उच्च नीच के ग्रह क्यों और कैसे होते हैं?
उच्च नीच के ग्रह क्यों और कैसे होते हैं?

उच्च नीच के ग्रह क्यों और कैसे होते हैं?  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 48388 | अप्रैल 2015

ज्योतिष में रुचि रखने वाले उच्च/ नीच के ग्रहों से रोजाना मुखातिब होते हैं और ग्रहों की इस स्थिति के आधार पर फलकथन भी करते हैं। शाब्दिक परिभाषा के आधार पर ‘उच्च’ का तात्पर्य सामान्य स्तर से ऊँचा और ‘नीच’ का तात्पर्य सामान्य स्तर से नीचा होता है। इस लेख का विषय है कि ग्रह उच्च/नीच के क्यों और कैसे होते हैं? खगोलीय दृष्टिकोण आज यह तथ्य सर्वविदित है कि सौरमण्डल के सभी सदस्य ग्रह अपने गुरुत्वाकर्षण बल से बंधे हैं और सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। चूंकि जातक (प्रेक्षक) पृथ्वी पर जन्म लेता है इसलिये अगर हम ग्रहों को पृथ्वी से देखें तो किसी ग्रह विशेष का ‘उच्च’ वह बिंदु हुआ जब वह पृथ्वी से अधिकतम दूरी (सूर्य सिद्धांत के अनुसार मंदोच्च) पर होता है। इसी प्रकार ‘नीच’ वह बिंदु हुआ जब वह पृथ्वी से न्यूनतम दूरी (सूर्य सिद्धांत के अनुसार शीघ्रोच्च) पर होता है। भचक्र (चित्र) को 12 बराबर भागों में बांटा गया है और प्रत्येक भाग एक राशि का प्रतिनिधित्व करता है। कौन से ग्रह कितने डिग्री पर उच्च और नीच होता है यह निम्न तालिका में वर्णित है। वैदिक दृष्टिकोण फलित में जातक की कुंडली के योगों, दशाओं, अष्टकवर्ग और गोचर के अतिरिक्त ग्रहों की शक्ति एवं दुर्बलता का आकलन भी किया जाता है। ग्रहों के बल का निर्धारण षड्बल गणना-पद्धति के अंतर्गत आता है और जिसे सभी विद्वानों द्वारा निर्विवादित मान्यता प्राप्त है।


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‘षड्बल’ संस्कृत भाषा का शब्द है और इसका अर्थ है, छह प्रकार के बल यानी ग्रहों के द्वारा छह स्रोतों से प्राप्त बल का आकलन। महर्षि पराशर (बृहत् पाराशर होराशास्त्रम खण्ड-1, व्याख्याकार डॉ. सुरेशचन्द्र मिश्र, अध्याय 43, श्लोक 13, पृष्ठ 407) के अनुसार छह प्रकार के बल स्रोत हैं: स्थान बल, दिग्बल, कालबल, चेष्टा बल, नैसर्गिक बल, दृग्बल। सभी प्रकार के बलों को पद्धतिनुसार निकालने के पश्चात ही किसी ग्रह के बल का आकलन किया जाता है। चूंकि लेख का विषय उच्च/नीच है तो हम उसी पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। उच्च/नीच बल, स्थान बल के पाँच भागों में से एक है।

