शनि का उदय होना: मेष राशि का शनि उदय होगा तो जलवृष्टि, मनुष्यों में सुख, वृष राशि में सुख, घास-हरियाली में अभाव, घोड़ों में रोग, महंगाई होगी और मिथुन में उदय हो तो सुभिक्ष होगा। कर्क में उदय हो, तो वर्षा का अभाव, रसांे में शुष्कता, सर्वत्र स्त्री को भय, जनता में पीड़ा, सिंह में बच्चों को पीड़ा और राज्य में अधर्म शासन प्रकट होगा। कन्या में शनि उदय हो तो धान्य नाश, तुला में उदय में पृथ्वी में संधि और महावर्षा हो।
पृथ्वी गेहूं रहित हो, तो वृश्चिक में उदय जानें। धनु में उदित शनि में, मनुष्य अस्वस्थ, रोग, स्त्री और बालकों में विषाद तथा धान्य का नाश हो। मकर में उदय हो तो युद्ध, बुद्धि का नाश, पशुओं में कष्ट, कुंभ-मीन में शनि उदय हो, तो मनुष्य दीन और धान्य की उत्पत्ति करना। शनि का अस्त होना: मेष में शनि अस्त हो, तो धान्य का भाव तेज हो। वृष में गाय आदि में पीड़ा हो, वेश्याओं को पीड़ा, मिथुन में दुःख, कर्क में शत्रु का भय, कपास, धान्यादि दुर्लभ हो, वर्षा न हो, सिंह में अधिक व्यथा हो। कन्या में अस्त हो, तो धातु-अन्न में तेजी, तुला में अस्त हो, तो लोकों में आनंद हो, कम धान्य उपजे।
वृश्चिक में प्राणियों में भय और पीड़ा राजाओं द्वारा, कीट-टिड्डे आदि से पीड़ा हो। धनु में लोकों में सुख, मकर में तेज आंधी-तूफान, वर्षा का अभाव तथा स्त्री जाति में मृत्यु अधिक हो। कुंभ में शीत का भय, चैपायों- गायों की हानि हो, मीन में वर्षा कहीं कम तथा कहीं अधिक, राजा अपने धर्म से विमुख, दुःख देने वाला हो, दुष्टों को थोड़ी पीड़ा और युद्ध की आशंका उत्पन्न करता है। शनि कन्या-मिथुन-मीन वृष में स्थित होकर दुर्भिक्ष और राज्यों में युद्ध कराता है। शनि की ढैय्या तथा साढ़ेसाती व्यक्ति की चंद्र राशि या नाम राशि से गोचर में शनि की स्थिति चतुर्थ एवं अष्टम भाव में स्थित होने पर ढैय्या कहलाती है।
ढैय्या का प्रभाव ढाई वर्ष (एक राशि में) तक रहता है। इसी प्रकार शनि जब स्थितिवश द्वादश, प्रथम व द्वितीय (12-लग्न-2) स्थानों में आता है तो शनि की साढ़ेसाती कहलाती है। यह 7 वर्ष 6 माह की होती है जिसमें व्यक्ति को बहुत दुःख उठाना पड़ता है। शुभ फल देने वाली ढैय्या को ‘लघु कल्याणी’ कहा जाता है। यदि शनि मित्र राशि, उच्च तथा शुभ ग्रह से संबंधित हो, इनमें ढैय्या/साढ़ेसाती आने पर शुभ फल मिलता है। सामान्यतया साढ़ेसाती मनुष्य के जीवन में तीन बार आती है। प्रथम बचपन में, द्वितीय युवावस्था में तथा तृतीय वृद्धावस्था में आती है। प्रथम साढ़ेसाती का प्रभाव शिक्षा एवं माता-पिता पर पड़ता है।
द्वितीय साढ़ेसाती का प्रभाव कार्यक्षेत्र, आर्थिक स्थिति एवं परिवार पर पड़ता है। परंतु तृतीय साढ़ेसाती स्वास्थ्य पर अधिक प्रभाव डालती है। यह व्यक्ति के जीवन का अंतिम खंड या काल भी हो सकता है। शनि चरण विचार: शनि सदैव अनिष्टकारी नहीं होता। यह व्यक्ति के जीवन में आश्चर्यजनक उन्नति भी देता है। शास्त्रानुसार (ज्योतिष तत्व प्रकाश/लोक-140/पृष्ठ 572) - जन्म के समय शनि 1/6/11वें स्थानों में हो तो सुवर्णपाद; 2/5/9वें स्थानों में हो तो रजत पाद; 3/7/10वें स्थानों में हो तो ताम्रपाद तथा 4/8/12वें स्थानों में हो तो लौह पाद कहलाता है।
शनि चरण (पाद) ज्ञान का अल्प विचार:
जिस नक्षत्र पर शनि हो, उसकी संख्या में अपने जन्म नक्षत्र की संख्या जोड़कर 4 का भाग दंे, शेष 1 रहे तो सुवर्ण पाद, 2 शेष रहने पर लौह पाद, 3 शेष रहने पर ताम्र पाद तथा शून्य शेष रहने पर रजत पाद कहलाता है।
