहीं किया जा सकता तो जीव ईश्वर का अंश कैसे हुआ। इसका उत्तर है कि यह जीव वास्तव में अंश न होकर अंश के रूप में आभासित है। इसका एक बड़ा ही अच्छा उदाहरण है। घड़े में स्थित आकाश महाकाश से भिन्न प्रतीत होता है। आकाश का अर्थ है स्पेस।

घड़े का एक निश्चित आकार है, उसमें स्थित आकाश भी उसी आकार जैसा ही प्रतीत होता है, घड़ा टूट जाने पर घटाकाश व महाकाश एक ही हो जाते हैं। घटाकाश व महाकाश कभी भी भिन्न-भिन्न नहीं थे वह तो केवल घड़े के आकार के कारण ही अलग-अलग प्रतीत हो रहे थे। इसी प्रकार जीव ईश्वर का अंश केवल प्रतीत होता है किंतु मूल तत्व तो एक ही है, जैसा सोना व सोने के आभूषण दोनों का मूल तत्व तो एक ही है और वह है सोना। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने ईश्वर व जीव के संबंध में बड़ी अच्छी व्याख्या की है। यह उत्तरकांड के दोहा संख्या 116 के बाद की चार चैपाइयां हैं जो निम्नानुसार है: सुनहु तात यह कथा कहानी, समुझत बनई न जाय बखानी। ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुखराशि। सो माया बस भयऊ गोसाईं, बंध्या कीर मरकट की नाई।

जड़ चेतन ग्रथि परि गई, यद्यपि भृषा छूटत कठिनाई। यह उस समय का प्रसंग है जब राम, रावण युद्ध में मेघनाद ने श्रीराम व लक्ष्मण को माया द्वारा नागपाश में बांध लिया था तो उनको गरूड़ ने आकर छुड़ाया था। इससे गरुड़ को भगवान राम के प्रति शंका हो गयी। गरुड़ भगवान के वाहन हैं। उनको भी मोह हो गया तथा इस अज्ञान से मुक्ति पाने के लिये ही वे काकभुशुंड जी के पास उनके आश्रम में गये थे। यह माया बड़ी ही प्रबल है यदि गरुड़ जी को माया प्रेरित कर सकती है जो हमेशा भगवान के पास रहते हैं तो हम जैसे साधारण आदमी का तो कहना ही क्या? हमंे तो जरा सा कार्य करते ही अभिमान हो जाता है। अतः तुलसी दास जी कहते हैं कि यह जीव ईश्वर का ही अंश है। श्लोक की दूसरी पंक्ति में भगवान कहते हैं - इस शरीर में स्थित होकर यह जीवात्मा पांच ज्ञानेन्द्रियों एवं मन से संयुक्त होकर उन्हे अपनी ओर आकर्षित करता है।

हमारे तीन शरीर हैं:

1. स्थूल शरीर: जो हमें आंखों से दिखाई पड़ता है यह जड़ है यह स्वयं कोई कार्य नहीं कर सकता न ही कुछ अनुभव कर सकता है। कान केवल छिद्र है, चक्षु केवल गोलक है इसीलिये निर्जीव शरीर में कोई हलचल नहीं होती।

2. सूक्ष्म शरीर: यह पांच ज्ञानेन्द्रियां एवं मन से मिलकर बना है: अ. कर्णेन्द्रियां - जिसकी शक्ति से शब्द सुनाई पड़ते हैं। ब. चक्षंुद्रियां, जिसकी शक्ति से दिखाई पड़ता है। स. घ्राणेन्द्रियों से ग्रंथ का अनुभव। द. जिह्वा से स्वाद तथा ध. त्वचा से स्पर्श का अनुभव होता है। ये सब ज्ञानेन्द्रियां जगत से अनुभव प्राप्त कर मन को प्रेरित करती हंै तथा व्यक्ति तत्पश्चात् अपनी बुद्धि के द्वारा निर्णय लेता है तथा तदनुसार कार्य करता है।

3. तीसरा शरीर है, कारण शरीर। यह है मन की वासनाएं। जैसी हमारे मन की वासनाएं होती हैं वैसा ही हम अगला शरीर धारण करते हैं। यदि मन की वासनाएं हांे तो अगला शरीर धारण करने की आवश्यकता ही नहीं होगी व जीवात्मा जन्म मरण के चक्कर से छूट कर मुक्त हो जायेगा।

यह जीवात्मा जिस प्रकार के कार्य करता है उसके फल को भोगते हुए विभिन्न योनियों में शरीर धारण करता रहता है। अज्ञान दूर होने पर मन के विक्षेपों से मुक्ति मिलती है तथा जीव मुक्त हो सकता है। ब्रह्म एवं जीवात्मा की तुलना ऐसे की गई है जैसे चंद्रमा व उसके जल में पड़ रहे प्रतिबिंब की। यदि जल स्वच्छ नहीं है या उसमें हलचल है तो चंद्रमा का प्रतिबिंब भी स्पष्ट दिखलाई नहीं देता, इसी प्रकार इस मन पर अज्ञान रूपी पर्दा पड़े रहने व विक्षेपों के कारण जीवात्मा को अपना स्वरूप ही दिखाई नहीं पड़ता, मन निर्मल होने से अज्ञान स्वतः ही नष्ट हो जाता है तथा परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं जिसका वह एक अंश है। ज्ञान योग, कर्म योग अथवा भक्ति योग ये सभी मन को निर्मल करने के साधन हैं। इन्हीं के द्वारा हम जन्म मरण के चक्करों से छूट सकते हैं।



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