शनि व शुक्र का विचित्र संबंध
शनि व शुक्र का विचित्र संबंध

शनि व शुक्र का विचित्र संबंध  

सुशील अग्रवाल
व्यूस : 29479 | फ़रवरी 2017

शनि व शुक्र परिचय शनि को “सौरमंडल का गहना” (श्रमूमस व िजीम ैवसंत ैलेजमउ) कहा जाता है क्योंकि इनके चारों ओर अनेक सुन्दर वलय परिक्रमा करते हैं। खगोलीय दृष्टिकोण से शनि एक गैसीय ग्रह है और शनि को सूर्य से जितनी ऊर्जा मिलती है उससे तीन गुनी ऊर्जा वह परावर्तित करता है। शनि को नैसर्गिक रूप से सर्वाधिक अशुभ ग्रह माना गया है जो दुःख, बुढ़ापा, देरी, बाधा आदि का प्रतिनिधित्व करता है।

शनि की शुभ स्थिति और स्वामित्व एकाकीपन, स्थिरता, संतुलन, न्यायप्रियता, भय-मुक्ति, सहिष्णुता, तप आदि की प्रवृत्ति भी देते हैं। गोचर में शनि को काल का प्रतिनिधि माना गया है। शुक्र सांसारिक ग्रह हैं परन्तु अति कठिन, इन्द्रिय-मन संग्रह के कारण इन्हें मोक्ष का कारक भी माना जाता है। प्रेम, कला, कामेच्छा, आमोद-प्रमोद, भोग, सुगंध, आकर्षक वस्त्र, सामाजिकता, राजसिक प्रवृत्ति आदि शुक्र के कारकत्व हैं।

इनको असुर-गुरु की संज्ञा भी प्राप्त है। शुक्र का विवाह एवं अन्य सभी शुभ कार्यों में महत्व है और उनके अस्त होने पर कोई सांसारिक शुभ कार्य करना वर्जित है। शनि-शुक्र के परस्पर संबंध शनि-शुक्र की परस्पर महादशा या अन्तर्दशा का विशेष नियम इस लेख का विषय है। परन्तु उस पर टिप्पणी से पूर्व इनके परस्पर संबंध पर संक्षिप्त विचार करते हैं। शनि व शुक्र दोनों एक-दूसरे के परस्पर नैसर्गिक मित्र हैं और पंचधा में भी एक-दूसरे के शत्रु नहीं बन सकते। शनि, शुक्र स्वामित्व राशि तुला में उच्च के होते हैं क्योंकि शनि वायु तत्व प्रधान ग्रह हैं और तुला वायु तत्व प्रधान राशि है।


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इसके अतिरिक्त शनि तुला में 200 पर परम उच्च अवस्था में स्वाति नक्षत्र में होते हैं जिसके अधिष्ठाता वायु देव हैं। शनि को सैनिक माना गया है और शुक्र राजसिक प्रवृत्ति के असुर गुरु हैं जिनके पास भोग-विलास के सभी साधन उपलब्ध हैं इसीलिए शनि को शुक्र की तुला राशि में भोग-विलास के अतिरिक्त शक्तिशाली असुर गुरु का संरक्षण भी प्राप्त होता है। परस्पर दशा का विचित्र नियम बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् के अथ दशाफलाध्यायः के अनुसार ग्रहों के स्वभाववश और स्थानादिवश दो प्रकार के दशाफल होते हैं। ग्रहों की दशा के फल उनके बलानुसार ही होते हैं।

शनि-अन्तर्दशा-फलाध्याय के अनुसार शनि की दशा में शुक्र का अंतर हो तथा शुक्र यदि केंद्र, त्रिकोण, स्वराशि, एकादश भाव में शुभ दृष्ट हो तो स्त्री-पुत्र, धन, आरोग्य, घर में कल्याण, राज्यलाभ, राजा की कृपा से सुख सम्मान, वस्त्राभूषण, वाहनादि अभीष्ट वस्तु का लाभ और उसी समय अगर गुरु भी अनुकूल हो तो भाग्योदय, संपत्ति की वृद्धि होती है। यदि शनि गोचर में अनुकूल हो तो राजयोग या योग क्रिया की सिद्धि होती है। यह है दशाफल का साधारण नियम। परस्पर दशा-अन्तर्दशा में कौन किसके फल देगा, इसका उल्लेख लघुपाराशरी की कारिका 40 में है:

परस्परदशापो स्वभुक्तौ सूर्यज्ञभार्गवो। व्यत्ययेन विशेपेण प्रदिशेतां शुभाशुभम्।। उपरोक्त कारिका के अनुसार सूर्यज (सूर्य पुत्र शनि) और भार्गव (शुक्र) अपना शुभाशुभ फल परस्पर दशाओं में देते हैं अर्थात, शनि का फल शुक्रांतर में और शुक्र का फल शन्यांतर में मिलेगा। अतः दोनों की परस्पर दशा-अंतर्दशा विशेष शुभ या विशेष अशुभ फल देती है। शुक्र स्वामित्व राशि वृषभ या तुला लग्न में शनि हो तो क्रमशः नवमेश-दशमेश और चतुर्थेश-पंचमेश होकर योगकारक होते हैं।

