हर व्यक्ति की जन्मकुंडली उसके जन्म तिथि, समय व स्थान अनुसार ग्रहों की राशि चक्र में स्थिति दर्शाती है। ग्रह सदा चलायमान रहते हैं। सूर्य से दूरी अनुसार वह कुछ समय वक्री रहकर पुनः मार्गी हो जाते हैं। राहु व केतु सदा वक्री गति से भ्रमण करते हैं। गोचर करते हुए चंद्रमा एक राशि में 2 से सवा 2 दिन, सूर्य एक माह, बुध, शुक्र और मंगल लगभग एक माह, बृहस्पति एक वर्ष, राहु व केतु (वक्री चलते हुए) डेढ़ वर्ष का समय लेते हैं। शनि सर्वाधिक ढाई वर्ष में एक राशि का गोचर पूरा करता है। अतः उसका मानव जीवन पर दीर्घकालीन प्रभाव रहता है।
साढ़ेसाती जब शनि जन्मकुंडली में चंद्र राशि से पिछली राशि, चंद्र राशि में तथा चंद्र राशि से अगली राशि में गोचर करता है, तब यह (2) ग 3) अर्थात ‘साढ़ेसाती’ कहलाता है। यह क्रम हर जातक के जीवन में 30 वर्ष के अंतराल से आता रहता है। 2016-17 में तुला राशि वालों के लिये साढ़ेसाती का अंतिम भाग, वृश्चिक राशि के लिए मध्य भाग तथा धनु राशि के लिये प्रथम भाग चलेगा। साढ़ेसाती का समय जातकों को सांसारिक दृष्टि से कई प्रकार के कष्टों, जैसे असफलता, सुख में कमी, मानहानि, धन का नाश, शारीरिक पीड़ा, मानसिक चिंता, परिवार में किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का निधन, आदि का सामना करना पड़ता है।
अतः जनमानस का साढ़ेसाती से भयभीत रहना स्वाभाविक है। शनि का चंद्र राशि से चैथे, सातवें और आठवें भाव से गोचर भी जातक के लिए कष्टकारी होता है। वृषभ और तुला लग्न वाले जातकों के लिए शनि योगकारक (केंद्र और त्रिकोण भाव का स्वामी) होने से तथा मकर और कुंभ लग्न वालों के लिये लग्नेश होने के कारण शनि की साढ़े-साती साधारण कष्टकारी होती है। धनु, मीन, मिथुन और कन्या लग्नों के लिये मध्यम कष्टकारी तथा शेष लग्नों (मेष, कर्क, सिंह और वृश्चिक) के लिए साढ़ेसाती अधिक कष्टकारी होती है। जन्म कुंडली में शनि के नीच, अस्त, पीड़ित अथवा वक्री होने और चंद्रमा भी निर्बल अथवा पीड़ित होने पर साढ़ेसाती का समय सर्वाधिक कष्टकारी होता है। कुंडली में चंद्रमा राहु, मंगल या शनि द्वारा ग्रसित हो, अथवा चंद्रमा त्रिक भावों में स्थित हो तब भी साढ़ेसाती अधिक दुखदायी होती है।
दशा-भुक्ति के अनुकूल होने और बृहस्पति का गोचर भी शुभ होने पर साढ़ेसाती का प्रभाव कम होता है। साढ़ेसाती के समय जातक को अपनी तरह से शिक्षा देकर शनि जब चंद्र राशि से तीसरे भाव में गोचर करता है तो सारे अवरोध हटा देता है। इन ढाई वर्षों में जातक का पुरूषार्थ सफल होता है। उसके मान-सम्मान, धन-धान्य और सुख में वृद्धि होती है। शनि का चतुर्थ भाव से गोचर ‘कंटक शनि’ कहलाता है। इन ढाई वर्षों में जातक को स्थान हानि, पारिवारिक कलह, शारीरिक पीड़ा और सुख में कमी के कारण मानसिक संताप होता है। पंचम भाव से गोचर के समय बुद्धि-भ्रम, मान-सम्मान में कमी, धन हानि और संतान कष्ट होता है।
छठे भाव का गोचर अनुकूल परिस्थितियां लाता है। जातक स्वस्थ और सुखी रहता है। सप्तम भाव से शनि का गोचर जातक को स्वयं तथा पत्नी के लिए कष्टकारी, सहयोगियों से मनोमालिन्य और विदेश वास देता है। चंद्रमा से अष्टम भाव में शनि का गोचर जातक को शारीरिक पीड़ा, भय, स्त्री सुख में कमी, शत्रु वृद्धि, आदि कठिनाईयां देता है। नवम भाव से शनि का गोचर जातक को धन नाश, भय, वैमनस्य, परिवार के किसी बड़े सदस्य का निधन आदि कष्ट देता है। दशम भाव से गोचर के समय जातक को अपने अनुचित कर्मों के फलस्वरूप मानहानि और उसके कार्य में कई प्रकार के अवरोध आते हैं।
ग्यारहवें भाव में शनि का गोचर पिछले दस वर्षों के कष्टों से निवृत्ति देता है तथा जातक की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। जातक धन-धान्य, मान-सम्मान और सुख-समृद्धि पाता है। अगर जातक इस समय अधर्म व निन्दित कार्यों में लिप्त होता है तब फिर साढ़ेसाती के समय ब्याज सहित अनेक प्रकार के कष्ट भोगता है। इस प्रकार शनि अपने 30 साल में राशि चक्र की बारह राशियों से गोचर करते हुए साढ़े 22 साल विभिन्न प्रकार के कष्ट और बीच-बीच में ढाई वर्ष के तीन अंतराल में सुख देकर एक कठोर अनुशासक परंतु हितैषी शिक्षक की भांति इस संसार का सही रूप दर्शाकर जातक के मन में विरक्ति भावना का संचार करता है।
शास्त्रों में शनि जनित कष्टों की शांति के लिए शनिवार, अमावस्या और विशेषकर ‘शनैश्चरी अमावस्या’ को विधिवत् पूजा, अर्चना और दान का विधान बताया है। नित्य प्रति शनि मंत्र जाप व शनि-स्तोत्र’ पाठ भी लाभकारी होता है। इन उपायों को सुविधा और सामथ्र्य के अनुसार शरणागत भाव मनोबल अवश्य प्राप्त होता है।
शिवजी ने शनि ग्रह को मनुष्यों के कर्मों का निर्णायक बनाया है, अतः उसके दुष्प्रभाव को पूर्णतया समाप्त करना संभव नहीं है। शनि का कृपा पात्र बनने का सर्वोत्तम उपाय है कि अपनी बुद्धि और विवेक का सही उपयोग कर सदाचरण सत्कर्मों के साथ ईश्वर के प्रति समर्पित रहें, जो अध्यात्म पथ की पहली सीढ़ी है।