उच्च तथा नीच राशि के ग्रह भारतवर्ष में अधिकतर ज्योतिषियों तथा ज्योतिष में रूचि रखने वाले लोगों के मन में उच्च तथा नीच राशियों में स्थित ग्रहों को लेकर एक प्रबल धारणा बनी हुई है कि अपनी उच्च राशि में स्थित ग्रह सदा शुभ फल देता है तथा अपनी नीच राशि में स्थित ग्रह सदा नीच फल देता है। उदाहरण के लिए शनि ग्रह को तुला राशि में स्थित होने से अतिरिक्त बल प्राप्त होता है तथा इसीलिए तुला राशि में स्थित शनि को उच्च का शनि कह कर संबोधित किया जाता है और अधिकतर ज्योतिषियों का यह मानना है कि तुला राशि में स्थित शनि कुंडली धारक के लिए सदा शुभ फलदायी होता है। किंतु यह धारणा एक भ्रांति से अधिक कुछ नहीं है तथा इसका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं है और इसी भ्रांति में विश्वास करके बहुत से ज्योतिष प्रेमी जीवन भर नुकसान उठाते रहते हैं क्योंकि उनकी कुंडली में तुला राशि में स्थित शनि वास्तव में अशुभ फलदायी होता है तथा वे इसे शुभ फलदायी मानकर अपने जीवन में आ रही समस्याओं का कारण दूसरे ग्रहों में खोजते रहते हैं तथा अपनी कुंडली में स्थित अशुभ फलदायी शनि के अशुभ फलों में कमी लाने का कोई प्रयास तक नहीं करते।
इस चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले आइए एक नजर में ग्रहों के उच्च तथा नीच राशियों में स्थित होने की स्थिति पर विचार कर लें। नवग्रहों में से प्रत्येक ग्रह को किसी एक राशि विशेष में स्थित होने से अतिरिक्त बल प्राप्त होता है जिसे इस ग्रह की उच्च की राशि कहा जाता है। इसी तरह अपनी उच्च की राशि से ठीक सातवीं राशि में स्थित होने पर प्रत्येक ग्रह के बल में कमी आ जाती है तथा इस राशि को इस ग्रह की नीच की राशि कहा जाता है। उदाहरण के लिए शनि ग्रह की उच्च की राशि तुला है तथा इस राशि से ठीक सातवीं राशि अर्थात मेष राशि शनि ग्रह की नीच की राशि है तथा मेष में स्थित होने से शनि ग्रह का बल क्षीण हो जाता है। इसी प्रकार हर एक ग्रह की 12 राशियों में से एक उच्च की राशि तथा एक नीच की राशि होती है। किंतु यहां पर यह समझ लेना अति आवश्यक है कि किसी भी ग्रह के अपनी उच्च या नीच की राशि में स्थित होने का संबंध केवल उसके बलवान या बलहीन होने से होता है न कि उसके शुभ या अशुभ होने से। तुला में स्थित शनि भी कुंडली धारक को बहुत से अशुभ फल दे सकता है जबकि मेष राशि में स्थित नीच राशि का शनि भी कुंडली धारक को बहुत से लाभ दे सकता है। इसलिए ज्योतिष में रूचि रखने वाले लोगों को यह बात भली भांति समझ लेनी चाहिए कि उच्च या नीच राशि में स्थित होने का प्रभाव केवल ग्रह के बल पर पड़ता है न कि उसके स्वभाव पर।
शनि नवग्रहों में सबसे धीमी गति से भ्रमण करते हैं तथा एक राशि में लगभग ढाई वर्ष तक रहते हैं अर्थात शनि अपनी उच्च की राशि तुला तथा नीच की राशि मेष में भी ढाई वर्ष तक लगातार स्थित रहते हैं। यदि ग्रहों के अपनी उच्च या नीच राशियों में स्थित होने से शुभ या अशुभ होने की प्रचलित ध् ाारणा को सत्य मान लिया जाए तो इसका अर्थ यह निकलता है कि शनि के तुला में स्थित रहने के ढाई वर्ष के समय काल में जन्मे प्रत्येक व्यक्ति के लिए शनि शुभ फलदायी होंगे