शास्त्रानुसार - ज्योतिष तत्व प्रकाश/श्लोक-141- पृष्ठ-573) ः- लौह पाद में धन का नाश, सुवर्ण पाद में सर्व सुख, ताम्रपाद में सामान्य फलदायक तथा रजत पाद में शनि का प्रवेश सौभाग्यप्रद रहता है। शनि वक्री तथा मार्गी: शनि ग्रह सूर्य की परिक्रमा-29 वर्ष 5 माह 16 दिन, 23 घंटे और 16 मिनट में पूर्ण करता है। यह अपनी धुरी पर 17 घंटे, 14 मिनट, 24 सेकंड में एक चक्कर लगाता है। स्थूल मान से एक राशि पर 30 महीना, एक नक्षत्र पर 400 दिन और एक नक्षत्र चरण पर 100 दिन रहता है।
यह प्रति वर्ष 4 महीने वक्री और 8 महीने मार्गी रहता है। सूर्य से 150 की दूरी पर शनि ग्रह अस्त हो जाता है। अस्त होने के 38 दिन बाद उदय होता है। उदय के 135 दिन बाद मार्गी होता है और मार्गी के 105 दिन बाद पश्चिम दिशा में पुनः अस्त हो जाता है। यह प्रायः 140 दिन तक भी वक्री रह जाता है तथा वक्री होने के 5 दिन आगे या पीछे तक यह स्थिर रहता है। गणितीय स्पष्टीकरण से जब यह सूर्य से चैथी राशि को समाप्त करता है तो वक्री हो जाता है। जब वक्री से 120 मिनट चलता है तो मार्गी हो जाता है। जब इसकी गति 7/45 की होती है तब यह अतिचारी हो जाता है।
सूर्य से दूसरी ओर बारहवीं राशि पर शीघ्रगामी, तीसरी और ग्यारहवीं पर समचारी, चैथी पर मंदचारी, पांचवीं और छठी पर वक्री, सातवीं और आठवीं पर अतिवक्री तथा नवमी और दसवीं पर कुटिल गतिवाला हो जाता है। वक्री शनि 5 मास तक आगे की राशि का फल देते हैं, उसके बाद अपनी स्थित राशि का फल देते हैं। पाश्चात्य ज्योतिष में वक्री शनि के बारे मंे कहा जाता है कि वक्री शनि तनाव व संघर्ष से मुक्ति देता है तथा ऐसे समय में जातक अपने कार्यों का पुनर्मूल्यांकन, समीक्षा एवं जांच पड़ताल करता है।
नवीन योजनायें, नवीन उत्साह के साथ अधिकृत कार्य के प्रति जागरूक हो जाता है। परंतु शनि सिंह व धनु राशि मंे अनुकूल न होकर प्रतिकूल प्रभाव बताता है। जन्मस्थ वक्री शनि वाले जातक भाग्यवादी होते हैं तथा ऐसा मानते हैं कि इनके प्रत्येक क्रिया-कलाप, किसी अदृश्य शक्ति से प्रभावित होते हैं। ये एकांतवादी, जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह होते हैं। ये बाह्य रूप से सिद्धांतवादी एवं कठोर अनुशासन प्रिय होने का दंभ करते हैं। परंतु अंतर्मन से खोखले, डरपोक व लचीले स्वभाव के होते हैं। समय व परिस्थिति के परिवर्तन का प्रभाव इन पर बहुत ज्यादा पड़ता है।
इनका व्यक्तित्व दोहरा होता है। ऐसे व्यक्ति शारीरिक श्रम, ठोस कार्यवाही एवं जीवन के व्यावहारिक पक्ष पर कम किंतु आध्यात्मिक पक्ष पर ज्यादा सफल होते हैं। शनि से भय क्यों? शनिदेव न्यायाधीश के रूप में कठोरता से अपनी न्याय प्रक्रिया को बिना लगाव और द्वेष के निर्वहन करते हैं। दंड देने में निर्ममता और आशीर्वाद में मुक्त वरद हस्त सदैव रहता है। शनि देव सदैव व्यक्तियों को उनके कार्यों के अनुसार फल देते हैं।
अतः उनका वरदान पाने हेतु व्यक्ति को सदैव शुभकर्म ही करते रहना चाहिये। लगातार साढ़ेसात साल तक रहने वाली साढ़े-साती, व्यक्ति के जीवन के हर पहलू को प्रभावित करती है। इस कारण प्रत्येक व्यक्ति शनि के नाम से ही भय खाता है। अनेक व्यक्ति ‘शनि की साढ़ेसाती’ में आकाश की ऊंचाइयों को छू लेते हैं और कुछ जमीन पर पड़े नजर आते हैं स्पष्ट है ‘न्यायाधीश’ का न्याय क्रूरतम होता ही है...