माता जगदंबा के 51 शक्तिपीठों में सर्वश्रेष्ठ माना जाने वाला कामाख्या पीठ असम राज्य के नीलाचल पर्वत पर स्थित है। माता सती की अदम्य शक्ति एवं आस्था के प्रतीक इस शक्तिपीठ का माहात्म्य देश के कोने-कोने तक फैला हुआ है। ऐसी मान्यता है कि कामाख्या के दर्शन, भजन एवं पूजन करने से सर्वविघ्नों का नाश एवं मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। आश्विन और चैत्र के नवरात्रों में यहां बहुत बड़ा मेला लगता है। मां सती के शक्तिपीठों के निर्माण की कथा सभी लोग जानते हैं। उन्होंने हर बार जन्म लेकर शिव शंकर को अपने पति रूप में प्राप्त किया। मां शक्ति पक्के इरादे वाली हैं। जो काम उन्होंने ठान लिया उसे करके ही छोड़ती हैं। शिव शंकर के मना करने के बावजूद वह अपने पिता दक्ष के यज्ञ में बिना बुलाए चली गईं, तो पति की निंदा सुनकर उन्हें जीवित रहना भी गवारा नहीं लगा। दक्ष यज्ञ में शिव का अपमान देख जब सती ने प्राण त्याग दिए तो शिव सती के शव को लेकर अनवरत तांडव करने लगे। शिव के विकराल रूप को देखकर सभी देवी देवताओं ने विष्णु के सुदर्शन चक्र की मदद से सती के शव के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जिनके फलस्वरूप शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। यहां सती के कामक्षेत्र गिरने से कामाख्या शक्ति पीठ बना।
परंपरागत भाषा में असम को कामरूप प्रदेश के रूप में जाना जाता है, यहां तांत्रिक लोग शक्ति साधना में जुटे रहते हैं। इस शक्ति स्थल के उद्भव के विषय में कई अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं। कालिका पुराण की एक कथा के अनुसार वराह पुत्र नरक जब नारायण की कृपा से कामरूप राज्य में राजपद को प्राप्त हुआ, तब भगवान ने नरक को यह उपदेश दिया कि तुम कामाख्या के प्रति भक्तिभाव बनाए रखना, जब तक उसने इस उपदेश का पालन किया तब तक वह सुखपूर्वक स्वच्छंद राज्य करता रहा। लेकिन बाणासुर के परामर्श से नरक देवद्रोही होकर असुर संज्ञा को प्राप्त हो गया। यही कारण है कि मान मर्यादा भूल कर एक बार राक्षस नरकासुर देवी कामाख्या के रूप सौंदर्य पर मोहित होकर उनसे प्रेम करने लगा। वह देवी से विवाह सूत्र में बंधने के लिए अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग करने लगा। मां कामाख्या ने इस समस्या को दूर करने के लिए चतुराई से काम लेते हुए नरकासुर के सामने यह शर्त रखी कि ‘यदि तुम मेरे लिए सूर्य निकलने से पहले एक भव्य मंदिर, उसके घाट एवं मार्ग आदि का निर्माण कर सको तो मैं तुम्हारे साथ विवाह करने को तैयार हूं।
नरकासुर ने यह शर्त मंजूर कर ली। प्रातः होने से पहले ही मंदिर लगभग पूरा होने को था कि इतने में ही माता कामाख्या ने एक मुर्गे को भेज दिया जिसने सूर्योदय से पहले ही बांग लगा दी। यह देखकर नरकासुर अत्यंत क्रोधित हो गया और उसने मुर्गे को वहीं पर मार गिराया। मगर शर्त हारने के बाद वह देवी से विवाह नहीं कर पाया। कहा जाता है कि कामाख्या में वर्तमान समय में जो मंदिर है वह नरकासुर द्वारा ही निर्मित है। एक अन्य कथा के अनुसार ईसा की सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में जब कामरूप प्रदेश के छोटे-छोटे राज्यों के बीच एकाधिपत्य प्राप्ति के लिए आपसी संग्राम चल रहा था, उसमें कोचराज विश्वसिंह विजयी होकर कामरूप प्रदेश के एकछत्र राजा बने। कहा जाता है कि युद्ध के दौरान एक दिन विश्वसिंह अपने साथियों से बिछुड़ गए तो अपने भाई के साथ वह उन्हें खोजने के लिए घूमते-घूमते नीलाचल के शिखर पर पहुंच एक वट वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। उस निर्जन स्थल पर उन्हें एक वृद्धा दिखाई दी जिसकी सहायता से उन्होंने अपनी प्यास बुझाई। वृद्धा ने उन्हें बताया कि कोच जाति के लोग वटवृक्ष के नीचे स्थित मिट्टी के टीले की पूजा-अर्चना किया करते हैं और इस स्थल के देवता बड़े जाग्रत हैं।