क्योंकि इन वर्षों में जन्मे सभी लोगों की जन्म कुंडली में शनि अपनी उच्च की राशि तुला में ही स्थित होंगे। यह विचार व्यावहारिकता की कसौटी पर बिलकुल भी नहीं टिकता क्योंकि देश तथा काल के हिसाब से हर ग्रह अपना स्वभाव थोड़े-थोड़े समय के पश्चात ही बदलता रहता है तथा किसी भी ग्रह का स्वभाव कुछ घंटों के लिए भी एक जैसा नहीं रहता, फिर ढाई वर्ष तो बहुत लंबा समय है। इसलिए ग्रहों के अपनी उच्च या नीच की राशि में स्थित होने का मतलब केवल उनके बलवान या बलहीन होने से समझना चाहिए न कि उनके शुभ या अशुभ होने से। अनुभव में पाया गया है कि अपनी उच्च की राशि में स्थित कोई ग्रह बहुत अशुभ फल दे रहा होता है क्योंकि अपनी उच्च की राशि में स्थित होने से ग्रह बहुत बलवान हो जाता है, इसलिए उसके अशुभ होने की स्थिति में वह अपने बलवान होने के कारण सामान्य से बहुत अधिक हानि करता है। अनुभव में ऐसी भी बहुत सी कुंडलियां देखी गई हैं जिनमें कोई ग्रह अपनी नीच की राशि में स्थित होने पर भी स्वभाव से शुभ फल दे रहा होता है किन्तु बलहीन होने के कारण इन शुभ फलों में कुछ न कुछ कमी रह जाती है। ऐसे लोगों को अपनी कुंडली में नीच राशि में स्थित किन्तु शुभ फलदायी ग्रहों के रत्न धारण करने से बहुत लाभ होता है क्योंकि ऐसे ग्रहों के रत्न धारण करने से इन ग्रहों को अतिरिक्त बल मिलता है तथा यह ग्रह बलवान होकर अपने शुभ फलों में वृद्धि करने में सक्षम हो जाते हैं। वक्री ग्रह: लगभग हर दूसरे व्यक्ति की जन्म कुंडली में एक या इससे अधिक वक्री ग्रह पाये जाते हैं तथा ज्योतिष में रूचि रखने वाले अध् िाकतर लोगों के मन में यह जिज्ञासा बनी रहती है कि उनकी कुंडली में वक्री बताए जाने वाले इस ग्रह का क्या मतलब हो सकता है।
वक्री ग्रहों को लेकर भिन्न-भिन्न ज्योतिषियों तथा पंडितों के भिन्न-भिन्न मत हैं तथा आज हम वक्री ग्रहों के बारे में ही चर्चा करेंगे। सबसे पहले यह जान लें कि वक्री ग्रह की परिभाषा क्या है। कोई भी ग्रह विशेष जब अपनी सामान्य दिशा की बजाए उल्टी दिशा यानि विपरीत दिशा में चलना शुरू कर देता है तो ऐसे ग्रह की इस गति को वक्र गति कहा जाता है तथा वक्र गति से चलने वाले ऐसे ग्रह विशेष को वक्री ग्रह कहा जाता है। उदाहरण के लिए शनि यदि अपनी सामान्य गति से कन्या राशि में भ्रमण कर रहे हैं तो इसका अर्थ यह होता है कि शनि कन्या से तुला राशि की तरफ जा रहे हैं, किन्तु वक्री होने की स्थिति में शनि उल्टी दिशा में चलना शुरू कर देते हैं अर्थात शनि कन्या से तुला राशि की ओर न चलते हुए कन्या राशि से सिंह राशि की ओर चलना शुरू कर देते हैं और जैसे ही शनि का वक्र दिशा में चलने का यह समय काल समाप्त हो जाता है, वे पुनः अपनी सामान्य गति और दिशा में कन्या राशि से तुला राशि की तरफ चलना शुरू कर देते हैं। वक्र दिशा में चलने वाले अर्थात वक्री होने वाले बाकी के सभी ग्रह भी इसी तरह का व्यवहार करते हैं। वक्री ग्रहों की परिभाषा जान लेने के पश्चात आइए अब देखें कि दुनिया भर के ज्योतिषी वक्री ग्रहों के बारे में मुख्य रूप से क्या धारणाएं रखते हैं। सबसे पहले चर्चा करते हैं ज्योतिषियों के उस वर्ग विशेष की जो यह धारणा रखता है कि