अन्य चार हैं: सप्तवर्ग बल, ओज युग्म बल, केंद्र बल और द्रेष्काॅण बल। अर्थात, कुल छह स्रोतों में से ‘स्थान बल’ एक है और ‘स्थान बल’ के पाँच भागों में से उच्च/नीच बल एक है। किसी ग्रह के किसी राशि विशेष में स्थित होने से उसे केवल अतिरिक्त उच्च/नीच स्थान बल प्राप्त होता है। अर्थात, ग्रहों का कुल षड्बल ही फलित के दृष्टिकोण से उपयोग में लाना चाहिये और कुंडली में केवल उच्च/नीच के ग्रहों के होने मात्र से कभी भी तत्काल कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिये। उच्च और नीच क्यों? ग्रह उच्च/नीच के क्यों माने जाते हैं? यह तर्कसंगत रूप में कहीं भी परिभाषित नहीं मिल पाया है। फिर भी अगर समझने का प्रयास करें: हम यह जानते हैं कि सभी ग्रहों और राशियों के अपने-अपने गुण/ तत्व/ स्वभाव/ प्रवृत्ति/ मैत्री/ वर्ण होते हैं। तो क्या यह किसी प्रकार राशि विशेष के गुण/ तत्व/ स्वभाव/ प्रवृत्ति/ मैत्री/ वर्ण से तो संबंधित नहीं है? आइये, इस पर एक दृष्टि डालते हैं: राजकीय प्रशासन ज्योतिष की कक्षाओं में अनेक बार ग्रहों के स्वभाव को समझने और समझाने के लिये सौरमण्डल के ग्रहों की एक राष्ट्र में मंत्रिमंडल से तुलना की जाती है। सूर्य, सौरमण्डल रूपी प्रशासन के राजा हैं और मंगल स्वामित्व मेष राशि में 100 पर परम उच्च के माने जाते हैं। जब राजा अपने सेनापति के साथ हो तो निश्चित ही स्वयं को शक्तिशाली और सबल महसूस करेगा। हालांकि, वृश्चिक भी मंगल की राशि है पर मेष में अतिरिक्त बल इसीलिए माना जाता है क्योंकि मेष राशि एक क्षत्रिय राशि भी है जबकि वृश्चिक एक ब्राह्मण राशि है। राजा सूर्य, शुक्र स्वामित्व-तुला राशि में 100 पर परम नीच के होते हैं। शुक्र असुरों के गुरु हैं और सूर्य उन्हें शत्रु मानते हैं।

इसके अतिरिक्त तुला राशि शूद्र राशि की श्रेणी में आती है। अर्थात, राजा के लिए किसी भी प्रकार से उपयुक्त स्थान नहीं है और राजा को इस घर में न्यूनतम स्थान बल प्राप्त होता है। चंद्रमा को राजकीय प्रशासन में रानी का दर्जा प्राप्त है और यह शुक्र-स्वामित्व वृषभ राशि में 30 पर परम उच्च के माने जाते हैं। असुर-गुरु शुक्र की प्रवृत्ति राजसिक है, अर्थात ज्ञान के अतिरिक्त सभी प्रकार के सुख-साधन की भी व्यवस्था है। इसीलिए रानी स्वयं को वृषभ में उत्तम महसूस करती हैं। इसके विपरीत चन्द्रमा, मंगल- स्वामित्व वृश्चिक राशि में 30 पर स्वयं को अत्यन्त निर्बल पाती हैं क्योंकि सेनापति मंगल अत्यंत शक्तिशाली है और रानी अपनी शक्ति का सेनापति के समक्ष कतई प्रयोग नहीं कर सकती हैं। मंगल को प्रशासन में सेनापति का पद प्राप्त है। मंगल शनि-स्वामित्व मकर राशि में 280 पर परम उच्च के माने जाते हैं।