इसी प्रकार शनि स्वामित्व राशि मकर या कुम्भ लग्न में शुक्र हो तो क्रमशः पंचमेश-दशमेश और चतुर्थेश-नवमेश होकर योगकारक होते हैं। उत्तर कालामृत के दशाफल खंड की कारिका 29 और 30 में शनि व शुक्र की परस्पर दशा का एक विचित्र नियम उल्लिखित है जो अनेकों कुंडलियों में परखने के बाद खरा उतरता है और सामान्य नियम में विपरीत है: भृग्वार्की यदि तुघõमे स्वभवने वर्गोत्तमादो स्थितौ तुल्यौ योगकरौ तथैव बलिनौ तौ चेन्मियो पाकगो। भूपालो धनदोपमोऽपि सततं भिक्षाशनो निष्फलः तत्रैकस्तु बली परस्तु विबलश्चेद्वीर्यवान्योगदः।। 29 ।।


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1. शनि व शुक्र दोनों ही अगर उच्चक्षेत्री, स्वराशिस्थ, मित्रराशिगत, वर्गोत्तम, शुभ स्थानगत आदि हो तो इनकी परस्पर दशा-अन्तर्दशा में कुबेर के समान धनी राजा भी भिक्षवत् हो जाता है।यदि एक बलवान व दूसरा निर्बल हो तो परस्पर दशा-अन्तर्दशा में फल देते हैं। तौ द्वावप्यबलौ व्ययाष्टरिपुगौ तद्भावपौ वाऽपि तत् त˜ावेशयुतौ दा शुभकरौ सौख्यप्रदौ भोगदौ

।। एकः स˜ावनाधिपस्तदपरश्चेद्दुष्टभा वेश्वर स्तावप्यत्र सुयोगदावतिखलौ तौ चेन्महासौख्यदौ।। 30 ।।

2. यदि शनि व शुक्र बलरहित हों, त्रिक भावों में स्थित हों या त्रिक भावेश हों या त्रिक भावेशों से युत हों तो इनकी परस्पर दशा-अन्तर्दशा में शुभ फल, सुख और भोग प्राप्त होते हैं अर्थात शनि-शुक्र की परस्पर दशा-अन्तर्दशा की विशेषता यही है कि अगर दोनों अशुभ हों तो बहुत शुभ फल प्राप्त होते हैं।

निष्कर्षत: विशेष नियम यह है कि दोनों परस्पर दशा अन्तर्दशा में विशेष शुभ होने पर अत्यन्त अशुभ फल, विशेष अशुभ होने पर अत्यन्त शुभ फल देंगे और मिश्रित होने पर अपने फल दूसरे के अन्तर्दशा में देते हैं। शुक्र दशा सितम्बर-1977 से नवम्बर-1980 तक थी। उन्होंने 1977 में सत्ता खोयी जो उन्हें 1980 में पुनः प्राप्त हुई। उपरोक्त जन्मकुंडली में शुक्र एवं शनि स्वराशिस्थ होकर बली हैं। जातक पेशे से एक डॉक्टर है और उसके चार अस्पताल हैं। शनि-शुक्र की दशा नवंबर-2014 से जनवरी-2018 तक है।

पिछले वर्ष से जातक का स्वास्थ्य (फेफड़ों के समस्या) खराब रहने लगा और 2016 में बहुत ही अधिक खराब रहने लगा है। समस्या इतनी अधिक बढ़ गयी है कि ये नवम्बर-2016 से अमेरिका में इलाज करवा रहे हैं जिसपर बहुत व्यय हो रहा है और उनकी अनुपस्थिति से व्यवसाय पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है। उपरोक्त जन्मकुंडली में शुक्र स्वराशिस्थ और शनि वर्गोत्तम हैं।

शनि-शुक्र की दशा अगस्त-2013 से अक्तूबर-2016 तक रही और इस अवधि में जातक का एक्सपोर्ट का व्यवसाय लगभग बंद हो गया और उसने एक प्राइवेट कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी की। कुछ महीनों के बाद दूसरे कॉलेज में नौकरी करनी पड़ी और फिर उस कॉलेज ने भी लगभग एक साल तक तनख्वाह नहीं दी फिर भी जातक नौकरी करता रहा। शनि-शुक्र खत्म होते ही जातक ने हिम्मत करके नौकरी पर जाना बंद किया और संस्थाओं में टाइम मैनेजमेंट का प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया जो अब बहुत अच्छा चल रहा है।


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यहाँ तक कि दिसम्बर-2016 के दूसरे सप्ताह में कॉलेज से पूरा बकाया पैसा मिल गया। निष्कर्ष दशाफल के साधारण नियमों के विपरीत शनि व शुक्र की दशा-अन्तर्दशा के फल प्राप्त होते हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि शनि एक अंतर्मुखी और शुक्र एक बहिर्मुखी ग्रह हैं जिससे इनका परस्पर समन्वय नहीं हो पाता। अतः इनकी परस्पर दशा-अन्तर्दशा के फलों पर निर्णय बहुत सोच-समझ कर करना चाहिए।



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