क्यों?
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क्यों?  

यशकरन शर्मा
व्यूस : 5723 | अप्रैल 2015

प्रश्न: मूर्ति-पूजा क्यों?

उत्तर: उपासना की पांचवीं श्रेणी मूर्तिपूजा है। चंचल मन को चारों और से रोक कर एकाग्र करने का एकमात्र उपाय है- मूर्तिपूजा। वैदिक काल से ही मूर्ति-पूजा का विधान है। शास्त्रों में कहा है- ‘‘मनोधृतिर्धारणा स्यात्, समाधिब्र्रह्मणि स्थितिः। अमूर्तों चेत्स्थिरा न स्यात्ततो मूर्ति विचिन्तयेत्।।’’ मन की धृति को धारण कहते हैं। ब्रह्म में स्थित हो जाने का नाम समाधि है, परंतु यदि बिना मूर्ति मन स्थिर न हो तो मूर्ति की आवश्यकता पड़ती है। ज्ञान की कोटि में पहुंचने के लिये साधक मन से जब तक सुस्थिर न हो सके, तब तक मूर्तिपूजा के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग ही नहीं है जिसके द्वारा मन को वश में किया जा सके। इतना ही नहीं, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि भावना को उभरने के लिये चित्र (मूर्ति) की आवश्यकता पड़ती ही है।

मान लीजिए एक व्यक्ति के हाथ में तीन स्त्रियों के चित्र हैं। एक उसकी माता का, दूसरा बहन का, तीसरा पत्नी का। वह व्यक्ति जो-जो चित्र देखेगा वैसी-वैसी भावना उसके मन में क्रमशः उभरेगी। मां का चित्र देखकर उसमें ममत्व वात्सल्य दौड़ उठेगा, बहन को देखकर उसके प्रति कर्तव्य की भावना, स्नेह की भावना उभरेगी, पत्नी का चित्र देखकर प्रेम-स्नेहालिंगन की भावना प्रगाढ़ हो उठेगी। एकलव्य ने भी द्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उक्त भाव से उसका पूजन किया जिसके प्रताप से वह बाण-विद्या में अर्जुन से अधिक निपुण हो गया।

बालक ध्रुव ने नारद जी के उपदेश से मूर्ति बनाकर पूजा की, मात्र छः माह में मूर्ति के माध्यम से साक्षात् ईश्वर के दर्शन हो गये। सनातन हिंदू धर्म ही नहीं संसार के प्रत्येक धर्म में मूर्तिपूजा का प्रचलन है। ईसाई लोग पवित्र ‘क्राॅस’ की पूजा करते हैं। मुसलमान भाई मक्का शरीफ में ‘संगे असबद’ को चूमते हैं। कब्र (दरगाह) पर फूल-मालाएं चढ़ाते हैं। सिक्ख ‘गुरुग्रंथ साहब’ की पूजा करते हैं। अतः निर्गुण निराकार का ध्यान किया जाता है तथा सगुण साकार की प्रतिमा द्वारा उपासना करना न्यायसंगत ही है।

प्रश्न: शालिग्राम और शिवलिंग के हाथ-पांव क्यों नहीं होते?

उत्तर: ईश्वर के प्रतीक चिह्न (मूर्तियां) चार प्रकार से प्रकट होते हैं।

1. स्वयम्भू-विग्रह: अपने आप प्रकट होने वाले ईश्वर कृत पदार्थ स्वयम्भू विग्रह कहलाते हैं, जैसे-सूर्य, चंद्र, अग्नि, पृथ्वी, दिव्य नदियां इत्यादि।

2. निर्गुण निराकार विग्रह: प्रकृति प्रदत्त निर्गुण निराकार विग्रह भगवान के निराकार निर्लेप निरंजन रूप के प्रतिनिधि माने जाते हैं। जैसे-शालिग्राम, शिवलिंग, नर्मदेश्वर, शक्ति पिंड, मिट्टी पिंड, रुद्राक्ष, सुपारी विरचित गणेश इत्यादि।

3. गुण साकार विग्रह: शंख-चक्र चतुर्भुज विष्णु, पंचमुख शिव, सिंहवाहिनी अष्टभुजा दुर्गा, लाक्षासिन्दूर वदन गणपति, जटाजूट, गंगाघट भालचंद्र शंकर इत्यादि।

4. अवतार विग्रह: धनुषधारी राम, वंशी विभूषित कृष्ण, नृसिंह रूप विष्णु, दत्तात्रेय आदि। इनमें शिवलिंग, शालिग्राम, सुपारी आदि प्रतिमाएं निर्गुण निराकार का ही प्रतीक हैं अतः उनमें हाथ-पांव आदि अंगों के अस्तित्व का प्रश्न ही निर्मूल है। शालिग्राम समस्त ब्रह्मांडभूत नारायण (विष्णु) का प्रतीक है।

स्कंद पुराण में ‘कार्तिक माहात्म्य’ में स्वयं भगवान शिव कहते हैं-

1. शालिग्राम शिलायां तु तैत्रोक्य सचराचरम्। मया सह महासेन ! लीनं तिष्ठति सर्वदा।।

2. शालिग्रामं हेरिश्चह्नं प्रत्यहं पूजयेन्नरः। -र.भ. रत्नाकर-हेमाद्रौ दैवलः



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