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शनि राज्य की सेना का प्रतिनिधित्व करते हैं और सेनापति अपनी सेना के साथ होगा तो अत्यंत बली स्थिति में तो होगा ही। मंगल, चन्द्र-स्वामित्व कर्क राशि में 280 पर परम नीच के माने जाते हैं। कर्क राशि पर रानी चंद्रमा का आधिपत्य है। सेनापति, रानी के समक्ष किसी भी प्रकार की शक्ति या आक्रामकता का प्रयोग नहीं कर सकता है इसीलिये स्वयं को अत्यन्त निर्बल पाता है। बुध को राज्य का राजकुमार कहा गया है। राजकुमार अपने महल में ही सबसे शक्तिशाली होते हैं क्योंकि उन्हें वहाँ राजा और रानी का संरक्षण भी प्राप्त रहता है। इसलिये बुध, कन्या राशि में 150 पर परम उच्च के होते हैं। बुध, मीन राशि में 150 पर परम नीच के होते हैं। बुध एक राजसिक प्रवृत्ति के राजकुमार हैं और गुरु-स्वामित्व मीन राशि में उन्हें केवल सात्विकता और ज्ञान का ही वातावरण मिलता है। इसीलिये राजगुरू गुरु के प्रत्यक्ष स्वयं को बलहीन पाते हैं। गुरु को प्रशासन में राजगुरू का सम्मानित पद प्राप्त है। जब गुरु राजा के समक्ष होते हंै तो उन्हें राजा का मार्गदर्शन करना होता है और राजा के आदेशों का पालन भी करना होता है। जब गुरु, रानी चंद्रमा की कर्क राशि में होते हंै तब उन्हें अत्यधिक सम्मान प्राप्त होता है इसीलिये गुरु चन्द्र-स्वामित्व कर्क राशि में 50 पर स्वयं को अत्यन्त शुभ वातावरण में पाते हैं। गुरु, मकर राशि में 50 पर परम नीच के होते हैं। गुरु ब्राह्मण ग्रह है और उनमें ज्ञान और सात्विकता की प्रचुरता है।

शनि को सैनिक की संज्ञा दी गयी है। जब गुरु, शनि-स्वामित्व मकर राशि में होते हंै तो स्वयं को उपयुक्त स्थान पर नहीं पाते क्योंकि शनि एक तामसिक प्रवृत्ति के ग्रह हैं। सैनिक को न तो ज्ञान की बातों में कोई रुचि होती है न ही किसी प्रकार की सात्विकता में। अर्थात, गुरु को अपने पद का अहंकार भूल कर अत्यंत सामान्य होना पड़ता है जिससे वह अपना स्थान बल खो देते हैं या नीच के हो जाते हैं। शुक्र को असुरों के गुरु का पद प्राप्त है। वह काफी ज्ञानी और मृतसंजीवनी विद्या के ज्ञाता भी हैं। परंतु असुरों के गुरु होने के कारण उनका अधिकतम समय तामसिक और राजसिक वातावरण में ही बीतता है। परंतु जब शुक्र, गुरु-स्वामित्व मीन राशि में 270 के होते हैं तो स्वयं को ज्ञान एवं सात्विकता के शुद्ध वातावरण में अत्यन्त अच्छा महसूस करते हैं। अर्थात, उच्च के होते हैं। शुक्र, राजकीय प्रशासन में अपना संबंध कायम रखने के लिये राजकुमार बुध को मित्र मानते हैं। बुध की इच्छापूर्ति के लिए उन्हें अपने अहंकार और ज्ञान की भी बलि देनी पड़ती है जिससे उनके गुणों में कमी आती है और शक्तिहीन हो जाते हैं। अर्थात, वह बुध की कन्या राशि में 270 पर परम नीच के होते हैं। शनि राज्य की सेना/सैनिक हैं और शुक्र राजसिक प्रवृत्ति के असुर-गुरु हैं। शुक्र के पास भोग-विलास के सभी साधन उपलब्ध हैं और जब शनि शुक्र-स्वामित्व तुला राशि में होते हैं तो भोग-विलास के साथ-साथ उन्हें शक्तिशाली असुर-गुरु शुक्र का संरक्षण भी प्राप्त होता है। इसी कारणवश तुला में 200 पर परम उच्च के माने जाते हैं। जब सैनिक अपने सेनापति के साथ होता है तो उसे उसके अधीनस्थ काम करना पड़ता है और प्रत्येक आदेश का वहन भी करना होता है।