वक्री ग्रह किसी भी कुंडली में सदा अशुभ फल ही प्रदान करते हैं क्योंकि वक्री ग्रह उल्टी दिशा में चलते हैं इसलिए उनके फल अशुभ ही होंगे। ज्योतिषियों का एक दूसरा वर्ग मानता है कि वक्री ग्रह किसी कुंडली विशेष में अपने कुदरती स्वभाव से विपरीत आचरण करते हैं अर्थात अगर कोई ग्रह किसी कुंडली में सामान्य रूप से शुभ फल दे रहा है तो वक्री होने की स्थिति में वह अशुभ फल देना शुरू कर देता है। इसी प्रकार अगर कोई ग्रह किसी कुंडली में सामान्य रूप से अशुभ फल दे रहा है तो वक्री होने की स्थिति में वह शुभ फल देना शुरू कर देता है। इस धारणा के मूल में यह विश्वास है कि क्योंकि वक्री ग्रह उल्टी दिशा में चलने लगता है इसलिए उसका शुभ या अशुभ प्रभाव भी सामान्य से उल्टा हो जाता है।
ज्योतिषियों का एक और वर्ग यह मानता है कि अगर कोई ग्रह अपनी उच्च की राशि में स्थित होने पर वक्री हो जाता है तो उसके फल अशुभ हो जाते हैं तथा यदि कोई ग्रह अपनी नीच की राशि में वक्री हो जाता है तो उसके फल शुभ हो जाते हैं। इसके पश्चात ज्योतिषियों का एक और वर्ग है जो यह धारणा रखता है कि वक्री ग्रहों के प्रभाव बिल्कुल सामान्य गति से चलने वाले ग्रहों की तरह ही होते हैं तथा उनमें कुछ भी अंतर नहीं आता। ज्योतिषियों के इस वर्ग का यह मानना है कि प्रत्येक ग्रह केवल सामान्य दिशा में ही भ्रमण करता है तथा कोई भी ग्रह सामान्य से उल्टी दिशा में भ्रमण करने में सक्षम नहीं होता। इतने सारे मतों और धारणाओं पर चर्चा करने के पश्चात आइए अब देखें कि अनुभव के अनुसार किसी ग्रह के वक्री होने की स्थिति में उसके व्यवहार में क्या बदलाव आते हैं। सबसे पहले तो यह जान लें कि किसी भी वक्री ग्रह का व्यवहार उसके सामान्य होने की स्थिति से अलग होता है तथा वक्री और सामान्य ग्रहों को एक जैसा नहीं मानना चाहिए। किन्तु यहां पर यह जान लेना भी आवश्यक है कि अधिकतर मामलों में किसी ग्रह के वक्री होने से कुंडली में उसके शुभ या अशुभ होने की स्थिति में कोई फर्क नही पड़ता अर्थात सामान्य स्थिति में किसी कुंडली में शुभ फल प्रदान करने वाला ग्रह वक्री होने की स्थिति में भी शुभ फल ही प्रदान करेगा तथा सामान्य स्थिति में किसी कुंडली में अशुभ फल प्रदान करने वाला ग्रह वक्री होने की स्थिति में भी अशुभ फल ही प्रदान करेगा। अधिकतर मामलों में ग्रह के वक्री होने की स्थिति में उसके स्वभाव में कोई फर्क नहीं आता किन्तु उसके व्यवहार में कुछ बदलाव अवश्य आ जाते हैं। वक्री होने की स्थिति में किसी ग्रह विशेष के व्यवहार में आने वाले इन बदलावों के बारे में जानने से पहले यह जान लें कि नवग्रहों में सूर्य तथा चन्द्र सदा सामान्य दिशा में ही चलते हैं तथा ये दोनों ग्रह कभी भी वक्री नहीं होते। इनके अतिरिक्त राहु-केतु सदा उल्टी दिशा में ही चलते हैं अर्थात हमेशा ही वक्री रहते हैं।
