लोगों की मृत्यु उपरांत विभिन्न कारणों से अथवा मोह माया वश जब उनकी आत्मा बंधन मुक्त न होकर मृत्यु लोक में ही घूमती रहती है और स्वयं मुक्त न होने के कारण इन पूर्वजों का अपने परिवार पर नकारात्मक अथवा किसी न किसी रूप में हानिकारक प्रभाव पड़ता है तो इसे ही साधारणतया पितृ-दोष माना जाता है। श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान कृष्ण के प्रति जो वचन कहे गये हैं ‘‘सांख्य-योग’’ नामक द्वितीय अध्याय में उसके अनुसार आत्मा को अजर-अमर कहा गया है। आत्मा न तो कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है। इसे न तो कोई शस्त्र काट सकता है, न अग्नि जला सकती है न ही जल गीला कर सकता और न ही पवन इसे सुखा सकता है। यह तो शाश्वत है। जैसे मनुष्य फटे-पुराने वस्त्रों को त्यागकर नवीन वस्त्र धारण करते हैं उसी तरह आत्मा भी जीर्ण-शीर्ण पुरानी देह को त्यागकर नवीन शरीर को धारण कर लेती है। इसे ही मृत्यु होना और जन्म लेना कहते हैं- शरीरधारी के लिये। यह सर्वविदित ही है। आत्मा दाह संस्कार के बाद मोह माया आदि के झंझावातों में न भटकती रहे इसलिये जब ऐसा प्रतीत होने लगता है कि किसी की मृत्यु का समय निकट है तो उस जीवात्मा को कृष्ण के मुख से निकली भगवद्गीता पढ़कर सुनाई जाती है ताकि संसार की मोह माया छूट सके और उस प्राणी को मुक्ति प्राप्त हो सके।
हिंदुओं के दो प्रसिद्ध ग्रंथ हैं बड़े ही पवित्र पावन रामायण और गीता। जहां एक ओर ‘रामायण’ संसार में रहकर ‘जीना’ सिखाती है वहीं दूसरी ओर गीता संसार से ‘जाना’ सिखाती है (मोक्ष मार्ग के लिए)। हमारे मनीषियों ने आश्विन मास का पूर्ण कृष्ण पक्ष पितृ शांति के निमित्त तर्पण, श्राद्ध आदि करने के लिए पितृ-पक्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। पितृदोष मुक्ति हेतु गया तीर्थ में जाकर जलदान, तर्पण, श्राद्ध, पिंडदान करना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। गया क्षेत्र में भगवान गदाधर सदैव साक्षात् विराजते हैं, इस कारण सब तीर्थों में इसे विशेष प्रसिद्धि प्राप्त है। पितृ दोष शमन के कुछ उपाय
- श्रीमद् भागवत का एक सप्ताह चलने वाला आद्यंत पाठ भागवत कथा वाचक योग्य ब्राह्मण से घर में करवाने से पितरों की तृप्ति होती है और उनकी प्रसन्नता से पितृदोष शांत होता है।
- श्रीमद् भगवद् गीता का निरंतर पाठ स्वयं करने या समय-समय पर श्रेष्ठ ब्राह्मण, कुलगुरु या पुरोहित से पाठ करवाने से पितृगणों की प्रसन्नता अवश्यंभावी होती है। साथ ही साथ यज्ञ, हवन व विप्रभोज भी करना चाहिये।
- गरुड़ पुराण का यथोचित अवसर पर पठन-पाठन अथवा श्रवण करना पितृ दोष शमन का एक उत्तम उपाय है। फलस्वरूप जातक को पितृ-प्रसन्नता से सुख-शांति का आभास होने लगता है।
- भगवान श्री विष्णु-वाराह पृथ्वी देवी से कहते हैं कि हे देवी तुम्हारे पूछने पर मैंने अपने गुह्य से गुह्य क्षेत्र की महिमा का वर्णन किया। जो व्यक्ति मेरे इस सानन्दूर क्षेत्र के माहात्म्य का प्रतिदिन श्रद्धा भक्ति से पाठ करेगा उसके पूर्व की 18 पीढ़ियों के लोग तर जाएंगे। (विष्णु वाराह पुराण-सानंदर माहात्म्य)
- पितरों के निमित्त किये जाने वाले गौ-दान से पितृ तृप्त होते हैं। - अमावस्या के दिन पितरों के नाम से धूप, दीप, अगरबत्ती जलाने से, गरीबों को भोजन कराने से एवं गौ-माता को कोई भी पांच फल खिलाने से पितृ-ऋण का शमन होता है।
- पितृ-पक्ष के 16 दिनों में श्रद्धा-विश्वास पूर्वक पितरों का तर्पण करना चाहिए। - त्रिपिंडी श्राद्ध, नारायण व नागबलि श्राद्ध योग्य ब्राह्मण के सान्निध्य में करने से पितृगण प्रसन्न होते हैं और अपने कुल की सदा रक्षा करते हैं।
- गया धाम में जाकर श्रद्धा के साथ पितरों के नाम और गोत्र आदि का संकल्प लेकर पिंडदान करने से पितरों को अक्षय लोक की प्राप्ति हो जाती है। गया धाम के अधिष्ठातृ देव भगवान गदाधर नाथ हैं। इस क्षेत्र में उनके ‘‘गदाधर-स्तोत्र’’ का पाठ करने से पितृ-तृप्ति सहित सर्व सौख्य की प्राप्ति होती है।
- पितृ-दोष के कारण रोजी-रोजगार की अवनति, विवाह बाधा, अविवाहित होना, संतान न होना, पुत्र सुख का अभाव, अन्न-धन का अभाव, रोग आदि होने पर पितृदोष के कारक ग्रहों की अशुभ फलप्रद स्थिति के अनुसार शांति कराना चाहिये। कुंडली से कैसे जानें पितृ-ऋण - जब सौर मंडल के अधिष्ठाता ग्रह सूर्य की शनि के साथ युति या दृष्टि अथवा दृष्टि-विनिमय हो तो कुंडली देखने से पितृ-ऋण होना ज्ञात किया जा सकता है।
- तुला राशिस्थ, नीच के सूर्य और उच्च के शनि की जन्मकालीन युति वाली स्थिति और विपत्तिकारक पितृ श्राप परिलक्षित करती है।
- सूर्य या चंद्रमा के साथ राहु कुंडली में विराजमान होने से ग्रहण योग कहलाता है। यह भी पितृ-दोष माना गया है। इसके प्रभाव से नाना प्रकार की आपत्तियां जातक को घेरे रहती हैं।
- जन्मकुंडली के प्रथम, द्वितीय एवं द्वादश भाव (1, 2 व 12) में राहु की स्थिति पितृदोष निर्मित करती है।
- किसी की जन्मकुंडली में गुरु और राहु की चांडाल योग वाली युति होने से जातक पितृ ऋण से ग्रसित होता है, पंचम भाव में।
- कुंडली में ‘सूर्य-शनि-राहु’ की त्रिपाप ग्रह वाली युति पितृ दोष कारक होती है।
- चंद्रमा और केतु साथ-साथ कुंडली में बैठे होने से पितृदोष का आभास होता है।