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सैनिक स्वयं को सेनापति के समक्ष अत्यन्त बलहीन पाते हैं इसीलिए शनि, मंगल-स्वामित्व मेष राशि में 200 पर परम नीच के होते हैं। तत्वों के आधार पर ग्रहों और राशियों के तत्वों (अग्नि, पृथ्वी, वायु और जल) का ज्योतिष में बहुत महत्व है। आइये देखें, कि क्या तत्वों के आपसी समन्वय का भी ग्रहों के उच्च/नीच से कोई संबंध है? सूर्य, मेष राशि में उच्च के होते हैं। सूर्य, एक अग्नि तत्व ग्रह हैं और मेष एक अग्नि तत्व राशि। अर्थात, दोनों में ही अग्नि तत्व की प्रधानता है और सूर्य को अपने गुणों जैसे महत्वाकांक्षा, अधिकार, सात्विकता, नेतृत्व, यश, निर्णय क्षमता इत्यादि को पाने में अग्नि तत्व प्रधान मेष राशि के सान्निध्य में अतिरिक्त बल मिलता है। सूर्य, तुला राशि में नीच के होते हैं। तुला वायु राशि है। वायु वातावरण में सूर्य को अपनी अग्नि (शक्ति) को सही दिशा में प्रवाहित करने में कठिनाई आती है और अपनी शक्ति का कोई सकारात्मक उपयोग नहीं कर पाते हैं। चंद्र, वृषभ राशि में उच्च के होते हैं। चंद्र एक जल तत्व ग्रह है और वृषभ एक पृथ्वी तत्व राशि है। पृथ्वी अर्थात स्थिरता होने से जल प्रवाह को मजबूत आधार, स्थिरता और दिशा मिलती है और इस कारणवश चंद्र के कारक तत्वों में वृद्धि होती है जैसे भावनाओं का संतुलन भली-भांति हो पाता है जिससे आपसी संबंधों में भी लाभ प्राप्ति होती है। चन्द्र, वृश्चिक राशि में नीच के होते हैं। वृश्चिक एक स्थिर राशि के साथ-साथ जल तत्व प्रधान राशि भी है। जल तत्व/प्रवाह की अधिकता (चन्द्र भी जल तत्व) के फलस्वरूप चंद्र के कारक तत्वों में असंतुलन हो जाता है। जिस प्रकार जल की अधिकता (बाढ़) से सब कुछ नष्ट हो जाता है उसी प्रकार भावनाओं के असंतुलन या कमजोर इच्छा शक्ति से भी कष्ट और परेशानियां बहुत बड़ी लगती हैं और जीवन का संतुलन पूर्णतः बिगड़ जाता है।

मंगल, मकर राशि में उच्च के होते हैं। मंगल एक अग्नि तत्व ग्रह है और मकर एक स्थिर एवं पृथ्वी तत्व राशि है। मंगल की अग्नि/ आक्रामकता/शक्ति का एक स्थिर राशि में धैर्य पूर्ण ढंग से, संतुलित एवं सकारात्मक रूप से उपयोग होता है। इसलिये, मंगल मकर राशि में अतिरिक्त स्थान बल प्राप्त कर उच्च के होते हैं। मंगल, कर्क में नीच के होते हैं। कर्क एक जल तत्व राशि है जो अग्नि को बुझा देती है। अर्थात, मंगल अपना स्थान बल पूर्णतः खो देते हैं और जातक में उदाहरणतः कम साहस, डरपोकपन या अनावश्यक क्रोध आ सकता है। बुध, कन्या राशि में उच्च के होते हैं। बुध, अपनी बुद्धिमानी, वाणी, व्यावहारिकता, विश्लेषणात्मक शक्ति आदि के कारक हैं और एक पृथ्वी तत्व ग्रह हैं। कन्या एक द्विस्वभाव एवं पृथ्वी तत्व राशि है। अर्थात, पृथ्वी तत्व ग्रह को पृथ्वी तत्व राशि में एक शक्तिशाली आधार मिलता है और व्यावहारिकता और मानसिक श्रेष्ठता को बनाने या बनाये रखने में सहायता मिलती है। बुध, मीन राशि में नीच के होते हैं। मीन एक जल तत्व और द्विस्वभाव राशि है। जल राशि में बुद्धिमानी, वाणी, व्यावहारिकता, विश्लेषणात्मक शक्ति आदि को ठोस आधार नहीं मिल पाता है और अव्यावहारिकता बढ़ती है। स्थिरता की कमी के कारण बुध स्थान शक्ति खो देते हैं और स्वयं को मीन राशि में सर्वाधिक निर्बल पाते हैं। गुरु, कर्क राशि में उच्च के होते हंै। कर्क, एक जल तत्व राशि है। गुरु, एक आकाश तत्व एवं ज्ञान का ग्रह है जिन्हें जल में प्रबल प्रवाह मिलता है जो ज्ञान के विस्तार में सहायक होता है। अर्थात, गुरु अपने कारक तत्वों में अत्यधिक तेजी से वृद्धि कर पाते हैं। गुरु, मकर में नीच के होते हैं।