व्यक्ति जो भी कामना लेकर आता है वह पूरी होती है। तब विश्वसिंह ने भी अपने साथियों के शीघ्र मिलने की कामना की। कामना करते ही उनके साथी वहां आ पहुंचे। विश्वसिंह आश्चर्यमय विश्वास के वशीभूत हो उस शक्ति के प्रति गद्गद् हो गए। उन्होंने यह मनौती की कि यदि मेरे राज्य में कोई उपद्रव नहीं होगा तो मैं यहां स्थित देवता के लिए सोने का मंदिर बनाऊंगा। शीघ्र ही राज्य में शांति स्थापित हो गई। राजा विश्वसिंह के राज्य के पंडितों ने इस स्थल के कामाख्या पीठ होने के प्रमाण राजा को दिए। राजा विश्वसिंह ने वट वृक्ष को काट मिट्टी के टीले को खुदवाया तो मूल मंदिर का निम्न भाग बाहर निकल आया। राजा ने उसी पर नया मंदिर बनवाया। सोने के मंदिर के बदले में ईंट के भीतर एक-एक रत्ती सोना देकर मंदिर बनवाया गया। गुवाहाटी से दो मील पश्चिम नीलगिरि पर्वत पर स्थित यह शक्तिपीठ एक अंधेरी गुफा के भीतर अवस्थित है। इस स्थल पर केवल एक कुंड सा है जो फूलों एवं सिल्क साड़ी से आच्छादित रहता है। पास ही एक मंदिर है जिसमें भगवती की मूर्ति भी है। इस क्षेत्र में कामरूप कामाख्या का मेला भी आयोजित किया जाता है।
आसपास के दर्शनीय स्थल शिव मंदिर: यह मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीचोंबीच स्थित द्वीप में है। उमानंद घाट से यहां मोटर बोट और नावों द्वारा जाया जाता है।
नवग्रह मंदिर: यह मंदिर पूर्वी गुवाहाटी में ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। यह मधुमक्खी के छत्तेनुमा गुंबद आकार म है। यहां सूर्य, चंद्र, बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि एक घेरे में स्थित हैं। राहु और केतु सांप के सिर और पूंछ के प्रतीक रूप में चंद्र से जुड़े हुए हैं।
वशिष्ठ आश्रम: गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से 12 किमी दूर वशिष्ठ मुनि का आश्रम स्थित है। यह बहुत खूबसूरत जगह है। यहां चारों ओर हरियाली है। यहां ललिता, कांता और संध्या तीन नदियां बहती हैं। इसके अलावा यहां कई अन्य मंदिर भी हैं।
भुवनेश्वरी मंदिर: कामाख्या मंदिर के ऊपर एक छोटा सा मंदिर भुवनेश्वरी देवी का है। यहां से संपूर्ण गुवाहाटी का सुंदर नजारा देखा जा सकता है।
कैसे जाएं: गुवाहाटी शहर देश के सभी प्रमुख शहरों से हवाई मार्ग से जुड़ा हुआ है। देश के कोने-कोने से रेल सेवा भी यहां जाने के लिए उपलब्ध है। शिलांग, काजीरंगा, दीमापुर, सिलीगुड़ी, सिल्चर आदि से बसें भी गुवाहाटी को निरंतर जाती रहती हैं। कुछ लोग गुवाहाटी से तीन मील की चढ़ाई चढ़कर कामाख्या जाना पसंद करते हैं लेकिन बस स्टाप पर ही वहां जाने के लिए हर 10-15 मिनट बाद टैक्सी की सुविधा भी उपलब्ध रहती है।
कहां ठहरें: कामाख्या मंदिर के आसपास यात्रियों को ठहरने की सुविधा आसानी से मिल जाती है। यहां पर हर प्रकार के सुविधा संपन्न गेस्ट हाउस हैं। कुछ लोग पंडों के यहां रहना पसंद करते हैं।