इसलिए सूर्य-चन्द्र तथा राहु-केतु के फल तथा व्यवहार सदा सामान्य ही रहते हैं तथा इनमें कोई अंतर नहीं आता। आइए अब देखें कि बाकी के पांच ग्रहों के स्वभाव और व्यवहार में उनके वक्री होने की स्थिति में क्या अंतर आते हैं। गुरु: वक्री होने पर गुरु के शुभ या अशुभ फल देने के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आता अर्थात किसी कुंडली विशेष में सामान्य रूप से शुभ फल देने वाले गुरु वक्री होने की स्थिति में भी उस कुंडली में शुभ फल ही प्रदान करेंगे तथा किसी कुंडली विशेष में सामान्य रूप से अशुभ फल देने वाले गुरू वक्री होने की स्थिति में भी उस कुंडली में अशुभ फल ही प्रदान करेंगे किन्तु वक्री होने से गुरू के व्यवहार में कुछ बदलाव अवश्य आ जाते हैं। वक्री होने की स्थिति में गुरु कई बार शुभ या अशुभ फल देने में देरी कर देते हैं। वक्री होने की स्थिति में गुरू बहुत बार कुंडली धारक को दूसरों को बिना मांगी सलाह या उपदेश देने की आदत प्रदान कर देते हैं। ऐसे लोगों को बहुत बार अपने ज्ञान का इस्तेमाल करने की सही दिशा का पता नहीं लगता तथा इसी आदत के चलते ऐसे लोग कई बार अपने आस पास के लोगों को व्यर्थ में ही उपदेश देना शुरू कर देते हैं। इन बदलावों के अतिरिक्त आम तौर पर वक्री गुरू अपने सामान्य स्वभाव की तरह ही आचरण करते हैं। शुक्र: वक्री होने पर शुक्र के शुभ या अशुभ फल देने के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आता अर्थात किसी कुंडली विशेष में सामान्य रूप से शुभ फल देने वाले शुक्र वक्री होने की स्थिति में भी उस कुंडली में शुभ फल ही प्रदान करेंगे तथा किसी कुंडली विशेष में सामान्य रूप से अशुभ फल देने वाले शुक्र वक्री होने की स्थिति में भी उस कुंडली में अशुभ फल ही प्रदान करेंगे किन्तु वक्री होने से शुक्र के व्यवहार में कुछ बदलाव अवश्य आ जाते हैं। वक्री शुक्र आम तौर पर कुंडली धारक को सामान्य से अधिक संवेदनशील बना देते हैं तथा ऐसे लोग विशेष रूप से अपने प्रेम संबंधों तथा अपने जीवन साथी को लेकर बहुत भावुक तथा अधिकार जताने वाले होते हैं। पुरुषों की जन्म कुंडली में स्थित वक्री शुक्र जहां उन्हें अति भावुक तथा संवेदनशील बनाने में सक्षम होता है वहीं पर महिलाओं की जन्म कुंडली में स्थित वक्री शुक्र उन्हें आक्रामकता प्रदान करता है।
ऐसी महिलाएं आम तौर पर अपने प्रेमी या जीवन साथी पर अपना नियंत्रण रखती हैं तथा संबंध टूट जाने की स्थिति में आसानी से अपने प्रेमी या जीवन साथी का पीछा नहीं छोड़तीं और कई बार बदला लेने पर भी उतारु हो जाती हैं। इन बदलावों के अतिरिक्त आम तौर पर वक्री शुक्र अपने सामान्य स्वभाव की तरह ही आचरण करते हैं। मंगल: वक्री होने पर मंगल के शुभ या अशुभ फल देने के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आता अर्थात किसी कुंडली विशेष में सामान्य रूप से शुभ फल देने वाले मंगल वक्री होने की स्थिति में भी उस कुंडली में शुभ फल ही प्रदान करेंगे तथा किसी कुंडली विशेष में सामान्य रूप से अशुभ फल देने वाले मंगल वक्री होने की स्थिति में भी उस कुंडली में अशुभ फल ही प्रदान करेंगे किन्तु वक्री होने से मंगल के व्यवहार में कुछ बदलाव अवश्य आ जाते हैं। वक्री मंगल आम तौर पर कुंडली धारक को सामान्य से अधिक शारीरिक तथा मानसिक ऊर्जा प्रदान कर देते हैं जिसका सही दिशा में उपयोग करने में आम तौर पर कुंडली धारक सक्षम नहीं हो पाते तथा इसलिए वे इस अतिरिक्त ऊर्जा को लेकर परेशान रहते हैं और कई बार यह ऊर्जा उनके अचानक ही प्रकट हो जाने वाले गुस्से अथवा चिड़चिड़ेपन के रूप में देखने के रूप में बाहर निकलती है। इस ऊर्जा के कारण ऐसे लोग अपने जीवन में कई बार अचानक ही बड़े अप्रत्याशित निर्णय ले लेते हैं जिससे इनके स्वभाव के बारे में कोई ठोस धारणा बना पाना कठिन हो जाता है।