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मकर एक स्थिर राशि है जो ज्ञान के विस्तार/प्रवाह में ठहराव का वातावरण निर्मित करता है। ज्ञान व्यक्ति को पैसे, यश और शक्ति से भी अधिक अहंकारी बनाता है। गुरु की कारक तत्वों में कमी से जातक अहंकारी, भौतिकवादी और स्वार्थी हो जाता है। शुक्र, मीन राशि में उच्च के होते हैं। शुक्र, एक जल तत्व प्रधान ग्रह है और मीन एक द्विस्वभाव व जल तत्व प्रधान राशि है। शुक्र की राजसिक प्रवृत्ति के कारण उनको भोग-विलास, सौन्दर्य, कला, प्रशंसा इत्यादि प्रिय हैं। हालाँकि, शुक्र का जल तत्व और मीन का जल तत्व जल की अधिकता प्रदर्शित करता है परन्तु मीन पर गुरु का स्वामित्व है इसीलिए इस राशि में जल प्रवाह संतुलित, सकारात्मक व ज्ञान वर्धक है। शुक्र, कन्या में नीच के होते हैं। शुक्र एक जल तत्व प्रधान ग्रह हैं और कन्या एक पृथ्वी तत्व व द्विस्वभाव राशि है। शुक्र के ऐश्वर्य एवं भोग-विलास की इच्छा को कन्या का पृथ्वी तत्व स्थिरता प्रदान करता है अर्थात उनकी पूर्ति होने से रोकता है। जातक भौतिकवादी बन सकता है और भोग-विलास प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है अर्थात, बलहीन या नीच का होता है।

शनि, तुला में उच्च के होते हैं। शनि वायु तत्व प्रधान ग्रह है और तुला वायु तत्व प्रधान राशि है। वायु तत्व को वायु राशि का साथ मिलने से अतिरिक्त स्थान बल प्राप्त होता है और अत्यधिक अनुकूल वातावरण बनता है। सबल शनि, जातक को भय से मुक्ति, तप-तपस्या, न्याय, सहिष्णुता, दयालुता इत्यादि प्रदान करता है। शनि, मेष में नीच के होते है। शनि वायु तत्व ग्रह हैं और मेष अग्नि तत्व राशि है। वायु के प्रवाह में अग्नि का सम्मिलित होना केवल नुकसान का ही द्योतक हो सकता है। निर्बल शनि, जातक को मानसिक और शारीरिक हानि जैसे दरिद्रता, बीमारी आदि देता है।

नक्षत्रों के आधार पर नक्षत्र तो ज्योतिष का आधार है। भचक्र की प्रत्येक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। आइये देखें कि ग्रहों की किसी राशि विशेष स्थिति पर क्या नक्षत्रों का भी प्रभाव पड़ता है जिससे वे उच्च के होते हैं? सूर्य, मेष राशि में 10 Degree पर अश्विनी नक्षत्र में परम उच्च के होते हैं। अश्विनी, सूर्य के पुत्र एवं देवताओं के चिकित्सक माने जाते हैं। सूर्य D1 में मेष पर 10 Degree के होकर क्9 में बुध-स्वामित्व मिथुन राशि के नवांश में जायेंगे और बुध भी सूर्य के पुत्र ही हैं। सूर्य की अपने पुत्रों के साथ स्थिति अत्यन्त लाभकारी और सुखद वातावरण निर्मित करती है। चंद्र, वृषभ राशि में 3 Degree पर कृत्तिका नक्षत्र में परम उच्च के होते हैं। कृत्तिका नक्षत्र का स्वामित्व सूर्य के पास है। चन्द्र का सूर्य का साथ मिलने से स्वाभाविक ही चन्द्र को सबसे अधिक शक्ति मिलेगी क्योंकि चन्द्र रानी है तो सूर्य राजा।