महिलाओं की जन्म कुंडली में स्थित वक्री मंगल आम तौर पर उन्हें पुरुषों के गुण प्रदान कर देता है तथा ऐसी महिलाएं पुरुषों के कार्य क्षेत्रों में काम करने तथा पुरुषों को सफलता पूर्वक नियंत्रित करने में सक्षम होती हैं। इन बदलावों के अतिरिक्त आम तौर पर वक्री मंगल अपने सामान्य स्वभाव की तरह ही आचरण करते हैं। बुध: वक्री होने पर बुध के शुभ या अशुभ फल देने के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आता अर्थात किसी कुंडली विशेष में सामान्य रूप से शुभ फल देने वाले बुध वक्री होने की स्थिति में भी उस कुंडली में शुभ फल ही प्रदान करेंगे तथा किसी कुंडली विशेष में सामान्य रूप से अशुभ फल देने वाले बुध वक्री होने की स्थिति में भी उस कुंडली में अशुभ फल ही प्रदान करेंगे किन्तु वक्री होने से बुध के व्यवहार में कुछ बदलाव अवश्य आ जाते हैं। वक्री बुध आम तौर पर कुंडली धारक की बातचीत करने की क्षमता तथा निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित कर देते हैं। ऐसे लोग आम तौर पर या तो सामान्य से अधिक बोलने वाले होते हैं या फिर बिल्कुल ही कम बोलने वाले। कई बार ऐसे लोग बहुत कुछ बोलना चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाते तथा कई बार कुछ न बोलने वाली स्थिति में भी बहुत कुछ बोल जाते हैं।
ऐसे लोग वक्री बुध के प्रभाव में आकर जीवन मे अनेक बार बड़े अप्रत्याशित तथा अटपटे से लगने वाले निर्णय ले लेते हैं जो परिस्थितियों के हिसाब से लिए जाने वाले निर्णय के एकदम विपरीत हो सकते हैं तथा जिनके लिए कई बार ऐसे लोग बाद में पछतावा भी करते हैं किन्तु वक्री बुध के प्रभाव में आकर ये लोग अपने जीवन में ऐसे निर्णय लेते ही रहते हैं। इन बदलावों के अतिरिक्त आम तौर पर वक्री बुध अपने सामान्य स्वभाव की तरह ही आचरण करते हैं। शनि: समस्त ग्रहों में से शनि ही एकमात्र ऐसे ग्रह हैं जो वक्री होने की स्थिति में कुंडली धारक को कुछ न कुछ अशुभ फल अवश्य प्रदान करते हैं फिर चाहे किसी कुंडली में उनका स्वभाव कितना ही शुभ फल देने वाला क्यों न हो। किंतु वक्री होने की स्थिति में शनि के स्वभाव में एक नकारात्मकता अवश्य आ जाती है जो कुंडली धारक के लिए कुछ समस्याओं से लेकर बहुत भारी विपत्तियां तक लाने में सक्षम होती है। यदि शनि किसी कुंडली में सामान्य रूप से शुभ फलदायी होकर वक्री हैं तो कुंडली धारक को अपेकक्षाकृत कम नुकसान पहुंचाते हैं तथा ऐसी स्थिति में कुंडली में इनका स्वभाव मिश्रित हो जाता है जो कुंडली धारक को कभी लाभ तो कभी हानि देता है। किन्तु यदि शनि किसी कुंडली में सामान्य रूप से अशुभ फलदायी होकर वक्री हैं तो कुंडली धारक को अपेकक्षाकृत बहुत अधिक नुकसान पहुंचाते हैं।