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मंगल, मकर राशि में 28 Degree पर धनिष्ठा नक्षत्र में परम उच्च के होते हैं। धनिष्ठा नक्षत्र के दशा स्वामी भी मंगल ही हैं। अर्थात, उन्हें अतिरिक्त स्थान बल प्राप्त होता है और उनकी यह स्थिति मंगल के सभी कारक तत्वों में वृद्धि करती है क्योंकि यह वातावरण उनके लिये सर्वाधिक अनुकूल है। बुध, कन्या राशि में 15degree पर पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में परम उच्च के होते हैं। पूर्वा फाल्गुनी के दशा स्वामी शुक्र हैं और शुक्र-बुध परस्पर मित्र हैं। इसके अतिरिक्त बुध क्1 में कन्या राशि में 15Degree के होकर D9 में भी कन्या में जाकर वर्गोत्तम हो जाते हैं और अपने कारक तत्वों में सकारात्मक रूप से वृद्धि करते हैं। गुरु, कर्क राशि में 5 Degree पर परम उच्च के होते हैं और पुष्य नक्षत्र के अधिष्ठाता गुरु स्वयं हैं (दशा स्वामी शनि हैं)। स्वयं के नक्षत्र में गुरु अत्यन्त बली रहते हैं और अपने सभी कारक तत्वों में वृद्धि करते हैं।

पुष्य नक्षत्र की अत्यधिक शुभता के कारण इसे महानक्षत्र भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त, गुरु D1 में कर्क राशि में 5 Degree के होकर D9 में सूर्य-स्वामित्व सिंह राशि के नवांश में जायेंगे और सूर्य एवं गुरु परस्पर मित्र हैं। अर्थात, यह स्थिति गुरु के लिये अत्यन्त अनुकूल स्थिति है। शुक्र, मीन में 27 degree पर रेवती नक्षत्र में उच्च के होते हैं। रेवती नक्षत्र के दशा स्वामी बुध हैं और शुक्र-बुध परस्पर मित्र हैं। इसके अतिरिक्त शुक्रD1 में मीन में 27 Degree के होकर क्9 में भी मीन में ही जाकर वर्गोत्तम हो जाते हैं और अपने कारक तत्वों में सकारात्मक रूप से वृद्धि करते हैं जैसे जातक को सभी सांसारिक सुख प्राप्त होते हैं, जातक को आत्मिक बोध की ओर अग्रसर करते हैं, समाधि के कारक भी शुक्र ही हैं। शनि, तुला राशि में 20 Degree पर स्वाति नक्षत्र में परम उच्च के होते हैं। स्वाति नक्षत्र के अधिष्ठाता वायु देव हैं और शनि भी वायु तत्व प्रधान ग्रह है। शनि अपने अधिष्ठाता के वातावरण में अत्यंत शक्तिशाली हो जाते हैं। स्वाति नक्षत्र के दशा स्वामी राहु हैं। ‘शनिवत् राहु’ के अनुसार शनि को अपनी ही प्रवृत्ति के एक और ग्रह का सान्निध्य मिल जाता है जो कि केवल साहचर्य से ही कार्य करते हैं। अर्थात, शनि की भांति ही कार्य करेंगे। इसके अतिरिक्त, शनि D1 में तुला में 20 Degree के होकर D9 में बुध-स्वामित्व कन्या राशि के नवांश में जायेंगे और बुध एवं शनि



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