किसी कुंडली में शनि सबसे अधिक नुकसान तब पहुंचाते हैं जब वे तुला राशि में स्थित हो, सामान्य रूप से अशुभ फलदायी हों तथा इसके साथ ही वक्री भी हों। तुला राशि में स्थित होकर शनि को अतिरिक्त बल प्राप्त होता है तथा अशुभ होने की स्थिति में शनि वैसे ही इस अतिरिक्त बल के चलते सामान्य से अधिक हानि करने में सक्षम होते हैं किन्तु ऐसी स्थिति में वक्री होने से उनकी नकारात्मकता में और भी वृद्धि हो जाती है तथा इस स्थिति में कुंडली धारक को दूसरे ग्रहों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए बहुत भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है। अस्त ग्रह: किसी भी ग्रह के अस्त हो जाने की स्थिति में उसके प्रभाव में कमी आ जाती है तथा वह किसी कुंडली में सुचारू रुप से कार्य करने में सक्षम नहीं रह जाता। किसी भी अस्त ग्रह की प्रभावहीनता का सही अनुमान लगाने के लिए उस ग्रह का किसी कुंडली में स्थिति के कारण बल, सूर्य का उसी कुंडली विशेष में बल तथा अस्त ग्रह की सूर्य से दूरी देखना आवश्यक होता है। तत्पश्चात ही उस ग्रह की कार्य क्षमता के बारे में सही जानकारी प्राप्त हो सकती है। उदाहरण के लिए किसी कुंडली में गुरू सूर्य से 11 डिग्री दूर होने पर भी अस्त कहलाएंगे तथा 1 डिग्री दूर होने पर भी अस्त ही कहलाएंगे, किन्तु पहली स्थिति में कुंडली में गुरू का बल दूसरी स्थिति के मुकाबले अधिक होगा क्योंकि जितना ही कोई ग्रह सूर्य के पास आ जाता है, उतना ही उसका बल क्षीण होता जाता है।
इसलिए अस्त ग्रहों का अध्ययन बहुत ध्यानपूर्वक करना चाहिए जिससे कि उनके किसी कुंडली विशेष में सही बल का पता चल सके। अस्त ग्रहों के पूर्ण शुभ प्रभाव को प्राप्त करने हेतु अतिरिक्त बल की आवश्यकता होती है तथा कुंडली में किसी अस्त ग्रह के अध्ययन के बाद ही यह निर्णय किया जाता है कि उस अस्त ग्रह को अतिरिक्त बल कैसे प्रदान किया जा सकता है। यदि किसी कुंडली में कोई ग्रह अस्त होने के साथ-साथ स्वभाव से शुभ फलदायी है तो उसे अतिरिक्त बल प्रदान करने का सबसे उचित उपाय है, कुंडली धारक को उस ग्रह विशेष का रत्न धारण करवा देना। रत्न का वजन अस्त ग्रह की प्रभावहीनता का सही अनुमान लगाने के बाद ही तय किया जाना चाहिए। इस प्रकार उस अस्त ग्रह को अतिरिक्त बल मिल जाता है जिससे वह अपना कार्य सुचारू रूप से करने में सक्षम हो जाता है। किंतु यदि किसी कुंडली में कोई ग्रह अस्त होने के साथ-साथ अशुभ फलदायी है तो ऐसे ग्रह को उसके रत्न के द्वारा अतिरिक्त बल नहीं दिया जाता क्योंकि किसी ग्रह के अशुभ होने की स्थिति में उसके रत्न का प्रयोग सर्वथा वर्जित है, भले ही वह ग्रह कितना भी बलहीन हो। ऐसी स्थिति में किसी भी अस्त ग्रह को बल देने का सबसे उचित तथा प्रभावशाली उपाय उस ग्रह का मंत्र जप होता है। ऐसी स्थिति में उस ग्रह के मंत्र का निरंतर जाप करने से या उस ग्रह के मंत्र जप, पूजा करवाने से ग्रह को अतिरिक्त बल तो मिलता ही है, साथ ही साथ उसका दुष्प्रभाव से शुभप्रभाव शुरू हो जाता है। किसी कुंडली में किसी अस्त तथा अशुभ फलदायी ग्रह के लिए सर्वप्रथम उसके बीज मंत्र अथवा वेद मंत्र के 1,25,000 मंत्रों के जाप से पूजा करवानी चाहिए तथा उसके पश्चात नियमित रूप से उसी मंत्र का जाप करना चाहिए जिसके जाप के द्वारा ग्रह की पूजा करवायी गई थी।